राज्यपालों की सक्रियता के खतरे

भारत के संविधान में चेक एंड बैलेंस के सिद्धांत के तहत राज्यपाल का पद बनाया गया। संविधान के अनुच्छेद 163 में यह प्रावधान किया गया कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह और सहयोग से काम करेगा। लेकिन यह सिस्टम कभी भी परफेक्ट नहीं रहा, जैसा कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि लोकतंत्र में कोई भी सिस्टम परफेक्ट नहीं होता है। इसके बावजूद आजाद भारत में लोकतांत्रिक संस्थाएं अपने-अपने दायरे में थोड़े बहुत इम्परफेक्शन के साथ अच्छे से काम करती रहीं। अब अचानक राज्यपाल नाम की संस्था राज्यों के लिए और खास कर गैर-भाजपा दलों के शासन वाले राज्यों की सरकारों के लिए मुश्किल का सबब बन गई है। ऐसा राज्यपाल की नेतागिरी, उनके बड़बोलेपन और सीमाओं के अतिक्रमण की वजह से हो रहा है।

भारत में हालांकि पहले भी ज्यादातर राज्यपाल नेता ही होते थे। लेकिन तब गिने चुने राज्यों में ही गैर कांग्रेस सरकारें होती थीं इसलिए राज्यों के साथ राज्यपाल के टकराव की खबरें कम आती थीं। इसके अलावा एक फर्क यह भी था कि आमतौर पर सक्रिय राजनीति से रिटायर हो चुके उम्रदराज लोगों को राज्यपाल बनाया जाता था, जिनके लिए राजभवन रिटायर होकर आराम करने की जगह होती थी। सेना के या प्रशासनिक सेवा के भी रिटायर अधिकारी राजभवनों में बैठाए जाते थे तो वे भी आराम से अपना बुढ़ापा काटते थे। अब स्थितियां बदल गई हैं।

अब अनेक बड़े राज्यों में गैर भाजपा सरकारें हैं, केंद्र की सरकार अपनी पार्टी के राजनीतिक हित के लिए राज्यपाल की संस्था का इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करती है और ऐसे नेताओं को राजभवनों में बैठाया जाता है, जिनकी नेतागिरी का चस्का खत्म नहीं हुआ होता है या जो आदतन बड़बोले होते हैं। मिसाल के तौर पर पूर्वोत्तर के एक राज्य से हाल में रिटायर होकर फिर से सक्रिय राजनीति में उतरे एक राज्यपाल को ले सकते हैं। अपने राजनीतिक एजेंडे और बड़बोलेपन में उन्होंने राज्यपाल पद की गरिमा को बहुत नुकसान पहुंचाया। अब भी कई राज्यपाल हैं, जो इस तरह के काम कर रहे हैं।

राजधानी दिल्ली में तो केंद्र सरकार ने उप राज्यपाल को ही सरकार बना दिया है। इसलिए वहां चुनी हुई सरकार का कोई मतलब नहीं रह गया है। विधानसभा होने और विधानसभा में बहुमत वाली पार्टी की सरकार होने के बावजूद सारे फैसले राजभवन से होते हैं। तभी राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया है कि अधिकारी उनकी बात नहीं सुनते यहां तक कि फोन नहीं उठाते। पहले भी ऐसे ही हालात थे लेकिन नए उप राज्यपाल के आने के बाद स्थिति बद से बदतर हो गई है। चुनी हुई सरकार की कोई हैसियत नहीं रह गई है। हो सकता है कि केंद्र सरकार ऐसा चाहती हो इसलिए उप राज्यपाल कर रहे हों लेकिन व्यक्तियों का भी फर्क होता है कि तभी दिल्ली के उप मुख्यमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट को दिए हलफनामे में कहा है कि नए उप राज्यपाल के आने के बाद स्थिति बदतर हुई है।

