अगले चुनाव में संस्कृतियों का संघर्ष भी!
सबसे पहले यह साफ कर देना जरूरी है कि संस्कृतियों का संघर्ष और सभ्यताओं का संघर्ष बिल्कुल अलग अलग चीजें हैं। ढेर सारी संस्कृतियों को मिला कर एक सभ्यता या एक देश का निर्माण होता है। भारत इसकी मिसाल है। यह अनेक संस्कृतियों का समुच्चय है और सामाजिक स्तर पर इन संस्कृतियों के बीच सतत टकराव चलता रहता है, जिससे सामाजिक सुधारों का रास्ता बनता है। लेकिन शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि संस्कृतियों का सवाल राजनीति और चुनाव का मुद्दा बना हो। यह संभवतः पहली बार है, जब संस्कृति के सवाल राजनीति के केंद्र में हैं और बहुत संभव है कि अगले चुनाव में सांस्कृतिक मुद्दे प्रमुखता से उठाए जाएं। 2024 के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक मुद्दों से इतर संस्कृति, भाषा, पंरपरा, खान-पान और मान्यताओं से जुड़े मुद्दे भी मुख्य भूमिका में होंगे।
सतह के नीचे ये मुद्दे बहुत दिन से मौजूद थे और खदबदा रहे थे लेकिन हाल की कुछ घटनाओं ने इसे सतह के ऊपर ला दिया और लोकप्रिय राजनीतिक विमर्श का मुद्दा बना दिया है। पहली घटना विपक्षी पार्टियों के गठबंधन द्वारा अपना नाम ‘इंडिया’ रखने की है। इसके बाद इंडिया बनाम भारत की बहस छिड़ी, जो जी-20 शिखर सम्मेलन में चारों तरफ दिखाई दी। ध्यान रहे यह कोर राजनीतिक सवाल नहीं है। यह सभ्यता और भाषा दोनों का सवाल है। जिस दिन से यह विवाद सार्वजनिक स्पेस में पहुंचा है उस दिन से व्हाट्सऐप पोस्ट शेयर हो रहे हैं कि जब दुनिया के किसी देश का नाम अंग्रेजी और हिंदी में अलग अलग नहीं है तो भारत का भी नहीं होना चाहिए। इससे अपने आप अंग्रेजी और हिंदी की बहस छिड़ी है, जिसमें दक्षिण भारत के राज्य स्वाभाविक रूप से शामिल होंगे। जिस तरह जी-20 शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री की कुर्सी के आगे भारत लिखा गया था या प्रधानमंत्री ने जिस तरह से अपने संबोधन में हर बार सिर्फ भारत का इस्तेमाल किया या जिस तरह आयोजन स्थल यानी भारत मंडपम से लेकर पूरे कार्यक्रम में हर तरफ सिर्फ भारत लिखा दिखा उससे यह बहस आगे बढ़ेगी। अगला चुनाव आते आते यह भाषा का बड़ा सवाल बनेगा।
इस तरह इस एक मुद्दे में दो मुद्दे हो गए। पहला मुद्दा इंडिया बनाम भारत का है और दूसरा भाषा का है। इंडिया बनाम भारत में आधे-अधूरे या झूठे-सच्चे तथ्यों और तर्कों के आधार पर यह साबित किया जा रहा है कि इंडिया नाम अंग्रेजों या यूरोपीय लोगों का दिया हुआ है और गुलामी का प्रतीक है, जबकि भारत स्वदेशी नाम है, जिसकी जड़ें धार्मिक मान्यताओं में निहित हैं और सदियों से यह नाम प्रचलित है। यह अलग बात है कि इंडिया और भारत दोनों नाम जब चलन में आए तो विंध्य पार का हिस्सा इनमें शामिल नहीं था। हकीकत यह है कि दोनों की उत्पति उत्तर भारत में है। इंडिया नाम की उत्पति सिंधु से हुई है। वह लंबी कहानी है कि कैसे सिंधु से हिंदू हुआ और फिर उसे इंडस, इंडिका या इंडिया हुआ। इसी तरह भारत को लेकर धार्मिक मान्यता है कि दुष्यंत व शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर यह नाम पड़ा या अयोध्या के राजा दशरथ के दूसरे पुत्र भरत के नाम से पड़ा। लेकिन ऐतिहासिक तथ्य मौजूदा समय की रावी नदी के तट पर 10 राजाओं को पराजित करने वाले राजा के नाम से देश का नाम भरत होने का संकेत देते हैं। सो, इंडिया और भारत दोनों नामों की उत्पत्ति उत्तर भारत से है। अगर मोटा-मोटी कहें तो यह विवाद इस बात का है कि भारत सनातन का प्रतीक है और इंडिया सनातन का कंट्रास्ट या उसका विरोधी है।
