कांग्रेस को निरंतरता की जरूरत
कांग्रेस पार्टी ने रामलीला मैदान में बड़ी रैली की है। महंगाई पर हल्ला बोल रैली में भीड़ जुटी थी और अब कांग्रेस नेता निश्चिंत होकर कुछ दिन आराम कर सकते हैं। याद करें कि महंगाई के खिलाफ कांग्रेस ने इससे पहले कब प्रदर्शन किया था! कांग्रेस ने 26 जुलाई 2021 को संसद के मॉनसून सत्र के दौरान महंगाई के खिलाफ प्रदर्शन किया था। राहुल गांधी ट्रैक्टर चला कर संसद पहुंचे थे। एक दिन राहुल गांधी और दूसरे विपक्षी नेता साइकिल से भी संसद गए थे। लेकिन उस प्रदर्शन के बाद 14 महीने तक कांग्रेस के नेता महंगाई के खिलाफ सिर्फ ट्विटर पर ही अभियान चलाते रहे। इन 14 महीनों में महंगाई बढ़ती रही थी, बल्कि ज्यादा बढ़ती रही थी। थोक और खुदरा महंगाई काबू से बाहर रही। लगातार छह महीने से ज्यादा समय से खुदरा महंगाई दर रिजर्व बैंक की ओर से तय की गई अधिकतम सीमा से ऊपर रही है। थोक महंगाई दर पिछले एक साल से दहाई में है। लेकिन इस दौरान कांग्रेस बयान देने और सोशल मीडिया में अभियान चलाने के अलावा कुछ नहीं कर रही थी।
लोग महंगाई से त्रस्त हैं लेकिन भाजपा ने उनको कहीं हिजाब के विवाद में तो कहीं हलाल मीट और ईदगाह मैदान में गणेशोत्सव मनाने के विवाद में तो कहीं बुलडोजर और मंदिर के विवाद में उलझाया हुआ है। दुर्भाग्य से कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां भी इन्हीं मुद्दों में उलझी हुई हैं। कांग्रेस ने पिछले साल जुलाई में जब महंगाई के मुद्दे पर प्रदर्शन किया था तो उसने निरंतरता नहीं रखी। अगर उसके बाद भी वह पूरे देश में महंगाई के खिलाफ अभियान चलाती रहती तो उसे इसका राजनीतिक फायदा होता। लेकिन इसका उलटा हुआ। लोग महंगाई से त्रस्त थे फिर भी पांच राज्यों के चुनाव में से चार में भाजपा जीती और एक में आम आदमी पार्टी। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया। जाहिर है कांग्रेस के राजनीतिक अभियान में निरंतरता की कमी है, जिसका उसे खामियाजा भुगतना पड़ा।
पिछले प्रदर्शन के 14 महीने के बाद कांग्रेस ने जो रैली की है क्या उससे पार्टी कोई मैसेज बनवाने में कामयाब हुई है? ऐसा नहीं लग रहा है। कांग्रेस एक सफल रैली के बावजूद महंगाई का मैसेज नहीं बनवा पाई तो उसका कारण यह है कि पार्टी महंगाई दिखाने वाले दृश्यों का निर्माण नहीं कर सकी। पिछले साल के प्रदर्शन में राहुल और विपक्ष ने बहुत मजबूत प्रतीकों का इस्तेमाल किया था। साइकिल और ट्रैक्टर के जरिए प्रदर्शन प्रभावशाली हुआ था। लेकिन रामलीला मैदान की रैली में ऐसा कोई ऑप्टिक्स नहीं दिखा। कांग्रेस जब इतनी बड़ी रैली कर रही थी तो उसे लोगों के दिल-दिमाग को प्रभावित करने वाले दृश्य बनवाने चाहिए थे। याद करें कैसे भाजपा जब विपक्ष में थी और रसोई गैस सिलेंडर के दाम में 10 रुपए की भी बढ़ोतरी होती थी तो पार्टी के बड़े नेता सिलेंडर लेकर प्रदर्शन करते थे। सब्जियां महंगी होती थीं तो बड़े नेता सब्जियों की माला पहन कर प्रदर्शन करते थे। लेकिन कांग्रेस की इतनी बड़ी रैली से ऐसा कोई दृश्य नहीं बन पाया।
