घटती आमदनी और चमकती अर्थव्यवस्था!
भारत की अज़ीब दास्ता
भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर इस समय कई जुमले प्रचलित हैं। मसलन, भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था है, संकटग्रस्त दुनिया के बीच भारत अकेला चमकता हुआ स्थल है, चीन के बाद अब भारत विश्व अर्थव्यवस्था का अगला इंजन है, इत्यादि। लेकिन साल 2022-23 के आय कर रिटर्न के आंकड़े फिर से इस कहानी पर एक बड़ा सवाल बन कर सामने आए हैं। वैसे तो सवाल कई हैं, लेकिन उनके बीच सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि अगर ये भारतीय अर्थव्यवस्था चमक भी रही है, तो आखिर किसके लिए? कितने घरों में इस चमक से उजाला फैल रहा है?
बात इन आंकड़ों से ही शुरू करते हैं। यह बात खूब प्रचारित की गई है कि गुजरे वित्त वर्ष के लिए फाइल किए गए रिटर्न की संख्या में 16.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। इस वर्ष (आय कर रिटर्न फाइल करने की आखिरी तारीख) 31 जुलाई तक छह करोड़ 77 लाख से अधिक रिटर्न फाइल हुए, जबकि 31 जुलाई 2022 को (यानी इसके पिछले वित्त साल में) यह संख्या पांच करोड़ 83 लाख से कुछ अधिक रही थी। बहरहाल, रिटर्न फाइन होने की बढ़ी यह संख्या आखिर कितनी महत्त्वपूर्ण है?
यह सवाल हम इसलिए उठा रहे हैं कि रिटर्न कितने फाइल होते हैं, उनका मामूली महत्त्व ही होता है। अर्थव्यवस्था को अधिक से अधिक औपचारिक रूप देने के लिए सरकार की सख्ती और टेक्नोलॉजी के विकास से बड़ी संख्या में कामकाजी लोगों के लिए रिटर्न फाइल करना एक तरफ अनिवार्य हो गया है, तो साथ ही सुविधापूर्ण भी। परंतु महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उन लोगों की संख्या कितनी है, जो असल में टैक्स चुका रहे हैं? (यहां यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि बड़ी संख्या में लोग जीरो टैक्स का रिटर्न भी फाइल करते हैं, जबकि ऐसे व्यक्तियों की भी बड़ी संख्या होती है, जो टीडीएस (स्रोत पर टैक्स कटौती) में गई अपनी रकम को वापस लेने के लिए रिटर्न फाइल करते हैँ।
अब इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का जवाब ताजा आंकड़ों में ढूंढते हैः
साल 2022-23 में जिन लोगों ने वास्तव में आय कर दिया, उनकी संख्या दो करोड़ 23 लाख 93 हजार 891 रही। यहां इस बात को अवश्य रेखांकित कर लिया जाना चाहिए कि आज भारत की 140 करोड़ की आबादी में इनकम टैक्स देने की हैसियत रखने वाले लोगों की संख्या दो प्रतिशत से भी कम है।
एक कम औसत आय वाले विकासशील देश में वैसे यह कोई असाधारण बात नहीं है। असाधारण बात यह है कि अगर वित्त वर्ष 2019-20 से तुलना करें, तो इस संख्या में भारी गिरावट देखने को मिलती है। आज यह संख्या उस समय की तुलना में लगभग एक करोड़ 34 लाख कम है।
साल 2019-20 में तीन करोड़ 57 लाख, 52 हजार 260 व्यक्तियों ने असल में इनकम टैक्स चुकाया था। कोरोना महामारी से पहले का यह अंतिम वित्त वर्ष था। कोरोना महामारी की जबरदस्त मार पूरी दुनिया पर पड़ी। उससे भारत में भी लोगों की आमदनी घटी। उसका परिणाम वास्तविक आय कर चुकाने वाले लोगों की संख्या में भारी गिरावट के रूप में सामने आया।
लेकिन भारत में परेशानी का पहलू सरकार की तरफ से किए जा रहे उलटे दावे हैं। दावा किया गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था महामारी के असर को तेजी झटकते हुए उच्च वृद्धि के दौर में वापस आ चुकी है। लेकिन हकीकत यह है कि आय कर देने वाले व्यक्तियों की संख्या आज भी महामारी से पहले की तुलना में एक तिहाई कम बनी हुई है। ऐसे में यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि अगर अर्थव्यवस्था सचमुच संभल गई है, तो यह किसके लिए संभली है?