तभी यह अनायास नहीं है कि तमिलनाडु के खेल मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म को लेकर बेहद तीखा बयान दिया। उदयनिधि के साथ साथ उनकी पार्टी के सांसद ए राजा ने भी सनातन पर बेहद अपनाजनक बयान दिया। लेकिन दिलचस्प बात है कि भाजपा और कुछ हिंदू संगठनों को छोड़ कर किसी ने उनके बयानों की तीखी आलोचना नहीं की। दक्षिण में तो कहीं आलोचना सुनने को नहीं मिली। उलटे इस आधार पर उदयनिधि के बयान को न्यायसंगत ठहराया गया कि उन्होंने सनातन का विरोध यह कहते हुए किया कि वह दलितों, पिछड़ों, वंचितों, आदिवासियों, महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह और भेदभाव वाला है। उन्होंने जातिप्रथा और पितृसत्तात्मक मान्यताओं के उन्मूलन की बात कही, जो सनातन की पहचान है। तमिलनाडु में उदयनिधि ने जो किया वह काम बिहार में शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर और उत्तर प्रदेश में स्वामी प्रसाद मौर्य पहले शुरू कर चुके हैं। सनातन के केंद्र में ब्राह्मण और अन्य अगड़ी जातियां हैं तो उसके कंट्रास्ट में पिछड़े, दलित, आदिवासी हैं। सो, यह संस्कृतियों के संघर्ष का तीसरा मुद्दा है। पहला, इंडिया बनाम भारत, दूसरा, हिंदी बनाम अंग्रेजी और तीसरा, सनातन बनाम पिछड़ा-दलित-आदिवासी-महिला आदि।
इसी से जुड़ी चौथा मामला है शाकाहार और मांसाहार का। खान-पान का मामला बेहद निजी होता है लेकिन यह प्रत्यक्ष रूप से संस्कृतियों से जुड़ा है। सनातन बनाम अन्य की बहस का एक बड़ा मुद्दा है यह। तभी अनायास नहीं है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने राजद प्रमुख लालू प्रसाद के घर जाकर मटन पकाया और उसका लंबा वीडियो पोस्ट किया तो दूसरी ओर जी-20 शिखर सम्मेलन का पूरा मेन्यू शाकाहारी रखा गया और उसे प्रचारित भी कराया गया। सोचें, एक तरफ राहुल गांधी और लालू प्रसाद का पूरा परिवार खड़े होकर मटन पका रहा था और देश के लोगों को मटन पकाने का तरीका सिखा रहा था तो दूसरी ओर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की ओर से विदेशी मेहमानों को शाकाहारी भोजन कराया जा रहा था! जी-20 शिखर सम्मेलन में शामिल हुए लगभग सभी विदेशी मेहमान सांस्कृतिक रूप से मांसाहार करने वाले होंगे। लेकिन मेहमान की खान-पान की संस्कृति और रूचियों की बजाय भारत सरकार ने मेजबान की रूचि का खान-पान परोसा। आमतौर पर ऐसा नहीं होता है। लेकिन भारत ने ऐसा किया तो उसके पीछे कहीं न कहीं सनातन की सांस्कृतिक श्रेष्ठता प्रदर्शित करने का भाव था। ध्यान रहे भारत में 75 फीसदी से ज्यादा आबादी मांसाहार करती है और यह धर्म से ज्यादा लोगों की आर्थिक स्थितियों से जुड़ा मामला है।
कुल मिला कर संस्कृति, परंपरा, भाषा आदि के सवाल अगले चुनाव से पहले जिस तरह से उठाए जा रहे हैं या अपने आप राजनीतिक, सामाजिक विमर्श के केंद्र में आ रहे हैं उससे लग रहा है कि अगले चुनाव में इनकी बड़ी भूमिका होगी। राजनीति से जुड़े मुद्दे अपनी जगह होंगे, सरकार अपनी उपलब्धियां गिनाएगी और विपक्ष कमियां बताएगा। भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी आदि के आरोप भी लगेंगे। ‘मुफ्त की रेवड़ी’ की भी भूमिका होगी। लेकिन इन सबके बीच पहली बार ऐसा होगा कि संस्कृति का सवाल राजनीति की दिशा तय करेगा। भाजपा और विपक्ष दोनों के लिए यह तलवार की धार पर चलने जैसा है। भाजपा को उम्मीद है कि सनातन, ब्राह्मण, हिंदी, शाकाहार, भारत और राम का नाम अंततः व्यापक हिंदू समाज को उसके लिए वोट डालने को मजबूर करेगा तो दूसरी ओर विपक्ष को लग रहा है कि सनातन विरोध, इंडिया, मांसाहार, अहिंदा, पिछड़ा आदि का मुद्दा आर्थिक, सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े तमाम लोगों को भाजपा के खिलाफ एकजुट कर देगा।