श्मशान में पुरुषवादी रूढ़ियों को तोड़ती बेटियां

– पिछले कुछ वर्षों में बेटियों, पत्नियों और बहनों की ओर से अंत्येष्टि करने के मामले सामने आए हैं। यह परिवर्तन जरूरी भी है। अब समय आ गया है कि महिलाएं अंतिम संस्कार कर सकती हैं या नहीं, इन सवालों को दरकिनार करते हुए हम इस बदलाव को लाने में सक्रिय भूमिका निभाएं और अपनी बेटियों को अंतिम संस्कार का अधिकार दें।

गीता यादव, वरिष्ठ पत्रकार
महिलाएं अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार नहीं कर सकतीं, इसके पीछे कई तर्क हैं। एक तर्क यह भी है कि उनका तन-मन कोमल और कमजोर है। अंत्येष्टि की क्रियाओं का मन पर बुरा असर पड़ सकता है, लेकिन कई घटनाएं इस बात की पुष्टि करती है कि किसी भी काम को पूर्ण करने के लिए संवेदनाओं का होना जरूरी है। करीब 22 साल पुरानी घटना है। वृंदावन में अमारबाड़ी आश्रम है। यहां की एक विधवा सप्तदल ने होली के दिन प्राण त्यागे। चौकीदार त्योहार मनाने गया था। आश्रम की 60 से 105 साल तक की 65 विधवाओं के बीच एक भी मर्द मौजूद नहीं था। 105 साल की लखीदासी ने कहा कि रोना-धोना छोड़ो, चौकीदार कब लौटेगा क्या भरोसा। आगे की सोचो। मौके की नजाकत देखते हुए चंद अपाहिज, लाचार बूढ़ियां आश्रम से निकलकर द्वार-द्वार की याचिका बन गईं। किसी ने दरवाजा खोला, किसी ने अंदर से घुड़क दिया।

एक द्वार पर लड़की गीता ने द्वार खोला। उसके पिता ने मृतका की जाति पूछी। चुप्पी पर बोला, जात नहीं पता तो दूसरा दरवाजा देखो माई, यह कुलीन ब्राह्मण का घर है। अज्ञात कुल-गोत्र की विधवा के दाह-संस्कार की याचना को सभी वर्णों ने बड़ी निर्ममता से नकार दिया था। गीता का मन संवेदना से भर गया। उसने अपने भाई से मदद मांगी, उसने मना कर दिया। गीता इंटर की छात्रा थी। उसने पड़ोस में रहने वाली दो सहेलियों अनसूया और दीपा को तैयार किया। मां से बहाना बनाकर कुछ पैसे लिए और तीनों आश्रम की ओर चल पड़ीं। तीन किशोरियां और शेष बूढ़ियां। काम भी ऐसा, जिसे करने की कल्पना तक नहीं की थी। अनाड़ी हाथों से ज्यादा मेहनत करनी पड़ी। तीनों किशोरियों के साथ शव को चौथा कंधा दिया लखीदासी ने। झुकी कमर और निस्तेज नजर वाली वे दीन-हीन विधवाएं पीछे चल पड़ीं। श्मशान दूर था। हर दस कदम बाद कंधे बदलने पड़े पर हौसला नहीं टूटा।

यह सिर्फ शवयात्रा नहीं थी, अल्ट्रासाउंड के बाद मादा भ्रूण को गर्भ में ही नष्ट करा देने की साजिश से लेकर औरत को चिता पर यह अंगारे न दे सकने की पुरुष वर्ग की खुदगर्जी और संवेदनहीनता के खिलाफ स्त्रियों का एकजुट जातीय प्रदर्शन था। उन सभी को उस वक्त ऐसा ही लगा था। लड़कियों ने शवदाह के लिए लकड़ियां खरीदीं, सबने चिता सजाई। लखीदासी ने मुखाग्नि दी। वह दोनों हाथ जोड़ चीख पड़ी, सप्तदल तेरी सौगंध आज से कोई औरत अंतिम संस्कार के लिए किसी मर्द की मोहताज नहीं होगी। बड़े आदमी जो काम नहीं कर पाए, वो बच्चियों ने कर दिखाया। समाज को नई दिशा दिखाने का काम किया, क्योंकि उनमें संवेदनाएं थीं। इनकी बदौलत हर काम संभव है, क्या नारी और क्या पुरुष। किसी भी इंसान के जीवन-मरण संबंधित प्रक्रियाओं का उल्लेख 18 पुराणों में से एक गरुड़ पुराण में मिलता है। यह एक प्राचीन हिंदू शास्त्र है, जो वेदों की परंपरा का ही हिस्सा है। हालांकि इस ग्रंथ में महिलाओं और दाह संस्कार जैसी किसी व्यवस्था का जिक्र नहीं है।

