महिला सुरक्षा पर घड़ियाली आंसू!

राष्ट्रपति दुखी और निराश हैं। प्रधानमंत्री भी दुखी और निराश हैं। मुख्यमंत्री के दुख और निराशा का तो पारावार ही नहीं है। वे तो इतनी दुखी हैं कि उन्होंने बंगाल की आग असम, बिहार, झारखंड और दिल्ली तक पहुंचा देने का संकल्प जाहिर किया है। सब इस बात से दुखी हैं कि देश में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो पा रही है। महिलाएं जघन्यतम हिंसा का शिकार हो रही हैं। सोचें, जिन तमाम लोगों को महिलाओं की और व्यापक रूप से समूचे समाज की सुरक्षा सुनिश्चित करनी है वे सारे लोग महिलाओं पर अत्याचार से दुखी और निराश हैं और महिलाओं पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए प्रतिबद्ध हैं, फिर भी महिलाओं पर अत्याचार रूकने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। ऐसा सिर्फ भारत में ही हो सकता है। एक विडम्बना यह भी है कि महिला पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ सब एकजुट हैं लेकिन सब उसी मसले पर आपस में लड़ भी रहे हैं। सवाल है कि जब कोलकाता के एक अस्पताल की जूनियर डॉक्टर के साथ बलात्कार और जघन्य हत्या की घटना पर तृणमूल कांग्रेस, भाजपा, कांग्रेस, लेफ्ट, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, मुख्यमंत्री सब समान रूप से दुखी हैं, निराश और गुस्से से भरे हैं और इस बात पर सहमत हैं कि दोषियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए और ऐसी घटनाओं को रोकने का ठोस उपाय होना चाहिए, फिर सब आपस में लड़ क्यों रहे हैं?

असल में यह लड़ाई ही वह कारण है, जिसकी वजह से देश में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो पाती है और आगे भी नहीं हो पाएगी। हकीकत यह है कि राधागोविंद कर अस्पताल में बर्बर तरीके से बलात्कार के बाद मार दी गई 31 साल की जूनियर डॉक्टर ने जो असहनीय पीड़ा झेली होगी और उसका परिवार दुख और यातना के जिस दौर से गुजर रहा है उससे असल में कोई पार्टी या नेता दुखी नहीं है। दोषी को सजा दिलाने के लिए प्रदर्शन कर रही तृणमूल कांग्रेस का दुख यह है कि इस घटना की वजह से उसकी सरकार को निशाना बनाया जा रहा है, जिससे उसका राजनीतिक नुकसान हो रहा है तो महिला सुरक्षा व सम्मान के नाम पर सड़क पर संग्राम कर रही भारतीय जनता पार्टी का दुख मगरमच्छ के आंसू जैसा है, जिसके लिए जूनियर डॉक्टर का क्षत विक्षत शरीर एक शिकार की तरह है। उसको लग रहा है कि यह अवसर है, जिसका लाभ उठा कर वह किया जा सकता है, जो 2021 में नहीं किया जा सका था। अन्यथा अगर उसका दुख वास्तविक होता तो दुख और गुस्से का जैसा प्रकटीकरण कोलकाता की सड़कों पर हो रहा है वैसा ही पटना और लखनऊ की सड़कों पर भी हो रहा होता। आखिर बिहार के मुजफ्फरपुर में भी एक नाबालिग युवती को गुंडे उसके परिवार के सामने से उठा कर ले जाते हैं और बलात्कार करके बर्बर तरीके से उसकी हत्या कर देते हैं। उत्तर प्रदेश में हाथरस से लेकर उन्नाव तक की अनगिनत घटनाएं हैं और अभी दो युवतियों के शव पेड़ से लटके मिले हैं, जिसे परिजन हत्या बता रहे हैं और पुलिस आत्महत्या साबित करने में जुटी हुई है।

यह सेलेक्टिव रवैया ही इस समस्या की जड़ है। एक पार्टी के शासन वाले राज्य में किसी स्त्री के ऊपर होने वाला अत्याचार दूसरी पार्टी के लिए अवसर बन जाता है। अगर यह वास्तव में किसी के लिए दुख और गुस्से का कारण होता तो अब तक इसे रोकने के ठोस प्रयास हुए होते। पूरी तरह नहीं तो कुछ हद तक ही महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित हुई होती या कम से कम चुनिंदा तरीके से दुख का प्रकटीकरण नहीं होता। सो, सबसे पहले सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को संवेदनशील होना होगा। महिलाओं के प्रति अपराध को लेकर राजनीति करने का रवैया छोड़ना होगा। ऐसी जघन्य घटनाओं में अपना हित साधने की घटिया राजनीति बंद करनी होगी। अगर नेता सेलेक्टिव रवैया छोड़ दें या राजनीतिक हितों को किनारे रख दें तो आधी समस्या सुलझ जाएगी। उसके बाद समाज सुधार और कानून प्रवर्तन के जरिए इसे रोकने का ठोस प्रयास हो सकता है। लेकिन निकट या सुदूर भविष्य में भी भारत में ऐसा होने की गुंजाइश नहीं दिख रही है। इसका कारण पुलिस, प्रशासन व न्यायिक व्यवस्था के नकारेपन के साथ साथ नेताओं और बौद्धिकों की बेईमानी भी है।

