हादसों से सबक नहीं लेतीं सरकारें

ओडिशा के बालासोर में भयंकर ट्रेन हादसे के बाद घनघोर शोक और निराशा के समय में भी एक समूह ऐसा है, जो यह समझाने में लगा है कि ट्रेन हादसे पहले भी होते थे और अब प्रति लाख किलोमीटर की यात्रा में हादसों की संख्या पहले से बहुत कम हो गई है। इस तरह के किसी भी आंकड़े पर संशय नहीं किया जा सकता है। लेकिन क्या इससे ऐसा नहीं लगता है कि यह जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने का एक मजबूत आधार तैयार करने की कोशिश है? यह भी सही है कि किसी का इस्तीफा लेने से मरने वालों का जीवन नहीं लौटेगा और न यह गारंटी होगी कि आगे ऐसी दुर्घटना न हो फिर भी इस्तीफा इस बात का संकेत होता है कि घटना को गंभीरता से लिया गया है, जवाबदेही तय की गई है और यह सुनिश्चित करने का प्रयास हुआ है कि आगे ऐसी घटना न हो। इस्तीफा न भी हो तब भी किसी आंकड़े के दम पर रेलवे में सब कुछ ठीक होने का नैरेटिव बनवाना अच्छी बात नहीं है।

कायदे से इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि रेलवे की सेहत ठीक नहीं है। पिछले कई दशक से रेलवे का इस्तेमाल राजनीति चमकाने के लिए ज्यादा हुआ है। इसका कामकाज गुणवत्तापूर्ण नहीं है। रेलवे की बुनियाद मजबूत करने की बजाय चमक-दमक पर ध्यान दिया गया है। आधारभूत ढांचे के निर्माण की बजाय मौजूद ढांचे पर लोड बढ़ाया गया है। रेलवे ट्रैक की सेहत सुधारने की बजाय जर्जर हो चुके ट्रैक और दशकों पुराने पुलों के ऊपर नई ट्रेनें दौड़ाने की होड़ लगी है। रेलवे का काम निजी कंपनियों को दिया जा रहा है। रिटायर हो रहे कर्मचारियों की जगह ठेके पर लोग रखे जा रहे हैं। मैनुअल काम देखने वालों की संख्या बहुत कम हो गई है और ओवरटाइम बढ़ गया है और ड्राइवर 12 घंटे से ज्यादा काम कर रहे हैं। आधुनिक तकनीक और डिजाइन का इस्तेमाल सिर्फ ट्रेन और कोच बनाने में हो रहा है। रेलवे की स्थापना सेवा के लिए हुई थी, लेकिन ऐसा लग रहा है कि इसका इस्तेमाल मुनाफा कमाने के लिए किया जाने लगा है। ट्रेन किराए से लेकर प्लेटफॉर्म टिकट तक के दाम में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। इसके बावजूद यात्री सेवाएं जस की तस हैं। यात्री सेवा की बजाय रेलवे से अंधाधुंध कोयले और इस्पात की ढुलाई हो रही है। रेलवे का अलग से बजट आना पहले ही बंद हो चुका है और अब इसका एक पूर्णकालिक मंत्री भी नहीं है। सूचना-प्रौद्योगिकी और संचार मंत्रालय संभाल रहे अश्विनी वैष्णव को रेल मंत्रालय भी दिया गया है। रेलवे इतना बड़ा विभाग है कि एक कैबिनेट के साथ कई राज्यमंत्री हों तब इसके साथ न्याय होगा।

हर साल बजट में बताया जाता है कि रेलवे का बजट कितना बढ़ाया गया और उसमें से कितना आधारभूत ढांचे पर खर्च होगा। लेकिन यह आंकड़ों की बाजीगरी है। बारीकी से देखने पर पता चलता है कि आधारभूत ढांचे पर होने वाला खर्च कम होता जा रहा है। भारत के नियंत्रक व महालेखापरीक्षक यानी सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में इस तरफ ध्यान दिलाया है। पिछले साल यानी 2022 के दिसंबर में संसद में पेश सीएजी कि रिपोर्ट में बताया गया है कि नया ट्रैक यानी रेल लाइन बिछाने का बजट कम हुआ है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि वित्त वर्ष 2017-18 में जो राष्ट्रीय रेल संरक्षा कोष बनाया गया था वह अपना मकसद हासिल करने में विफल रहा। केंद्र सरकार ने पांच साल के लिए एक लाख करोड़ रुपए का यह कोष बनाया था, जिसमें हर साल 20 हजार रुपए आवंटित किए जाने थे। इसमें से 15 हजार करोड़ रुपए केंद्र सरकार देती और पांच हजार करोड़ रुपए रेलवे के आंतरिक स्रोत से आना था। लेकिन चार साल में यानी वित्त वर्ष 2020-21 तक रेलवे अपने आंतरिक स्रोत से सिर्फ 4,225 करोड़ रुपए ही जुटा सका।

