कांग्रेस लौटी धर्मनिरपेक्षता के एजेंडे में!
कांग्रेस पार्टी धर्मनिरपेक्षता के मसले पर दुविधा में थी। आजादी के बाद से वह जिस किस्म की धर्मनिरपेक्षता की प्रैक्टिस कर रही थी उसे लेकर वह संशय में थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद उसका विश्लेषण करने के लिए एके एंटनी की अध्यक्षता में जो कमेटी बनी थी उसकी रिपोर्ट ने कांग्रेस को बदलने का रास्ता दिखाया था। एंटनी कमेटी ने कहा था कि कांग्रेस का मुस्लिमपरस्त दिखना या उस रूप में ब्रांड होना पार्टी के लिए घातक हो गया। उसके बाद ही राहुल को मोदी और कांग्रेस को भाजपा बनाने का अभियान शुरू हुआ था। कांग्रेस का एक धड़ा नरम हिंदुत्व की राजनीति बहुत दिन से करता रहा है। आज के समय में कांग्रेस के सबसे कट्टर धर्मनिरपेक्ष नेता भी 2002 के गुजरात दंगों के बाद हुए चुनाव में भाजपा को मिली जीत के बाद 2003 के विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में नरम हिंदुत्व की राजनीति करने के पैरोकार थे। कह सकते हैं कि उस समय से ही कांग्रेस नरम हिंदुत्व और अपने ब्रांड के सेकुलरिज्म के बीच दुविधा में डोल रही थी।
एंटनी कमेटी की रिपोर्ट ने कांग्रेस की दुविधा खत्म की थी और वह खुल कर हिंदू राजनीति करने लगी थी। इसी राजनीति के तहत राहुल गांधी को शिवभक्त ठहराने का नैरेटिव बनाया गया, जो कि वे हैं नहीं। वे केदारनाथ से लेकर कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर भी गए। उनको जनेऊधारी कौल ब्राह्मण बताया गया और दस जगह पूजा-पाठ कराए गए। भाजपा के राजनीतिक दांव से ही भाजपा को जवाब देने की रणनीति बनी। लेकिन उसमें कोई कामयाबी नहीं मिली। उलटे राहुल की छवि हास्यास्पद बन गई। मुस्लिम मतदाता भी कांग्रेस की बजाय दूसरी पार्टियों में अपना मसीहा खोजने लगे। गौर से देखें तो यही नौ साल का समय असदुद्दीन ओवैसी की कट्टरपंथी राजनीति के देश भर में विस्तार का समय है। मुस्लिम वोट के दम पर दूसरी प्रादेशिक पार्टियां मजबूत हुईं या ओवैसी का आधार बढ़ा। कांग्रेस कमजोर होती गई।
इस मामले में कांग्रेस की राजनीति में बदलाव का टर्निंग प्वाइंट उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों से आया। उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बड़ी मेहनत की थी। कांग्रेस पार्टी का ट्रंप कार्ड मानी जाने वाली प्रियंका गांधी सक्रिय राजनीति में उतरीं और उत्तर प्रदेश की कमान संभाली। इसके बावजूद कांग्रेस की ऐतिहासिक हार हुई। पार्टी को सिर्फ 2.4 फीसदी वोट मिले। इतिहास में इतने कम वोट पार्टी को कभी नहीं मिले थे। कांग्रेस को समझ में आ गया कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने उसे छोड़ दिया है और पूरी तरह से समाजवादी पार्टी के साथ चले गए हैं। इस वजह से सपा की सीटें 47 से बढ़ कर सवा सौ हो गईं और कांग्रेस सात की न्यूनतम सीमा से घट कर एक सीट पर रह गई। यह नतीजा हथौड़े की तरह कांग्रेस के ऊपर पड़ा था। कांग्रेस ने पंजाब में सत्ता गंवाई थी लेकिन उससे ज्यादा बड़ा झटका उत्तर प्रदेश के नतीजे से लगा था। कांग्रेस को पता है कि देश के मुसलमानों को उत्तर प्रदेश से मैसेज जाता है। इसलिए मार्च 2022 के बाद कांग्रेस की राजनीति को एक बार फिर बदलने की शुरुआत हुई।
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का कार्यक्रम बना, जिसके लिए ‘मोहब्बत की दुकान’ का जुमला गढ़ा गया। यह स्थापित किया गया देश में मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाई जा रही है और राहुल गांधी उसके खिलाफ यात्रा कर रहे हैं। उन्होंने अपनी यात्रा में खुल कर धर्मनिरपेक्षता की चर्चा की और महाराष्ट्र में कम से कम दो जगह विनायक दामोदर सावरकर को निशाना बनाया। शिव सेना से तालमेल के बावजूद प्रेस कांफ्रेंस करके सावरकर पर हमला करना अनायास नहीं था। राहुल गांधी दो टूक मैसेज देना चाहते थे कि कांग्रेस मुसलमानों के साथ है। इस बीच दूसरा घटनाक्रम यह हुआ कि मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के अध्यक्ष बने। यह संयोग था, लेकिन कांग्रेस के लिए छप्पर फाड़ संयोग बन गया। अगर अशोक गहलोत कांग्रेस अध्यक्ष बनते तो कांग्रेस को वह फायदा नहीं होता, जो खड़गे से हो रहा है। खड़गे के अध्यक्ष बनने के छह महीने के बाद ही उनके गृह प्रदेश कर्नाटक में विधानसभा का चुनाव था, जहां कांग्रेस को भारत जोड़ो यात्रा और खड़गे दोनों कार्ड को आजमाना था। कांग्रेस ने कर्नाटक चुनाव में ये दोनों कार्ड बखूबी आजमाए और कामयाबी हासिल की।
