राज्यपालों को संविधान पढ़ना चाहिए
वैसे तो देश के हर नागरिक को संविधान पढ़ना चाहिए। यह अच्छी बात है कि कई राज्यों में सरकारों ने स्कूल में संविधान की प्रस्तावना पढ़वाने का फैसला किया है। लेकिन जो लोग संवैधानिक पदों पर बैठे होते हैं उनको संविधान जरूर पढ़ना चाहिए और संविधान में लिखी बातों को उसकी मूल भावना के साथ यानी ‘लेटर एंड स्पिरिट’ के साथ अमल में लाना चाहिए। उनको यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि भारत पिछले 73 साल से एक लोकतांत्रिक गणतंत्र है, जो एक संविधान से संचालित होता है। धर्मग्रंथ चाहे किसी का भी हो और कितना भी पवित्र हो उससे देश नहीं चलता है और न किसी पार्टी के संविधान से देश चलता है, चाहे वह दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी क्यों न हो। यह एक बुनियादी सिद्धांत है, जिस पर हर हाल में अमल होना चाहिए। लेकिन ऐसा लग रहा है कि संवैधानिक पदों पर बैठे अनेक लोगों ने या तो संविधान नहीं पढ़ा है या उसे नहीं मानने की कसम खा रखी है।
तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने डीएमके सरकार के मंत्री वी सेंथिल बालाजी को मंत्री पद से बरखास्त करने का जो फैसला किया वह इसी की एक मिसाल है। वह तो अच्छा हुआ जो समय रहते उनको सद्बुद्धि आई और उन्होंने फैसले को कानूनी सलाह लेने के नाम पर रोक दिया। भारत का संविधान बहुत साफ शब्दों में कहता है कि राज्यपाल को राज्य मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करना है और बहुत विशेष परिस्थितियों में वे अपने विवेक से फैसला कर सकते हैं। वह विशेष स्थिति एक ही होती है, जब विश्वसनीय स्रोत से मिली जानकारी और अपने विवेक से राज्यपाल को लगे कि राज्य में संविधान के मुताबिक कामकाज होने की स्थितियां नहीं हैं तो वह राष्ट्रपति शासन लगाने का सिफारिश कर सकता है। संविधान के इस प्रावधान को सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संविधान पीठ ने 1974 में शमशेर सिंह बनाम पंजाब सरकार के मामले में दोहराया था। सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि, ‘कुछ विशेष स्थितियों को छोड़ कर राज्यपाल मंत्रिमंडल की सलाह पर और उसके अनुसार ही काम करेंगे’। इस साल फरवरी में महाराष्ट्र से जुड़े विवाद की सुनवाई के दौरान भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि, ‘राज्यपाल ऐसा कोई काम नहीं कर सकते हैं, जिसका अधिकार उनको संविधान के द्वारा नहीं दिया गया है’।
राज्यपाल रवि ने मंत्री को बरखास्त करने का जो आदेश जारी किया था उसमें लिखा कि वे इस बात को जानते हैं कि सामान्य स्थितियों में राज्यपाल को मंत्रिमंडल की सलाह पर और उसके अनुसान ही काम करना है। इसका मतलब है कि उनको यह असाधारण स्थिति प्रतीत हुई कि राज्य सरकार के एक मंत्री को केंद्रीय एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी ने गिरफ्तार किया है और वे जेल में बंद हैं। यह कोई असाधारण स्थिति नहीं है और दूसरे संविधान जिस असाधारण स्थिति की बात करता है वह राज्य में सरकार के संविधान के मुताबिक कामकाज नहीं करने की स्थिति होती है और ऐसी स्थिति में राज्यपाल को राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने का अधिकार होता है। राज्यपाल का काम यह नहीं है कि वे मुख्यमंत्री को सलाह दें कि वह किसको मंत्री रखे और किसको हटा दे।