इस प्रश्न का उत्तर भी आय कर रिटर्न के बारे में उपलब्ध आंकड़ों में ढूंढा जा सकता है। इस प्रश्न का उत्तर हम आय कर चुकाने वाले व्यक्तियों में कितने लोग आमदनी के किस ब्रैकेट में आए, उन पर ध्यान देते हुए कर सकते हैं। गौर कीजिएः
पिछले चार वर्षों में टैक्स चुकाने वाले एक करोड़ रुपये से अधिक आमदनी वाले लोगों की संख्या में 48.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। लेकिन ऐसे व्यक्तियों की संख्या रिटर्न फाइल करने वाले कुल लोगों में सिर्फ 0.2 प्रतिशत है।
इस वर्ष 30 जून तक ऐसे व्यक्तियों की संख्या 1,69,890 रही थी।
इन्हीं चार वर्षों में पांच लाख से कम आमदनी का रिटर्न (जीरो टैक्स रिटर्न) दाखिल करने वाले लोगों की संख्या में सिर्फ 4.9 प्रतिशत इजाफा हुआ।
इस वर्ष 30 जून तक जीरो टैक्स का रिटर्न फाइल करने वाले व्यक्तियों की संख्या चार करोड़ 65 लाख रही।
ये आंकड़े इस बात का सबूत हैं कि देश में पैदा हो रहा धन चंद हाथों में सिमट रहा है। जबकि आम आबादी में आमदनी बढ़ने की रफ्तार बेहद सुस्त है। भारत के किन राज्यों से कितने लोगों ने रिटर्न फाइल किए, उनमें कितने किस आय वर्ग के हैं और वे किन राज्यों या क्षेत्रों से संबंधित हैं, इसके बारे में भी अब विवरण सामने आ चुका है। आंकड़ों की ये तमाम श्रेणियां देश में हर मोर्चे पर बढ़ रही आर्थिक गैर-बराबरी का ठोस संकेत देती हैं।
तो हमारे सामने दो हकीकतें हैः पहली यह कि नोटबंदी के बाद आम जन की आमदनी घटने और इसके परिणामस्वरूप उपभोग और मांग में गिरावट का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आगे ही बढ़ता जा रहा है। यह बात ध्यान में रखने की है कि 2019 में नेशनल स्टैटिक्सिकल ऑफिस (एनएसओ) की उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण रिपोर्ट को सरकार ने इसलिए रद्द कर दिया था, क्योंकि उससे देश में आम उपभोग गिरने की सच्चाई सामने आई थी। उसके बाद पहले से ही बिगड़ रही हालत पर कोरोना महामारी का जबरदस्त प्रहार हुआ, जिससे आबादी के बहुसंख्यक हिस्से की लड़खड़ाई अर्थव्यवस्था आज तक नहीं संभल सकी है।
कोरोना महामारी की पहली लहर के बाद आई दो रिपोर्टों ने महामारी और लॉकडाउन के घातक असर की कहानी हमें बताई थी। तब अमेरिकी रिसर्च संस्था पिउ रिसर्च ने बताया था कि 2020-21 में भारतीय मध्य वर्ग एक तिहाई सिकुड़ गया। मध्य वर्ग में मौजूद नौ करोड़ लोगों में से सवा तीन करोड़ लोग वापस गरीब या नव-मध्य वर्ग (मध्य वर्ग से नीचे लेकिन गरीबी रेखा से ऊपर) की श्रेणी में चले गए। उन्हीं दिनों अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की एक अध्ययन रिपोर्ट से यह बात सामने आई कि कोरोना महामारी ने 23 करोड़ भारतीयों को वापस गरीबी रेखा के नीचे धकेल दिया।
आय कर रिटर्न के ताजा आंकड़ों ने यह बताया है कि मध्य वर्ग में जो सिकुड़न आया, वह लगभग जैसे को तैसा बना हुआ है। यानी समाज में आय बढ़ने से ऊपर की तरफ जाने की प्रक्रिया (Mobility) गतिरुद्ध बनी हुई है। यह स्थिति बनाए रखने में सरकार की नीतियों का भी बड़ा योगदान है। कर ढांचे को प्रतिगामी बना देना नरेंद्र मोदी सरकार की एक खास नीति रही है। इसके तहत कॉरपोरेट और अन्य प्रत्यक्ष कर देने वाले तबकों को लगातार छूट दी गई है। इनके बीच भी निजी आय कर देने वाले लोगों को पहले जो डिडक्शन और टैक्स बचाने की कुछ अन्य सुविधाएं मिलती थीं, धीरे-धीरे उससे उन्हें वंचित किया गया है। इसका असर मध्य वर्ग और उभरते मध्य वर्ग पर पड़ा है। उधर परोक्ष करों का बोझ लगातार बढ़ाया गया है, जिसकी सबसे ज्यादा मार गरीब, निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग पर पड़ती है। कैसे, यहां गौर कीजिएः