महाराष्ट्र के राज्यपाल का एक अनोखा व्यक्तित्व है। वे लंबे समय तक भाजपा के नेता रहे हैं और अब भी वह चोला नहीं उतार पाए हैं। ऊपर से उनको नेतागिरी का ऐसा चस्का है कि राज्य की राजनीति और सामाजिक व्यवस्था से जुड़ी हर बात पर बयान देते हैं। राज्य में भाजपा और शिव सेना के एकनाथ शिंदे गुट की सरकार है लेकिन एक तरह से राजनीतिक एजेंडा राज्यपाल सेट करते हैं। वे राज्य के लिए सर्वाधिक संवेदनशील और भावनात्मक मुद्दों पर भी बेहद सतही टिप्पणी करते हैं। उनके बयानों से सिर्फ विपक्षी पार्टियां नाराज नहीं हैं, बल्कि उनकी अपनी पार्टी के नेता भी नाराज हैं। विपक्षी गठबंधन ने तो उनको हटाने के लिए आंदोलन करने का ऐलान किया है।

तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार ने कहा है कि राज्यपाल विधानसभा से पास किए गए विधेयकों को दबा कर बैठे हैं। पार्टी ने उनको हटाने की मांग की है। राष्ट्रपति के पास एक ज्ञापन दिया गया है, जिसमें राज्य सरकार ने कहा है कि राज्यपाल के पास 20 विधेयक लंबित हैं। यह सिर्फ तमिलनाडु का मामला नहीं है। किसी न किसी मामले में महाराष्ट्र, केरल और झारखंड में भी राज्यपाल के पास कैबिनेट की सिफारिश या विधानसभा से पारित विधेयक या कोई और फैसला लंबे समय तक लंबित रहा है। विधेयकों के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 200 में कहा गया है कि राज्यपाल विधेयक को अपनी मंजूरी दे सकते हैं, मंजूरी देने से इनकार कर सकते हैं या राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए उसे रोक सकते हैं। राज्यपाल मंजूरी नहीं देते हैं तो उनको विधेयक दोबारा विचार के लिए विधानसभा के पास भेजना होगा और अगर विधानसभा से संशोधन करके या बिना संशोधन किए दोबारा विधेयक को राज्यपाल के पास भेजे तो उसे मंजूरी देने की अनिवार्यता होती है। लेकिन विधेयक को मंजूरी देने या इनकार करने से पहले रोक कर रखने की कोई समय सीमा नहीं है। इसका इस्तेमाल करके राज्यपाल विधेयक लंबित रखते हैं। तमिलनाडु में भी महाराष्ट्र की तरह राज्यपाल संवेदनशील और भावनात्मक मुद्दों पर अपना राजनीतिक नजरिया पेश करते हैं। मेडिकल में दाखिले की नीट की व्यवस्था हो, नई शिक्षा नीति हो या त्रिभाषा फॉर्मूला हो, राज्य सरकार इनका विरोध कर रही है लेकिन राज्यपाल इस पर राज्य सरकार से अलग राय पेश करते हैं।

केरल में राज्यपाल ने राज्य सरकार के मंत्रियों को बरखास्त करने की धमकी दे दी थी और अलग अलग विश्वविद्यालयों के 11 कुलपतियों को इस्तीफा देने को कहा था। इसके बाद राज्य सरकार उनका चांसलर का दर्जा छीनने के लिए अध्यादेश लेकर आई। इसमें कोई संदेह नही है कि राज्यपाल विद्वान हैं लेकिन विद्वता के प्रदर्शन में सरकार के साथ टकराव बढ़ रहा है। तेलंगाना में राज्यपाल का नया विवाद है। सरकार ने सितंबर में विश्वविद्यालयों में बहाली सहित छह विधेयक भेजे थे लेकिन कोई मंजूर नहीं हुआ। उलटे राज्यपाल ने कहा है कि उनका फोन टेप हो रहा है। उधर झारखंड में राज्यपाल ने मुख्यमंत्री और उनके विधायक भाई के मामले में चुनाव आयोग की सिफारिशें तीन महीने से लटका रखी हैं और जब राज्य से बाहर होते है तो एटम बम फूटने की बात करते हैं! इन तमाम राज्यपालों को राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र से या बिहार के राज्यपाल फागू चौहान से कुछ सीखना चाहिए। दोनों राज्यों में गैर भाजपा सरकारें हैं और केंद्र से टकराव भी है इसके बावजूद राज्यपालों की वजह से किसी तरह के राजनीतिक विवाद की खबरें नहीं आती हैं।

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