यह सही है कि सेंथिल बालाजी भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार हुए हैं और जेल में बंद हैं। यह भी सही है कि जेल चले जाने के बाद भी मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने उनको मंत्री पद से नहीं हटाया, बल्कि बिना विभाग का मंत्री बनाए रखा। लेकिन यह कोई असाधारण स्थिति नहीं है। दिल्ली सरकार के मंत्री सत्येंद्र जैन गिरफ्तारी के बाद कई महीने बाद तक मंत्री बने रहे थे। उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी के बाद सिसोदिया और जैन को हटाने की सिफारिश मुख्यमंत्री ने की, राज्यपाल ने नहीं की। पश्चिम बंगाल में पार्थो चटर्जी की गिरफ्तारी का मामला हो या महाराष्ट्र में नवाब मलिक की गिरफ्तारी का मामला हो, सभी मामलों में मुख्यमंत्रियों ने मंत्री को हटाने की सिफारिश की। इन राज्यों में भी भाजपा विरोधी पार्टियों की सरकार थी और राज्यपालों के साथ इन राज्य सरकारों के संबंध भी कोई बहुत अच्छे नहीं थे। इसके बावजूद राज्यपालों ने अपने मन से मंत्री को बरखास्त करने का फैसला नहीं किया।
आरएन रवि ने स्टालिन सरकार के एक मंत्री को बरखास्त करने का आदेश जारी करके संविधान की ओर से खींची गई एक बेहद पवित्र रेखा का उल्लंघन किया है। उन्होंने पिछले साढ़े सात दशक से देश में स्वीकार्य परंपराओं का भी उल्लंघन किया है। तभी अच्छा हुआ, जो केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस पर आपत्ति की और मजबूरी में राज्यपाल को अपना फैसला रोकना पड़ा। फेस सेविंग के लिए कहा गया कि राज्यपाल इस फैसले पर कानूनी राय लेंगे। इससे राज्यपाल की स्थिति और हास्यास्पद हो गई। इससे यह मैसेज गया कि राज्यपाल ने फैसला पहले किया और विचार-विमर्श का काम बाद में करेंगे। ऐसा लग रहा है कि फैसला पहले करना और विचार बाद में करना उनकी आदत बन गई है।
उन्होंने पिछले साल तमिलनाडु के नाम को लेकर सवाल उठा दिया था। उन्होंने कहा था कि तमिझगम नाम ज्यादा बेहतर होगा। इतना ही नहीं उन्होंने पिछले साल पोंगल के मौके पर राजभवन की ओर से जारी निमंत्रण में भी खुद को तमिझगम का राज्यपाल बताया था। इसे लेकर बड़े पैमाने पर विरोध हुआ थी और तब राज्यपाल को पीछे हटना पड़ा था। विवाद शुरू करने के कोई दो हफ्ते बाद उन्होंने कहा कि वे तमिलनाडु का नाम बदलने की बात नहीं कर रहे थे, बल्कि तमिझगम शब्द का जिक्र कर रहे थे। राजभवन ने एक बयान जारी करके इस पर सफाई दी। इस साल जनवरी में तमिलनाडु विधानसभा के सत्र में रवि ने अपने अभिभाषण का कुछ हिस्सा पढ़ने से मना कर दिया। इससे पहले राज्य में किसी राज्यपाल ने ऐसा नहीं किया था। ध्यान रहे राज्यपाल का अभिभाषण राज्य सरकार की ओर से तैयार किया जाता है, जिसमें उसके कामकाज का ब्योरा होता है। लेकिन राज्यपाल ने राज्य सरकार के कामकाज का ब्योरा पढ़ने से इनकार कर दिया था और सदन से निकल गए थे। राज्य सरकार की ओर से पास विधेयकों को रोक कर रखना उनकी एक और आदत है, जिसका स्टालिन सरकार ने कई बार विरोध किया है।
सो, कुल मिला कर आरएन रवि न सिर्फ संवैधानिक प्रावधानों व मान्य राजनीतिक परंपराओं का उल्लंघन कर रहे हैं, बल्कि तमिलनाडु की भाषायी अस्मिता, सांस्कृतिक परंपरा और लोगों की भावनाओं का भी उल्लंघन कर रहे हैं। यह एक चिंताजनक स्थिति है। पहली चिंता तो इस बात को लेकर है कि क्या राज्यपाल राजनीतिक स्थितियों को ध्यान में रख कर इस तरह के काम कर रहे हैं? ध्यान रहे प्रदेश भाजपा के नेताओं ने जेल में बंद सेंथिल बालाजी को मंत्री बनाए रखने का विरोध किया था और उसके एक दिन बाद ही राज्यपाल का फैसला आया था। उनके इस फैसले से दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की इस दावे की पुष्टि होती है कि आज अध्यादेश के जरिए दिल्ली का अधिकार छीना गया है और कल किसी अन्य राज्य का अधिकार छीना जा सकता है। दूसरी चिंता तमिलनाडु के लोगों की संवेदनशीलता को लेकर है। कई मामलों को लेकर तमिलनाडु के नेता और आम लोग भी भेदभाव के आरोप लगाते रहे हैं। भाषा के सवाल, आर्थिक आधार और शासन में हिस्सेदारी को लेकर तमिलनाडु ही नहीं दक्षिण के दूसरे राज्य भी चिंता जताते रहे हैं। इस तरह की घटनाएं उनकी चिंताओं को बढ़ाती हैं। इसलिए राजनीतिक लोगों और संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को इस तरह के काम से बचना चाहिए।