राज्यों में बराबरी का मुकाबला
राष्ट्रपति चुनाव ने साबित किया है कि राज्यों में भाजपा अब भी कांग्रेस या दूसरे प्रादेशिक क्षत्रपों से बहुत आगे नहीं है। वहां मुकाबला लगभग बराबरी का है। लेकिन संसद में और खास कर लोकसभा में मुकाबला एकतरफा हो जाता है। यह अगले चुनाव के लिए बड़ा सबक है। इसका यह भी मतलब है कि राज्यों के चुनाव में नरेंद्र मोदी का फैक्टर उस तरह से काम नहीं करता है जैसे संसदीय चुनाव में करता है। सो, अगर अगले संसदीय चुनाव में विपक्ष को भाजपा और नरेंद्र मोदी का मुकाबला करना है तो उसे रणनीति बदलनी होगी। इसके लिए जरूरी है कि विपक्षी पार्टियां विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में अलग अलग तरह से वोटिंग होने के पैटर्न को समझे। राष्ट्रपति चुनाव ने विपक्ष को यह मौका दिया है। इस चुनाव नतीजे का एक दूसरा निष्कर्ष यह भी है कि 2017 के मुकाबले 2022 में भाजपा कमजोर हुई है। बेशक डेढ़ फीसदी वोट का ही फर्क है लेकिन यह फर्क आया है। भाजपा के ज्यादा साधन संपन्न होने और आदिवासी व महिला उम्मीदवार देने के बावजूद द्रौपदी मुर्मू को रामनाथ कोविंद के मुकाबले डेढ़ फीसदी वोट कम मिला है और यशवंत सिन्हा को मीरा कुमार के मुकाबले डेढ़ फीसदी वोट ज्यादा मिला है।
पिछले चुनाव में रामनाथ कोविंद को 65.65 फीसदी वोट मिले थे और मीरा कुमार को 34.35 फीसदी वोट मिले थे। इस बार द्रौपदी मुर्मू को 64 फीसदी और यशवंत सिन्हा को 36 फीसदी वोट मिला है। राष्ट्रपति के पिछले चुनाव के बाद लोकसभा में भाजपा की ताकत बढ़ी है। उसे 2014 के मुकाबले 2019 में ज्यादा सीटें मिलीं। उसकी सहयोगी जनता दल यू को पिछली बार सिर्फ दो सीटें थीं, इस बार लोकसभा में उसके 16 सांसद हैं। शिव सेना ने विरोध में होने के बावजूद पहले की तरह वोट किया। इसके बावजूद भाजपा के उम्मीदवार को पिछली बार से कम वोट मिले तो इसका कारण यह है कि राज्यों में स्थितियां बदली हुई हैं। लोकसभा में तो भाजपा को बहुत ज्यादा वोट मिले लेकिन विधानसभाओं के वोट कम हो गए।
भाजपा देश के ज्यादातर राज्यों में सरकार में है लेकिन इसमें बड़े राज्यों की संख्या बहुत कम है। भाजपा बहुत कम बड़े राज्यों में चुनाव जीत पाई है। बड़े राज्यों में उत्तर भारत में वह सिर्फ उत्तर प्रदेश और बिहार में जीत पाई और दक्षिण भारत में उसके पास सिर्फ कर्नाटक है। पश्चिम में गुजरात और अभी जैसे तैसे महाराष्ट्र में उसने सरकार बनाई। मध्य प्रदेश में भी उसने कांग्रेस की सरकार गिरा कर अपनी सरकार बनाई है लेकिन पिछली बार की तुलना में उसके विधायकों की संख्या में कमी आई है। उत्तर प्रदेश में भी उसके विधायकों की संख्या में अच्छी खासी कमी आई। बड़े राज्यों में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, राजस्थान, पंजाब, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में कांग्रेस या प्रादेशिक पार्टियों की सरकार है।
यहीं कारण है कि राज्यों से द्रौपदी मुर्मू को जो वोट मिले उसके मुकाबले यशवंत सिन्हा के वोट का अंतर बहुत मामूली रहा। विधायकों के कुल 2,284 वोट द्रौपदी मुर्मू को मिले, जबकि 1,669 वोट यशवंत सिन्हा को मिले। इस हिसाब से वोट का अंतर 615 वोट का रहा। लेकिन मूल्य के लिहाज से यह अंतर सिर्फ 64 हजार वोट का है। मूल्य के हिसाब से द्रौपदी मुर्मू को दो लाख 98 हजार 803 वोट मिले, जबकि यशवंत सिन्हा को दो लाख 34 हजार 577 वोट मिले। इसके मुकाबले सांसदों के वोट में द्रौपदी मुर्मू को यशवंत सिन्हा से ढाई गुने से ज्याद वोट मिला। दोनों सदनों के 748 सांसदों ने वोट डाले थे, जिसमें से 540 वोट मुर्मू को मिले और 208 वोट सिन्हा को। मूल्य के हिसाब से देखें तो मुर्मू को तीन लाख 78 हजार वोट मिले और यशवंत सिन्हा को सिर्फ एक लाख 45 हजार छह सौ वोट मिले। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि लोकसभा में भाजपा के पास अकेले तीन सौ से ज्यादा सांसद हैं। जाहिर है तमाम शोर-शराबे के बावजूद राज्यों में भाजपा के साथ कांग्रेस और अन्य विपक्षी क्षत्रपों का बराबरी का मुकाबला है, जो लोकसभा में एकतरफा हो जाता है। विपक्ष इसे कैसे ठीक करेगा, उसकी असली चुनौती है।