बिना लहर के चुनाव का सस्पेंस

लोकसभा चुनाव 2024 के तीसरे चरण के मतदान के बाद यह और स्पष्ट हो गया है कि चुनाव किसी एक राष्ट्रीय मुद्दे पर नहीं लड़ा जा रहा है, बल्कि बिल्कुल स्थानीय स्तर पर लड़ा जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंदिर, आरक्षण आदि के जरिए हिंदुत्व के मुद्दे को और पाकिस्तान के जरिए राष्ट्रवाद के मुद्दे को स्थापित करने का भरपूर प्रयास किया, इसके बावजूद तीसरे चरण में भी मतदान नहीं बढ़ा। इक्का दुक्का राज्यों को छोड़ कर सभी जगह पिछली बार से कम मतदान हुआ और मतदाताओं का जोश नदारद रहा। नरेंद्र मोदी के नाम के अंडरकरंट से इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन ऊपर से कोई चुनावी लहर नहीं दिखाई दी।

इस बार के चुनाव में जो सबसे महत्वपूर्ण चीज दिख रही है वह है राज्य स्तर पर पार्टियों का राजनीतिक गठबंधन और उस गठबंधन का सामाजिक समीकरण। चुनाव में उम्मीदवार की जाति भी मुख्य भूमिका निभा रही है और स्थानीय मुद्दों पर भी लोग उम्मीदवारों से सवाल पूछ रहे हैं। जब चुनाव शुरू हुआ था तब ऐसा बिल्कुल नहीं लग रहा था। तभी नरेंद्र मोदी ने मतदाताओं से कहा था कि सभी 543 सीटों पर वे खुद चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसा लग भी रहा है कि लोग हर सीट पर उनकी मौजूदगी महसूस कर रहे हैं लेकिन उम्मीदवार की योग्यता और क्षमता को भी तौल रहे हैं।

सो, चुनाव निश्चित रूप से बिना किसी राष्ट्रीय मुद्दे के और बिना किसी लहर के है। ऐसे में राजनीतिक गठबंधन और सामाजिक समीकरण की भूमिका स्वाभाविक रूप से बहुत अहम हो जाती है। इसके बाद उम्मीदवारों की जाति का महत्व बढ़ जाता है और पार्टियों की संगठनात्मक ताकत की बड़ी भूमिका हो जाती है। ध्यान रहे भाजपा ने भी सामाजिक समीकरण को व्यापक बनाने के लिए राजनीतिक गठबंधन किया है। उत्तर प्रदेश में उसने अपना दल के साथ साथ राष्ट्रीय लोकदल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, निषाद पार्टी आदि के साथ तालमेल किया है।

इस तरह बिहार में जनता दल यू और लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास के अलावा भाजपा ने हिंदुस्तान आवाम मोर्चा और राष्ट्रीय लोक मोर्चा के साथ गठबंधन किया है। महाराष्ट्र में शिव सेना, एनसीपी, आरपीआई से उसका तालमेल है तो कर्नाटक में जेडीएस से उसने गठबंधन किया है। आंध्र प्रदेश में टीडीपी और जन सेना पार्टी से तालमेल है तो तमिलनाडु में पीएमके, एएमएमके आदि पार्टियों से उसका गठबंधन है। इन तमाम प्रादेशिक पार्टियों के सहारे भाजपा ने अपने सामाजिक समीकरण का विस्तार किया है।

दूसरी ओर विपक्षी समूह ‘इंडिया’ ने भी मजबूत गठबंधन बनाया है और राज्यवार सामाजिक आधार बड़ा किया है। हालांकि विपक्षी गठबंधन के साथ एक समस्या यह है कि ‘इंडिया’ का हिस्सा होने के बावजूद कई पार्टियां अलग चुनाव लड़ रही हैं, जिससे कंफ्यूजन भी बना है और वैचारिक व राजनीतिक विरोधाभास भी जाहिर हुआ है। जैसे केरल में कम्युनिस्ट पार्टियों का मुकाबला कांग्रेस के साथ है तो पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी आपस में लड़ रहे हैं, जबकि लेफ्ट मोर्चा और आप दोनों ‘इंडिया’ का हिस्सा हैं।

इसी तरह ममता बनर्जी की पार्टी भी ‘इंडिया’ का हिस्सा है लेकिन पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और लेफ्ट अलग अलग लड़ रहे हैं। हालांकि विपक्ष के लिए अच्छी बात यह है कि ‘इंडिया’ ब्लॉक की पार्टियों की आपसी लड़ाई वाले राज्यों में बंगाल को छोड़ कर केरल और पंजाब में भाजपा का कोई खास असर नही है। इसलिए विपक्षी गठबंधन के विरोधाभास और टकरावों के बावजूद भाजपा को उसका ज्यादा लाभ नहीं मिल पाएगा।

