सहज राजनीति के दिन लौटे?

लोकसभा चुनाव, 2024 के नतीजों की कई पहलुओं से व्याख्या हो रही है। होनी भी चाहिए क्योंकि इस बार का नतीजा अपेक्षाकृत संश्लिष्ट है। पिछले कुछ समय से मतदाताओं के व्यवहार में एक खास प्रवृत्ति यह दिख रही थी कि वे बिल्कुल स्पष्ट जनादेश दे रहे थे। केंद्र से लेकर राज्यों तक में जनादेश में कोई संशय नहीं होता था। एक दशक बाद मतदाताओं ने त्रिशंकु जनादेश दिया है। इससे एक बार फिर देश में गठबंधन की राजनीति का दौर लौट आया है। ऐसा क्यों हुआ, विश्लेषण का एक विषय यह हो सकता है। इसी तरह अलग अलग राज्यों के जनादेश की अलग व्याख्या हो सकती है। एक पहलू विपक्ष के आमने सामने का चुनाव बनाने की रणनीति की सफलता का भी हो सकता है।

यह भी एक बड़ा सवाल है कि इतने जबरदस्त ध्रुवीकरण के बावजूद भाजपा के खिलाफ जाने वाला करीब 60 फीसदी वोट पूरी तरह से विपक्ष के साथ क्यों नहीं आया? निश्चित रूप से इन सभी पहलुओं से नतीजों का विश्लेषण होगा। लेकिन नतीजों के बाद बड़ा सवाल यह है कि राजनीति में क्या बदलाव आएगा? क्या अब केंद्र में ज्यादा समावेशी सरकार बनेगी और क्या संघवाद की जिस अवधारणा को पिछले 10 साल से चुनौती मिल रही थी वह चुनौती समाप्त हो जाएगी? क्या संस्थाओं की स्वायत्तता फिर से बहाल हो जाएगी? क्या व्यक्ति केंद्रित राजनीति का दौर अब समाप्त हो जाएगा?

इन सवालों का जवाब तो समय देगा लेकिन पहली नजर में जनादेश को देख कर यह अंदाजा लग रहा है कि देश की राजनीति स्पष्ट रूप से दो ध्रुवीय हो रही है और भले दो पार्टियों का सिस्टम न बने परंतु विचारधारा पर आधारित दो गठबंधन अब स्थायी रूप से बने रह सकते हैं। विपक्ष की पार्टियों ने भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के खिलाफ ‘इंडिया’ का गठन करके चुनाव लड़ा था। इसका फायदा वोट प्रतिशत में भी मिला है और सीटों की संख्या में भी। सो, जब तक भाजपा देश की राजनीति की केंद्रीय ताकत के तौर पर मौजूद रहती है कम से कम तब तक विपक्ष का एक समानांतर वैचारिक व राजनीतिक गठबंधन बना रहेगा। दोनों गठबंधनों के वोट प्रतिशत में जितना कम अंतर है उससे विपक्ष भाजपा के खिलाफ कामयाबी की उम्मीद बांध सकता है।

बहरहाल, इस जनादेश के बाद भारत की राजनीति में जो सबसे बड़ा बदलाव आएगा वह ये है कि राजनीति की सहजता बहाल हो जाएगी। संतुलन या सहज राजनीति की वापसी स्पष्ट दिख रही है। पिछले कुछ समय से राजनीति में कुछ भी सहज नहीं रह गया था। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की कमान वाली भाजपा ने विरोधी पार्टियों और नेताओं को प्रतिद्वंद्वी की बजाय दुश्मन बना दिया था। चुनाव लड़ने को जीतने हारने की बजाय जीवन मरण का विषय बना दिया था और राजनीतिक संवाद की संभावना को पूरी तरह से समाप्त कर दिया था। लोकतंत्र में पार्टियों की भूमिका सिर्फ चुनाव लड़ने की नहीं होती है, बल्कि उन्हें सामाजिक बदलावों को भी दिशा देनी होती है और आम नागरिकों को सजग, जागरूक बनाने का काम भी करना होता है। लेकिन पिछले 10 साल में भाजपा चुनाव लड़ने की मशीनरी बन कर रह गई है। सहज राजनीति के दिनों में भाषणों की गरमी गरमी या कटुता सिर्फ चुनाव के समय देखने को मिलती थी। लेकिन पिछले कुछ समय से यह राजनीति का स्थायी भाव बन गया था।