देश के नेता और बौद्धिक जमात किस तरह बेईमान है, इसका एक छोटा सा सबूत राजस्थान के अजमेर में 32 साल पहले हुई एक घटना में आए फैसले से मिलता है। कोई 32 साल पहले कुछ लोगों ने सैकड़ों लड़कियों के साथ बलात्कार किया था और उनकी तस्वीरों के जरिए उनको ब्लैकमेल किया था। ब्लैकमेल का शिकार हुई कई लड़कियों ने आत्महत्या कर ली थी। इस मामले में 32 साल बाद निचली अदालत से फैसला आया है और छह लोगों को सजा दी गई है। पूरे देश की सामूहिक चेतना को झकझोर देने वाले इस कांड में 32 साल बाद फैसला आना अपने आप में महिला सुरक्षा के तमाम प्रयासों को विफल कर देने वाला है। लेकिन उसके बाद देश के एक कथित उदार व लोकतांत्रिक बौद्धिक योगेंद्र यादव एक दूसरी कथित बौद्धिक व उदार महिला के साथ इंटरव्यू में इस बात पर आपत्ति जता रहे थे कि 32 साल बाद आए इस फैसले की खबर अखबारों ने बैनर हेडलाइन क्यों बनाई और क्यों सभी छह दोषियों के नाम के साथ उनकी तस्वीर छापी। उन्हें इस बात पर गुस्सा नहीं था कि फैसला आने में 32 साल क्यों लगा और न नरपिशाचों का शिकार बनीं लड़कियों के प्रति कोई सहानुभूति थी। उन्हें इस बात से नाराजगी थी कि इतनी बड़ी खबर क्यों बनी और दोषियों की तस्वीर उनके नाम के साथ क्यों छपी! उनकी इस नाराजगी का कारण यह था कि सभी छह दोषी मुस्लिम थे। उनकी सारी उदारता और लोकतांत्रिक रवैया यहां आकर दम तोड़ देता है।

सोचें, योगेंद्र यादव जैसे मृदुभाषी, विनम्र, उदार और समाजवादी विचारधारा में किशन पटनायक की वैचारिक शुचिता की विरासत संभालने वाले कथित लोकतांत्रिक व्यक्ति, जो खुद सक्रिय राजनीति में नहीं है, उनका रवैया इतना चुनिंदा है तो हार्डकोर राजनीति करने वालों का रवैया कैसा होगा? योगेंद्र यादव और सबा नकवी को सत्ता नहीं चाहिए उन्हें तो सत्ता की कृपा से कुछ हासिल हो जाने की ही उम्मीद होगी। जब उनका रवैया ऐसा है तो जिनको सत्ता चाहिए या जिनके हाथ में सत्ता है उनका रवैया कैसा होगा? इस सेलेक्टिव रवैए के कारण ही कहीं जाति या धर्म के आधार पर आरोपियों के नाम खूब उछाले जाते हैं तो कहीं जाति या धर्म के आधार पर उनके नाम दबा दिए जाते हैं। किसी एक राज्य की घटना को राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया जाता है तो किसी दूसरे राज्य की बिल्कुल वैसी ही घटना को मीडिया से गायब कर दिया जाता है। अन्यथा ऐसा होने का कोई कारण नहीं था कि सब दुखी होते, सब निराश होते, सब भयभीत होते, सब महिलाओं की सुरक्षा चाह रहे होते और फांसी देने के पक्ष में होते फिर भी फांसी तो दूर दोषियों को सजा भी नहीं हो पाती! भारत में महिलाओं की सुरक्षा और उनका सम्मान सुरक्षित नहीं हो पा रहा है तो इसका एक बड़ा कारण समाज और सिस्टम का सड़ा हुआ होना है। लेकिन उससे ज्यादा जिम्मेदार इस देश के सत्ता प्रतिष्ठान पर नियंत्रण करके बैठे नेताओं और बौद्धिकों का नकली दुख, नकली निराशा, नकली भय और महिलाओं के सम्मान में बहने वाले नकली आंसू हैं। सत्ता के लिए हर वीभत्स घटना को अवसर बनने का राजनीतिक दलों का रवैया कभी भी महिलाओं की सुरक्षा नहीं सुनिश्चित होने देगा।

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