इनके अलावा जिन राज्यों में विपक्षी गठबंधन ने समझदारी के साथ सीट बंटवारा कर लिया है और एनडीए के खिलाफ ‘इंडिया’ का एक साझा उम्मीदवार है वहां अच्छा मुकाबला होता दिख रहा है। महाराष्ट्र से लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश और यहां तक कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी अनेक सीटों पर नजदीकी मुकाबला है। चुनाव की केंद्रीय थीम नहीं होने की वजह से उम्मीदवार की जाति और स्थानीय मुद्दों पर लोगों ने मतदान को प्राथमिकता दी है। प्रधानमंत्री के कामकाज से ज्यादा सांसदों के कामकाज पर सवाल पूछे गए हैं। तभी सवाल है कि लोकसभा का चुनाव इतना लोकल होने का नुकसान क्या भाजपा को होगा?

क्या विपक्षी गठबंधन को इसका लाभ हो रहा है? इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि लोकसभा का चुनाव क्षेत्र बहुत बड़ा होता है। औसतन 20 लाख मतदाता होते हैं और अगर 65 फीसदी भी वोटिंग होती है तो इसका मतलब है कि 13 लाख लोग वोट करेंगे। इतने वोट का अंदाजा लगाना मुश्किल होता है। इसमें बड़ी आबादी चुपचाप वोट करने वालों की हैं। अति पिछड़े, दलित, महिलाएं आदि चुपचाप वोट करते हैं। ध्यान रहे दोनों गठबंधनों में समर्थक जातियों का एक छोटा समूह है, जो वोकल होता है यानी बढ़ चढ़ कर बोलता है और दावे करता है। उसकी वाचालता के आधार पर चुनाव नतीजों का अंदाजा लगाना सही नहीं रहेगा।

यह भी ध्यान रखने की बात है कि बिना लहर वाले चुनाव में संगठन की ताकत और उसका विस्तार बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। इस मामले में भाजपा की स्थिति अपेक्षाकृत मजबूत है। भाजपा का संगठन बहुत बड़ा हो गया है और उसने बिल्कुल बूथ के स्तर तक शक्ति केंद्र और पन्ना प्रमुखों का एक नेटवर्क बनाया है। उसके पास संसाधन की कमी नहीं है और न वोट की कमी है। यह बहुत अहम बात है, जिसको हमेशा ध्यान में रखने की जरुरत है। भाजपा पिछले 10 साल में क्रमशः विकास करते हुए 37 फीसदी वोट तक पहुंची है। वह पहले अटल बिहारी वाजपेयी और बाद में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में 20 से 23 फीसदी के करीब वोट की पार्टी रही है। लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में पहले चुनाव में यानी 2014 में भाजपा 31 फीसदी वोट की पार्टी बनी और पांच साल के बाद उसे 37.36 फीसदी वोट मिले।

इस बार भी चुनाव से पहले हुए सीएसडीएस और लोकनीति के सर्वेक्षण में पता चला कि 40 फीसदी लोग भाजपा को वोट दे सकते हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी भावनात्मक मुद्दे की वजह से अचानक भाजपा के वोट में उछाल नहीं आया है। यह बढ़ोतरी क्रमशः हुई है और लोकसभा के दो चुनावों के अलावा राज्यों में हुए अनेक चुनावों में यह प्रतीकित हुआ है। भाजपा जिन राज्यों में हारी है वहां भी उसका वोट प्रतिशत लगभग बना रहा है। ऐसे में भले लहर नहीं हो लेकिन भाजपा लहर पैदा करने की बजाय अगर अपनी मशीनरी, सांस्थायिक ताकत और संगठन की संरचना के दम पर अपने मतदाताओं का वोट डलवा दे तो पलड़ा उसके पक्ष में झुक सकता है।

कांग्रेस के मुकाबले भाजपा 17 फीसदी से ज्यादा वोट के अंतर से आगे है। इसलिए यह मानना थोड़ा मुश्किल है कि तीन चरण में पिछली बार के मुकाबले औसतन तीन फीसदी कम मतदान हुआ है तो वह सब वोट भाजपा का है यानी भाजपा के लोग ही वोट डालने नहीं निकल रहे हैं। यह भी मानना मुश्किल है कि ऐसी जबरदस्त अंडरकरंट है कि भाजपा 17 फीसदी की अपनी बढ़त गंवा देगी। हां, यह जरूर है कि मतदान प्रतिशत कम होने से पिछले चुनाव में कम अंतर से हार जीत वाली सीटों पर मुकाबला और नजदीकी हो जाएगा। कम मतदान सिर्फ भाजपा की नहीं, बल्कि सभी पार्टियों की समस्या है।

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