रेवड़ी की राजनीति कैसे खत्म होगी?
भारतीय राजनीति की कुछ बीमारियां लाइलाज हैं। रेवड़ी बांटने की राजनीति उन्हीं में से एक है। यह बीमारी तभी से है, जब से चुनाव होते हैं और सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि किसी न किसी रूप में दुनिया के ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में है। भारत में जब इस पर बहस शुरू हुई है तो कुछ ‘विद्वान’ लोग बताने लगे हैं कि विचारधारात्मक राजनीति के कमजोर होने के बाद रेवड़ी बांटने की राजनीति बढ़ी है। असल में ऐसा नहीं है। जब कथित तौर पर विचाराधारात्मक राजनीति बहुत मजबूत थी और पार्टियां सिद्धांतों के आधार पर राजनीति करती व चुनाव लड़ती थीं तब भी रेवड़ी बांटने की राजनीति होती थी। फर्क यह है कि तब रेवड़ी बांटने की राजनीति को एक मजबूत सैद्धांतिक आधार दिया जाता था और आज सीधे मतदाता को रिश्वत देने के अंदाज में रेवड़ी बांटी जा रही है। लेकिन क्या ऐसा हो सकता है कि सैद्धांतिक आधार के साथ रेवड़ी बांटना ठीक हो और रिश्वत देने के अंदाज में रेवड़ी बांटना गलत हो?
सवाल है कि रेवड़ी बांटने की राजनीति क्यों शुरू हुई और क्यों अभी तक जारी है? इस सवाल के जवाब में ही यह निष्कर्ष छिपा है कि भारत में रेवड़ी की राजनीति कभी खत्म नहीं होगी। आजादी के बाद रेवड़ी बांटने की शुरुआत देश के सामाजिक और ऐतिहासिक हालातों की वजह से हुई। सदियों तक गुलाम रहे देश में बड़ी आबादी बुनियादी सुविधाओं से वंचित थी। इसलिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था करने से लेकर मुफ्त राशन बांटने तक की शुरुआत हुई। तब भारत में अन्न का अकाल था। भारत ‘शिप टू माउथ’ वाला देश था। दुनिया के दूसरे देशों से जहाज पर लद कर अनाज आता था तब लोगों का पेट भरता था। ऐसे देश में अगर सरकार कमजोर व वंचित वर्गों के लिए एफरमेटिव एक्शन नहीं लेती तो अराजकता के हालात बन सकते थे। अफसोस की बात है कि समय के साथ खत्म होने की बजाय एफरमेटिव एक्शन वाली राजनीति मजबूत होती चली गई। भारत अन्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया और दुनिया की पांचवीं-छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया फिर भी एफरमेटिव एक्शन की जरूरत बनी रही या बनाए रखी गई।
आजादी के बाद जितने भी समय आधारित कानून बनाए गए या एफरमेटिव एक्शन लिए गए वे सब आज भी जस के तस चल रहे हैं। आजादी के 75 साल बाद भी आरक्षण की व्यवस्था न सिर्फ कायम है, बल्कि इसकी मांग और बढ़ गई है। अनाज के मामले में देश के आत्मनिर्भर हो जाने के पांच दशक बाद भी देश की 70 फीसदी के करीब आबादी सरकार की ओर से दिए जा रहे मुफ्त अनाज पर निर्भर है। प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानने के बावजूद लगभग समूचा मीडिया माई-बाप सरकार की रेवड़ी पर निर्भर है। असल में यह माई-बाप सरकार बनाने की अनिवार्य परिणति है। देश की बुनियाद मजबूत करने और नागरिकों को सक्षम बनाने की बजाय उन्हें धीरे धीरे सरकार की रेवड़ियों पर निर्भर बनाया गया। इसलिए अगर आज कोई नेता अचानक यह कहना शुरू करे कि रेवड़ी कल्चर को खत्म करना है तो उस पर भरोसा नहीं होता है। लगता है कि वह कोई राजनीतिक दांव साध रहा है क्योंकि कोई भी पार्टी या कोई भी नेता इस कल्चर से अछूता नहीं है। सब किसी न किसी रूप में इसी कल्चर को मजबूत कर रहे हैं।