कांग्रेस ने कर्नाटक में अपने चुनाव घोषणापत्र में बजरंग दल पर पाबंदी की बात कही। यह कांग्रेस का 360 डिग्री का टर्न था। एक तरफ पार्टी के दलित राष्ट्रीय अध्यक्ष के गृह प्रदेश का चुनाव और ऊपर से बजरंग दल पर पाबंदी की घोषणा! इन दोनों ने मुस्लिम और दलित को कांग्रेस के पक्ष में पूरी तरह से एकजुट कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि ओल्ड मैसुरू इलाके में जो मुस्लिम वोट वोक्कालिगा के साथ मिल कर जेडीएस की जीत सुनिश्चित करता था वह उससे पूरी तरह से अलग हो गया और कांग्रेस के साथ चला गया। इस तरह कांग्रेस की मुस्लिम राजनीति का पहला शिकार जो प्रादेशिक पार्टी हुई वह जेडीएस है। आगे कुछ और पार्टियां हो सकती हैं। चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस की कर्नाटक सरकार धर्मनिरपेक्षता के कोर एजेंडे पर काम कर रही है। अब कांग्रेस इस राजनीति को पूरे देश में आजमाएगी। तभी नए संसद भवन के उद्घाटन के धार्मिक कर्मकांड से कांग्रेस ने दूरी बनाई और सेंगोल यानी राजदंड स्थापित किए जाने का खुल कर विरोध किया।
इसके बाद राहुल गांधी ने अमेरिका गए तो वहां नेशनल प्रेस क्लब में पत्रकारों से बात करते हुए मुस्लिम लीग को सेकुलर कहा। उसके बाद भाजपा ने कांग्रेस व राहुल पर हमला करके उसका काम और आसान बना दिया। ध्यान रहे सेकुलर राजनीति कांग्रेस की पहचान रही है। इसलिए अगर भाजपा के नेता राहुल गांधी पर आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने जिन्ना की मुस्लिम लीग को सेकुलर बताया है तो इससे कांग्रेस को नुकसान नहीं होगा। अगर भाजपा ऐसा कुछ कहती तो उसे जरूर नुकसान होता, जैसा कि लालकृष्ण आडवाणी के पाकिस्तान जाकर मोहम्मद अली जिन्ना को सेकुलर कहने से हुआ था। कांग्रेस ने सफाई दी और कहा कि राहुल ने जिन्ना की मुस्लिम लीग को नहीं, बल्कि केरल की सहयोगी इंडियन यूनियन मुस्लिम लोग को सेकुलर कहा। राहुल ने चाहे जिस मुस्लिम लीग को सेकुलर कहा हो, उनके कहे का मैसेज देश भर के मुसलमानों को पहुंचा होगा। राहुल ने अमेरिका में और भी कई बातें कहीं, जिनसे कांग्रेस की आगे की राजनीति का संकेत मिलता है। उन्होंने कहा कि मुसलमानों के साथ वही हो रहा है, जो दलितों के साथ 1980 में होता था। राहुल ने यह भी कहा कि भाजपा सरकार के कुछ कामों का सीधा खामियाजा मुस्लिम, दलित, आदिवासी भुगत रहे हैं, और सबसे सीधा खामियाजा मुसलमान को भुगतना पड़ रहा है, क्योंकि सबसे सीधा टारगेट वे हैं। राहुल ने मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहा- जिस तरह से आप महसूस कर रहे हैं कि आपके आपको निशाना बनाया जा रहा है, निश्चित रूप से वैसा ही ईसाई, सिख, दलित, आदिवासी भी महसूस कर रहे हैं।
क्या इससे कांग्रेस की राजनीति का ब्लूप्रिंट नहीं जाहिर होता है? इस ब्लूप्रिंट का पहला दांव है, पुरानी ‘धर्मनिरपेक्ष’ कांग्रेस की वापसी करानी है। दूसरा, दलित वोट वापस हासिल करना है और ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि कांग्रेस ने कद्दावर दलित नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बनाया है और दूसरी ओर देश के सबसे बड़े हिस्से में दलित राजनीति का प्रतिनिधित्व करने वाली बहुजन समाज पार्टी हाशिए में चली गई है। कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता है। तीसरा, आदिवासी समाज भाजपा से नाराज है। छत्तीसगढ़ में 2018 में आदिवासी के लिए आरक्षित 29 में से भाजपा सिर्फ दो सीट जीत पाई थी। 2019 में झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा आदिवासी के लिए आरक्षित 28 सीटों में से सिर्फ दो सीट जीत पाई और 2023 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 15 आदिवासी सीटों में से भाजपा एक भी नहीं जीत पाई। चौथा, किसान आंदोलन के दौरान जिस तरह से सिखों को टारगेट किया गया उससे पूरी कौम नाराज है। चौथा, ईसाई समुदाय पर देश के कई हिस्सों में हुए हमले के बाद दूसरे सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय में चिंता और नाराजगी है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसाइयों को लुभाने की कोशिश में लगे हैं, लेकिन उनके लिए कांग्रेस बेहतर विकल्प है। सो, देश का पूरा अल्पसंख्यक समुदाय, दलित और आदिवासी कांग्रेस का लक्ष्य हैं।