महिलाओं द्वारा अंतिम संस्कार न किए जाने के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि श्मशान घाट पर हमेशा नकारात्मक ऊर्जा फैली होती है। यह उनके शरीर में प्रवेश कर सकती है। अंतिम संस्कार के दौरान शव के कपाल को तोड़ा जाता है, इसके लिए मजबूत शरीर और मन चाहिए। हिंदू मान्यताओं के अनुसार, अंतिम संस्कार में परिवार के सदस्यों को बाल कटवाने पड़ते हैं और शव के जलते समय वातावरण में कीटाणु फैल जाते हैं। यह शरीर के कोमल हिस्सों में चिपक जाते हैं, इसलिए बाल कटवाने के बाद स्नान किया जाता है। महिलाओं के मुंडन को शुभ नहीं माना जाता। कहा जाता है कि शरीर को अंतिम संस्कार के लिए ले जाने के बाद पूरे घर की सफाई की जाती है, इसलिए घरेलू कामों के लिए औरतों को घर में रोका जाता है।

प्रख्यात ज्योतिषी पंडित प्रवीण उपाध्याय के मुताबिक, महिलाओं द्वारा अंतिम संस्कार किया जाना पूरी तरह उचित है। किसी के मोक्ष प्राप्ति में भागीदार बनना पुण्य का काम है। अगर किसी के परिवार में पुरुष नहीं है तो महिलाएं अंतिम संस्कार कर सकती हैं। महिलाओं को मुंडन करवाने की आवश्यकता नहीं है। हालांकि अनेक साधु, संत, शंकराचार्य और धर्म शास्त्र इस प्रक्रिया को शास्त्र के अनुरूप नहीं मानते। उनका मानना है कि अगर महिला मुखाग्नि देती है तो उस आत्मा को सद्गति प्राप्त नहीं होती। पर अब यह परंपराएं बदल रही हैं और बेटियों के अपने पिता को मुखाग्नि देने के मामले सामने आते रहते हैं।

एक घटना राजस्थान के डीडवाना जिले की है। एक महिला की मौत के बाद उसकी पांच बेटियां उसकी मुक्तिदाता बनीं। बेटियों ने मां की चिता को न सिर्फ कांधा दिया, बल्कि मुखाग्नि भी दी। यह घटना बताती है कि मरूधरा भी अब सामाजिक बदलाव के दौर से गुजर रही है। हालांकि एक दूसरी घटना इस सोच को रोक रही है। राजस्थान के बूंदी जिले की मीना और उसके परिवार को पिता का अंतिम संस्कार बेटियों से कराने की सजा भुगतनी पड़ी। जब मीना और उसकी तीन बहनों ने पिता का अंतिम संस्कार करने का फैसला किया तो उन्हें समाज का विरोध झेलना पड़ा। मीना बताती है कि जब पिता की अर्थी तैयार की गई तो बहनें उन्हें उठाने के लिए आगे आईं। ये देखते ही सब टोकने लगे। हमारे परिवार को समाज से बाहर निकाल दिया गया।