एक तथ्य यह भी है कि ज्यादातर दुर्घटनाएं ट्रेन के पटरियों से उतरने की वजह से हो रही हैं। पिछले पांच साल में जो ट्रेन दुर्घटनाएं हुई हैं उनमें से चार में से तीन दुर्घटनाएं ट्रेन के पटरी से उतरने की वजह से हुई है। ट्रेन के पटरी से उतरने का पहला और मुख्य कारण पटरियों की खराब दशा है। इसका यह भी मतलब है कि पटरियों के रख-रखाव पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। देश की ज्यादातर पटरियां पुरानी हो गई हैं और कई जगह तो अब भी अंग्रेजों के जमाने में बने पुल से काम चल रहा है। ट्रेनों की औसत स्पीड बढ़ाई जा रही है या हाई स्पीड वाली ट्रेनों को लगातार हरी झंडी दिखाया जा रहा है। लेकिन स्पीड बढ़ाने से पहले पटरियों की सेहत सुधारना जरूरी है। भारत में बुलेट ट्रेन चालू होनी है, जिसके लिए पटरी बिछाने पर प्रति किलोमीटर साढ़े तीन सौ करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं, जबकि सेमी हाईस्पीड ट्रेन की पटरी बिछाने पर 35 करोड़ रुपए प्रति किलोमीटर खर्च है। भारत में यात्री ट्रेनों की औसत स्पीड 50 से 60 किलोमीटर प्रति घंटे की है, जबकि चीन-जापान में दो से ढाई सौ किलोमीटर है।

बहरहाल, दिसंबर 2022 में संसद में पेश सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट के मुताबिक वित्त वर्ष 2017-18 से 2020-21 के बीच 69 फीसदी दुर्घटना ट्रेन के पटरी से उतरने से हुई है। इस दौरान कुल मिला कर 2,017 टुर्घटनाएं हुई हैं, जिनमें से 1,392 पटरी से उतरे के कारण हुई हैं। चूंकि सबसे ज्यादा दुर्घटनाएं ट्रेनों के बेपटरी होने से हुए थे तो सीएजी ऑडिट में इसी पर फोकस किया गया। सो, सीएजी ने 1,129 दुर्घटनाओं का अध्ययन किया। इसकी रिपोर्ट के मुताबिक 289 दर्घटनाएं ट्रैक रिन्यूल यानी पटरियों को नया बनाने या बेहतर करने से जुड़ी हैं। सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक पटरी के रख-रखाव में कमी से 167 दुर्घटनाएं हुईं। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि रेलवे लाइन के इंस्पेक्शन का काम बहुत लापरवाही से हुआ। इसमें 30 फीसदी से लेकर सौ फीसदी तक की कमी देखी गई। यानी कई ट्रैक ऐसे थे, जहां एक बार भी इंस्पेक्शन नहीं किया गया। सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक नई रेल लाइन बिछाने का का बजट 2018-19 में 9,607.65 करोड़ था, जो 2019-20 में घट कर 7,417 करोड़ हो गया। हैरानी की बात है कि वह रकम भी पूरी खर्च नहीं हुई।

बालासोर हादसे से कुछ दिन पहले रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने बड़े गर्व से बताया कि भारत में ट्रेन दुर्घटना रोकने के लिए कवच विकसित किया गया है, जो यूरोप की ट्रेनों में लगने वाले एंटी कोलिजन डिवाइस से भी बेहतर है। लेकिन हकीकत यह है कि रेलवे के 19 में से 18 जोन में कवच लगना शुरू नहीं हुआ है। भारतीय रेलवे के पास 13 हजार से कुछ ज्यादा इंजन हैं लेकिन सिर्फ 65 इंजन में ही कवच लग पाया है। ध्यान रहे यह इंजन और पटरी दोनों में लगता है, जिससे अगर एक पटरी पर दो ट्रेनें आ गईं तो चार सौ मीटर पहले ही रूक जाएंगी। इस साल पांच हजार किलोमीटर में कवच लगाना है। रेल मंत्री रहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि कोई डेढ़ दशक पहले जब वे रेल मंत्री थीं तभी से एंटी कोलिजन डिवाइस पर काम चल रहा है। सोचें, आधुनिक तकनीक के मौजूदा दौर में एक सिस्टम विकसित करने में क्या इतना समय लग सकता है? अगर रेलवे की सुरक्षा और संरक्षा प्राथमिकता में होती तो यह कब का तैयार हो चुका होता।

बालासोर की घटना हृदय विदारक है। उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार इससे सबक लेगी। रेलवे को राजनीति चमकाने का साधन बनाने की बजाय आम लोगों को सस्ती और सुरक्षित यात्रा की सुविधा देने वाली व्यवस्था में बदलने का प्रयास करेगी। रेलवे में सुधार के साथ साथ आपदा के समय होनेवाले राहत और बचाव कार्यों की गुणवत्ता में भी सुधार की बहुत जरूरत है और ऐसा बगैर संवेदनशील हुए नहीं हो पाएगा। बालासोर में 288 लोग मरे और दुर्भाग्य से इतने शवों को भी सम्मान देने की व्यवस्था हम नहीं कर पाए। जो वीडियो सामने आए हैं उसमें शव के ऊपर शव फेंके जा रहे हैं। हर शव को चादर तक नसीब नहीं हुई। प्रधानमंत्री, रेल मंत्री, कई केंद्रीय मंत्रियों और कई मुख्यमंत्रियों की मौजूदगी के बावजूद व्यवस्थित तरीके से राहत व बचाव के काम नहीं हुए। ऐसा लगा, जैसे समाज की तरह ही पूरा प्रशासन भी डिस्फंक्शनल हो गया है। अगर किसी को राहत व बचाव कार्य देखना हो तो यूक्रेन में चल रहे युद्ध को देखें। कैसे एक युद्धग्रस्त देश अपने नागरिकों को शवों को सम्मान देता है और कैसे रूसी हमले से ध्वस्त हो चुके ढांचे से निकल कर व्यवस्था बहाल करता है।

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