सो, यह नहीं हो सकता है कि एक नेता मुफ्त में जो चीजें बांट रहा है उसे प्रसाद या सम्मान निधि माना जाए और दूसरा जो बांट रहा है उसे रेवड़ी कहें। केंद्र सरकार पांच किलो अनाज और एक किलो दाल 80 करोड़ लोगों को दे रही है और गर्व से इसका प्रचार किया जाता है। फिर अगर किसी राज्य सरकार ने भी ऐसी ही कोई योजना घोषित कर दी तो उसकी आलोचना कैसे हो सकती है? केंद्र सरकार किसान सम्मान निधि के नाम पर 10 करोड़ से ज्यादा किसानों को छह हजार रुपए साल का यानी पांच सौ रुपया महीना दे रही है। अगर कोई राज्य सरकार किसानों को एक हजार रुपया देने लगे तो उसकी आलोचना कैसे हो सकती है? केंद्र सरकार ने उज्ज्वला योजना के तहत पांच करोड़ से ज्यादा परिवारों को रसोई गैस के सिलिंडर मुफ्त में बांटे।
अब अगर किसी राज्य सरकार ने मुफ्त पेट्रोल या बिजली बांटने की घोषणा कर दी तो उसकी आलोचना कैसे हो सकती है? रेवड़ी बांटना सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है कि सरकारें मतदाताओं को लुभाने के लिए राज्यों का बंटवारा कर देती हैं। प्रशासनिक खर्च की सीमा जाने बगैर नए जिले बनाती हैं, नए अनुमंडल और नए प्रखंड बनाए जाते हैं। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने खैरागढ़ सीट का उपचुनाव जीतने के लिए उसे जिला बनाने की घोषणा की थी और जीतने के बाद नए जिले का गठन कर दिया!
याद रखें देश की सरकारें नागरिकों के लिए बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने में विफल रही हैं। अभी तक देश की बड़ी आबादी को पीने का साफ पानी नहीं मिल पाया है। सबको अच्छी और सस्ती शिक्षा व स्वास्थ्य की सुविधा नहीं उपलब्ध कराई जा सकी है। सामाजिक सुरक्षा नाम की कोई चीज इस देश में नहीं है। सामाजिक सुरक्षा के बगैर करोड़ बेरोजगार युवाओं का बुढ़ापा कैसा होगा, इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है। सोचें, जब भारत की सरकारों ने ऐसी व्यवस्था नहीं बनाई है कि कामकाज करने में सक्षम हर व्यक्ति को रोजगार मिले, हर बच्चे को समान व सस्ती शिक्षा मिले, हर बीमार को इलाज मिले, हर घर को साफ पानी और बिजली मिले, चलने को अच्छी सड़कें हो तों फिर उस देश में रेवड़ियां नहीं बांटी जाएंगी तो क्या होगा?
असल में रेवड़ी बांटना सबसे आसान काम है। इसमें न तो किसी विजन की जरूरत होती है और न ज्यादा धन की जरूरत होती है। सरकारें अपने नागरिकों का ही खून चूस कर जो राजस्व इकट्ठा करती हैं उसी का एक छोटा हिस्सा लोगों में बांटना होता है। इसके उलट लोगों को समक्ष और देश को मजबूत बनाने के लिए विजन की जरूरत होती है, जो इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो आज तक किसी नेता में नहीं दिखी है। किसी नेता ने लोगों को सक्षम बनाने का गंभीर प्रयास नहीं किया ताकि उन्हें सरकार की रेवड़ियों पर निर्भर नहीं रहना पड़े। जनता को जान बूझकर मजबूर बनाए रखा गया ताकि वे वोट बैंक की तरह काम आ सकें। आज भी सभी पार्टियां यहीं काम कर रही हैं। सब अपने अपने लाभार्थी और नमकहलाल वोटर तैयार कर रहे हैं ताकि चुनाव जीता जा सके।