छत्तीसगढ़ की एक घटना में महिला ने मां को मुखाग्नि दी। उसके बाद गुस्साए भाई ने उसे जान से मार डाला। इसी तरह की एक घटना में महिला कांस्टेबल को विरोध का सामना करना पड़ा। मथुरा के बंगाली घाट श्मशान पर एक अज्ञात महिला का शव अंतिम संस्कार के लिए लाया गया। मथुरा के कोसीकलां पुलिस स्टेशन में तैनात महिला कांस्टेबल शालिनी वर्मा अंतिम संस्कार के लिए आगे बढ़ीं। उन्हें घाट पर मौजूद एक पुजारी ने रोका और विरोध किया। शालिनी नहीं मानी। उसने कहा कि मैं इन रूढ़ियों को तोड़ना चाहती थी। मैंने पढ़ा था कि महिलाएं इसलिए नहीं जाती, क्योंकि वह ऐसा करने से डरती हैं। क्या भगवान राम की पत्नी सीता ने दशरथ का पिंडदान नहीं किया था। अगर उनका स्वीकार किया गया तो महिलाओं द्वारा अंत्येष्टि करने को क्यों स्वीकारा नहीं जा सकता।

बहुत से ऐसे लोग हैं, जिनके बेटे नहीं हैं। बेटियों को अंतिम संस्कार करने की अनुमति नहीं है। बेटियां भी ऐसा कर सकती हैं और समाज में किसी को भी इससे परेशानी नहीं होनी चाहिए। देश भर में ऐसी घटनाएं चुनौती दे रही हैं। सामाजिक, जातीय परम्परा के पक्षधरों के शुरुआती विरोध के बावजूद नारी ने अपने प्रियजन की चिता को अग्नि दी और बाद में सराहना की पात्र भी बनीं। कुछ महिलाओं ने तो श्मशान घाट को ही अपना घर बना लिया है और वहीं रहते हुए इस क्रिया को संपन्न करा रही हैं। 56 वर्षीय माया देवी बंजारा जयपुर शहर के त्रिवेणी घाट पर श्मशान घाट पर शवों का अंतिम संस्कार करवाती हैं। वह कहती हैं कि मैं श्मशान में लकड़ियां तौलती हूं, चिता लगाती हूं, कपाल क्रिया करवाती हूं। जोधपुर में भी एक महिला इसी काम से जुड़ी हुई हैं। ऐसे उदाहरण अनेक शहरों में मिल जाएंगे।

कोरोना महामारी के दौरान भी ऐसे कई उदाहरण थे, जहां बेटियों ने अपने परिजनों का अंतिम संस्कार किया था। जयपुर की दो साहसी बेटियों ने अपने पत्रकार भाई और पिता का अंतिम संस्कार किया था। कारगिल युद्ध के दौरान कई बेटियां अपने पिता की मुक्तिदाता बनीं। बदलते समय और छोटे परिवार की अवधारणा ने अब अंतिम संस्कार की प्रक्रिया मुखाग्नि व अन्य क्रिया कर्म को नया रूप दे दिया है। उसी का परिणाम है कि बदलते दौर में महिला या बालिका द्वारा मुखाग्नि देना और अंतिम संस्कार में महिलाओं का शामिल होना आम होता जा रहा है। महिला सशक्तिकरण, एकल परिवार, महानगर की संस्कृति, रिश्तों में दरार व असहयोग की भावना इसके लिए विशेष तौर पर जिम्मेदार हैं।

बीते डेढ़ दशकों में इस व्यवस्था को चुनौती देने, व्यावहारिक बनाने वाले दर्जनों उदाहरण इसी भारतीय परंपरागत व्यवस्था में सामने आए हैं। पहले पिता की मौत के बाद पुत्र नहीं होने पर परिवार के किसी रिश्तेदार के सिर पर पगड़ी बांधी जाती थी, लेकिन अब परंपराएं बदलाव के दौर में हैं। बदलते परिदृश्य में इस प्रथा पर किसी तरह का बंधन नहीं होना चाहिए। अच्छी परंपराओं को बनाए रखना भी हमारा कर्म है और खराब प्रथा और रूढ़ियां जो निरर्थक हैं, उन्हें तोड़ना भी जरूरी है। अब समय आ गया है कि हम अपनी बेटियों को यह विश्वास दिलाना बंद करें कि वे अपने माता-पिता के मोक्ष में बाधा बन सकती हैं।

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