साल 2018-19 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कॉरपोरेट टैक्स का हिस्सा 3.5 प्रतिशत था। निजी आय कर का हिस्सा 2.5 प्रतिशत था। जीएसटी का हिस्सा 3.1 प्रतिशत था। जबकि कस्टम ड्यूटी और केंद्रीय उत्पाद कर का हिस्सा क्रमशः 1.2 और 0.6 प्रतिशत था।
मतलब उस वित्त वर्ष में जीडीपी में प्रत्यक्ष करों का हिस्सा छह प्रतिशत था, जबकि परोक्ष करों का हिस्सा 4.9 प्रतिशत था।
अब 2022-23 की तस्वीर देखिएः इस वित्त वर्ष में कॉरपोरेट 3.0 प्रतिशत टैक्स का हिस्सा रहा। निजी आय कर का इसमें हिस्सा 3.1 प्रतिशत रहा। जीएसटी का हिस्सा भी 2.1 प्रतिशत रहा। कस्टम ड्यूटी और केंद्रीय उत्पाद कर का हिस्सा क्रमशः 1.2 फीसदी और 0.8 प्रतिशत हो गया।
यानी प्रत्यक्ष करों का हिस्सा बढ़ कर 6.1 प्रतिशत हुआ, लेकिन इसमें निजी आय कर चुकाने वाले- यानी आम तौर पर मध्य वर्ग के लोगों का योगदान बढ़ गया। उधर परोक्ष करों का हिस्सा 5.1 प्रतिशत हो गया। यह उस दौर की कहानी है, जब शेयर मार्केट में उछाल के कारण कंपनियों का मुनाफा तेजी से बढ़ा है।
अब इस पहलू पर ध्यान दीजिएः
गैर-सरकारी संस्था ऑक्सफेम ने इसी वर्ष जनवरी में जारी अपनी एक महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट में बताया था कि जीएसटी की जो कुल उगाही होती है, उसका दो तिहाई हिस्सा भारतीय आबादी का निचला 50 प्रतिशत चुकाता है। असल में गरीब और कम आय वर्ग के लोगों का कुल जीएसटी में योगदान 64.3 प्रतिशत है। आय वर्ग श्रेणी में जो लोग 51 से 90 फीसदी तक वाले हिस्से में आते हैं, उनका जीएसटी में योगदान लगभग 33 प्रतिशत है। जबकि सबसे धनी दस प्रतिशत आबादी का इसमें योगदान सिर्फ तीन से चार प्रतिशत है।
इसे आम बोलचाल की भाषा में इस तरह कहा जा सकता है कि जो जितना गरीब है, वह अपनी आमदनी की तुलना उतना अधिक टैक्स दे रहा है। यहां यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि कस्टम ड्यूटी और केंद्रीय उत्पाद कर का बोझ भी उपभोक्ताओं पर ही पड़ता है, क्योंकि कंपनियां इन करों को शामिल करते हुए तमाम चीजों की कीमत तय करती हैं।
क्या टैक्स ढांचे के इस स्वरूप को देखने के बाद किसी के मन में संदेह बचेगा कि देश में गैर-बराबरी सरकारी नीतियों के तहत बढ़ाई जा रही है। चूंकि मध्य वर्ग और कम आय वर्ग के लोगों को अत्यधिक टैक्स चुकाना पड़ रहा है या करों की वजह से उन्हें अधिक महंगी चीजें खरीदनी पड़ती हैं, इसलिए उनकी वास्तविक गिर रही है- या कम से कम बढ़ तो नहीं ही रही है। इसका असर आज हम बाजार में चीजों की बिक्री के ढांचे पर भी देख सकते हैँ।
अब यह तर्क दिया जाता है कि कॉरपोरेट्स को जो छूट दी गई है, उससे वे देश की आर्थिक वृद्धि में योगदान कर रहे हैं, जिससे रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। लेकिन यहां यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए, कंपनियों को कर छूट मिलने के कारण जो लाभ हुआ, ज्यादातर मामलों में उसका निवेश उन्होंने स्टॉक (शेयर), ऋण और बॉन्ड मार्केट्स में किया है। प्रश्न यह है कि आखिर गुजरे वर्षों में नए निवेश से कितना रोजगार पैदा हुआ है, और अगर कहीं हुआ है वह किस प्रकार का है? क्या उससे श्रमिकों की आमदनी इस रूप में बढ़ी है, जिससे वे ऊपर के आय वर्ग में जाएं? अगर ऐसा होता, तो आम आय करदाताओं की संख्या बढ़ती, जो नहीं हुआ है।