कांग्रेस ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव से भी सबक लिया होता तो कुछ ऐसा कर सकती थी। पिछले दिनों केसीआर ने प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर वाले पोस्टर छपवाए, उन पर गैस सिलेंडर की 1,105 रुपए की कीमत छपवाई और उसे सिलेंडर पर चिपका कर उसका एक मैसेज बनवाया। कांग्रेस भी अपनी रैली में ऐसा कर सकती थी। यूपीए सरकार जब सत्ता से बाहर हुई थी तो रसोई गैस के एक सिलेंडर की कीमत 410 रुपए थी, जो आज 11 सौ रुपए से ज्यादा है। इससे बड़ा महंगाई का प्रतीक कुछ नहीं हो सकता है। कांग्रेस को रैली में सिर्फ इस पर फोकस करना था। लोग सिलेंडर लेकर आते, दूध की थैलियां और आटे की बोरियां लेकर आते। सब्जियों की माला पहन कर लोग रैली में हिस्सा लेते। पेट्रोल और डीजल की महंगाई के प्रतीक बनवाए जाते। और सबसे ऊपर राहुल गांधी अपने भाषण में सिर्फ महंगाई पर बोलते। उनके भाषण के कम से कम 90 फीसदी हिस्सा महंगाई पर केंद्रित होना चाहिए थे। लेकिन अफसोस की बात है कि वे उन सारे मामलों पर बोलते रहे, जिनके बारे में भाजपा चाहती है कि वे बोलें। विभाजनकारी नीतियों और नफरत फैलाने की नीतियों पर राहुल का बोलना भाजपा के वोट बढ़वाता है। इसका यह मतलब नहीं है कि उनको इस पर नहीं बोलना चाहिए लेकिन चार सितंबर का दिन महंगाई पर हल्ला बोल का था।
राहुल गांधी ने अपने भाषण में सबसे हैरान करने वाली बात यह कही कि ‘जब कोई विकल्प नहीं बचा तो पार्टी ने जनता के बीच जाने का फैसला किया’। उन्होंने सात सितंबर से शुरू हो रही भारत जोड़ो यात्रा के संदर्भ में यह बात कही। उनके भाषण में जिसने भी यह लाइन लिखी उसे राजनीतिक का ककहरा नहीं मालूम है। राजनीति में जनता के बीच जाना आखिरी विकल्प नहीं होता है, बल्कि पहला और एकमात्र विकल्प होता है। वह भी विपक्षी पार्टियों की राजनीति तो जनता के बीच ही चलती है। कोई भी विपक्षी पार्टी यह कैसे कह सकती है कि सरकार की गलत नीतियों का मुकाबला वह पहले किसी दूसरे माध्यम या दूसरे विकल्प से कर रही थी और जब कोई विकल्प नहीं बचा तो जनता के बीच जा रही है? यह लाइन बोल कर राहुल गांधी ने स्वीकार किया है पिछले आठ साल से वे और उनकी पार्टी जनता के बीच नहीं जा रहे थे। सवाल है कि जब जनता के बीच जा ही नहीं रहे थे तो फिर क्या राजनीति कर रहे थे?
बहरहाल, तीन बातें साफ हो रही हैं। पहली निरंतरता की कमी है। दूसरी, ऑप्टिक्स बनाने पर काम नहीं होता है और तीसरी बात यह कि भाषण से भी कोई मैसेज नहीं बनता है। कांग्रेस अगर एक मुद्दे पर लगातार सरकार को घेरती रहे और लोगों के दिमाग में धारणा बनवाए तभी किसी राजनीतिक अभियान का कोई फायदा मिल सकता है। महंगाई, बेरोजगारी और देश की अर्थव्यवस्था की बुरी दशा ये तीन मुद्दे हैं, जिन पर कांग्रेस लगातार फोकस बनाए रखे तो लोग इसे समझेंगे। क्योंकि ये चीजें सीधे लोगों से जुड़ी हुई हैं। लेकिन इसमें भी उलटा हो रहा है। आधे अधूरे आंकड़ों के दम पर सरकार और भाजपा यह साबित करने में कामयाब