एक और बड़ा बदलाव एकतरफा राजनीति की समाप्ति के रूप में दिख सकती है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की कमान में भाजपा की ताकत में जो बेहिसाब बढ़ोतरी हुई उसने प्रतिस्पर्धी राजनीति को समाप्त कर दिया था। विपक्षी पार्टियां किसी भी मामले में भाजपा का मुकाबला करती नहीं दिख रही थीं। भाजपा कुछ राज्यों में चुनाव जरूर हारी लेकिन हर बार चुनाव से पहले ही मान लिया जाता था कि भाजपा लड़ रही है तो जीतेगी ही। विपक्षी पार्टियां कहीं भी ताकत से लड़ती नहीं दिखती थीं। ऐसा लगता था कि रामायण के पात्र बाली की तरह नरेंद्र मोदी सामने आते ही प्रतिद्वंद्वियों की आधी ताकत खींच लेते हैं। इस बार लोकसभा चुनाव में भी पूरे देश में यह देखने को मिला कि चुनाव विपक्षी पार्टियां नहीं, बल्कि जनता लड़ रही थी। जनता ने ही भाजपा की एकतरफा राजनीति पर विराम लगा दिया है और विपक्ष को इतनी ताकत दी है कि वह भाजपा से प्रतिस्पर्धा कर सके। कह सकते हैं कि विकल्पहीनता यानी ‘देयर इज नो ऑल्टरनेटिव’ का फैक्टर समाप्त हो सकता है। यह भी सहज राजनीति के दिनों की वापसी का संकेत है।

अब संसद के अंदर भी एकतरफा राजनीति नहीं होगी। अब संभव नहीं है कि सरकार और आसन पर बैठे पीठासीन अधिकारी विपक्षी सांसदों को सदन से बाहर निकाल कर विधेयक पास करा लें। न चुनाव के मैदान में ऐसा होना है कि बिना लड़े ही भाजपा की जीत मान ली जाए और न संसद के अंदर यह होना है कि बिना बहस के या विपक्षी सांसदों की गैरहाजिरी में विधेयक पास हों। चुनाव के मैदान में प्रतिस्पर्धा लौटी है तो संसद के अंदर भी विपक्ष की ताकत इतनी बढ़ गई है कि सरकार पहले की तरह संसदीय परंपराओं को ताक पर रख कर काम नहीं कर पाएगी। संसदीय समितियों में भी विपक्ष की हैसियत बढ़ेगी। विपक्ष को राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में भाजपा के मुकाबले में लगभग बराबरी पर लाकर मतदाताओं ने यह भी सुनिश्चित कर दिया है कि मीडिया भी विपक्ष की अनदेखी नहीं कर सके। इससे प्रशासन और विधायी कामकाज दोनों में चेक एंड बैलंस की पारंपरिक व्यवस्था बहाल हो सकती है।

इस बार के चुनाव नतीजों ने व्यक्ति केंद्रित राजनीति पर कुछ हद तक लगाम लगाई है। हालांकि भारत में राजनीति हमेशा नेता के करिश्मे पर ही केंद्रित रही है और ज्यादातर नेताओं ने चुनाव जीतने के बाद मनमानी ही की है। फिर भी उम्मीद की जा सकती है कि पिछले 10 साल में जिस तरह से राजनीति और शासन का नैरेटिव सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ईर्द गिर्द केंद्रित हो गया था उसमें बदलाव आएगा। चुनाव नतीजों के बाद नरेंद्र मोदी ने भाजपा मुख्यालय में जो भाषण दिया उसमें उन्होंने जितनी बार एनडीए सरकार का जिक्र किया उससे यह उम्मीद पुख्ता हुई है कि अब मोदी सरकार का जिक्र कम ही सुनने को मिलेगा।

उसकी बजाय भाजपा सरकार या एनडीए सरकार की चर्चा होगी। सो, कह सकते हैं कि भारत ने सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत वाली जो लोकतांत्रिक शासन पद्धति अपनाई थी उसकी ओर लौटने की शुरुआत हो गई है। उम्मीद की जा सकती है कि सत्ता का केंद्रीकरण पहले की तरह नहीं होगा। सत्ता विकेंद्रित होगी और संघवाद की अवधारणा के सामने जैसी चुनौती खड़ी हो गई थी वह समाप्त होगी। केंद्रीय जांच एजेंसियों सहित तमाम संवैधानिक या वैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता बहाल होने की उम्मीद भी जा सकती है। केंद्र में एक पार्टी की मजबूत सरकार नहीं बनने के बाद फिर से न्यायिक सक्रियता के पुराने दौर की वापसी भी संभव है। यह अच्छा होगा या बुरा यह देखने वाली बात होगी।

लेकिन इतना तय है कि 1989 के बाद जिस गठबंधन राजनीति के दौर की शुरुआत हुई थी और जो दौर 2014 तक चला था वह भारतीय राजनीति के लिए बहुत बुरा दौर नहीं था। पीवी नरसिंह राव से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की गठबंधन सरकारों ने उदार, समावेशी और आकांक्षी लोकतंत्र को मजबूत किया था और भारत को विकास के रास्ते पर आगे बढ़ाया था। अब 10 साल के बाद फिर एक बार मतदाताओं ने गठबंधन की सरकार का जनादेश दिया है तो उम्मीद करनी चाहिए कि जो भी सरकार बनेगी वह इसका सम्मान करेगी।

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