असल में Jobless Growth (ऐसी आर्थिक वृद्धि जिससे रोजगार पैदा ना हो) तो यूपीए के शासनकाल में ही एक हकीकत बन गया था। नरेंद्र मोदी के शासन काल में इस हकीकत ने और गंभीर रूप ग्रहण कर लिया है और अब हमारे सामने Job-loss Growth (यानी आर्थिक वृद्धि दर बढ़ने के साथ रोजगार के अवसर घटने) की सच्चाई है।
इस बीच बड़ी कंपनियों के विदेशों में निवेश करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। यहां तक कि अब भारतीय कंपनियां अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में जाकर पैसा लगा रही हैं। इस तरह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की दिशा ही पलटती दिख रही है। इसकी सिर्फ दो मिसालें हम यहां देंगेः
पिछले महीने ही टाटा ग्रुप ने एलान किया कि वह ब्रिटेन में कार बनाने वाले फैक्टरी में चार बिलियन पाउंड का निवेश करेगी, जिससे वहां चार हजार नई नौकरियां पैदा होंगी।
इसके पहले जून में गुजरात स्थित कंपनी विक्रम सोलर ने अमेरिका में 1.5 बिलियन डॉलर के निवेश का एलान किया था। यह घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के तुरंत बाद हुई। उस यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने भाषण में उल्लेख किया था कि अब भारतीय कंपनियां अमेरिका में अरबों डॉलर का निवेश करेंगी, जिससे वहां हजारों नई नौकरियां पैदा होंगी।
तो कहा जा सकता है कि भारत में मिली छूट का लाभ भारतीय कंपनियां उन देशों को दे रही हैं, जहां से पहले एफडीआई आने और उससे भारत में नए रोजगार पैदा होने की उम्मीद जगाई जाती थी। इस बीच यह आंकड़ा खुद सरकार ने दिया है कि भारत में अति धनी की श्रेणी में आने वाले लाखों लोग हर साल भारत की नागरिकता छोड़ कर विदेशों में अपना ठिकाना बना रहे हैँ। 2011 से ऐसा करने वाले लोगों की संख्या उपलब्ध है और इसकी गति ठहरने का कोई संकेत नहीं है। स्पष्टतः उनमें बड़ी संख्या ऐसे लोग हैं, जिन्होंने भारत में धनी वर्ग के पक्ष में अपनाई गई नीतियों का लाभ उठाया, उससे अपनी संपत्ति बढ़ाई और फिर उन्होंने इस देश को राम-राम कह दिया। (भारत में अति धनी वर्ग में एक मिलियन डॉलर यानी लगभग साढ़े आठ करोड़ रुपए की संपत्ति वाले लोगों को रखा जाता है।)
दूसरी तरफ हालत है कि देश की ग्रामीण आबादी में सिर्फ 25 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिनकी आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच है। साथ ही आम भारतीय परिवार को हर वर्ष अपनी आय का 15 से 20 फीसदी हिस्सा मेडिकल जरूरतों पर खर्च करना पड़ता है। जाहिर है, यह स्थिति सार्वजनिक स्वास्थ्य की उपेक्षा के कारण है। लेकिन इससे लोगों का बजट बिगड़ता है और उनका जीवन स्तर गिरता चला जाता है। स्वास्थ्य सेवाओं का यह हाल दरअसल आम जीवन की जरूरी हर चीज और सेवा के अभाव का एक संकेतक है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के अंग्रेजी के k अक्षर के आकार में ढलने का रुझान खास कर कोरोना महामारी के बाद खूब चर्चा में रहा है। मतलब यह कि k अक्षर के आकार की तरह ऊपर की डंडी पर मौजूद आबादी के छोटे हिस्से की आय और संपत्ति बढ़ती ही चल जा ही है, जबकि नीचे की डंडी पर मौजूद लोगों की हालत लगातार गिर रही है। आय कर रिटर्न के ताजा आंकड़ों ने इस सच्चाई पर फिर से रोशनी डाली है।