जाति जनगणना का मुद्दा वापस लौटा

जातियों की गिनती, सामाजिक न्याय और आरक्षण की गेमचेंजर राजनीतिक मुद्दे के तौर पर वापसी हो गई है। और इसके साथ ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राजनीति को भी संजीवनी मिल गई है। पटना हाई कोर्ट द्वारा राज्य में जातियों की गिनती की मंजूरी दिए जाने के साथ ही राजनीतिक खेल बदल गया है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते, जब बेंगलुरू में हुई विपक्षी पार्टियों की बैठक के बाद नीतीश कुमार और लालू प्रसाद दोनों बहुत निराश लौटे थे। उनको लगा था कि कांग्रेस ने विपक्षी गठबंधन को हाईजैक कर लिया है। गठबंधन का नाम तय करने से लेकर समन्वय समिति बनाने और राजनीतिक एजेंडा तय करने तक में दोनों नेताओं की भूमिका सीमित हो गई थी। गठबंधन की पहल कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के हाथ में चली गई दिख रही थी। लेकिन पटना हाई कोर्ट के फैसले ने नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की मंडल 2.0 की राजनीति में जान फूंक दी है।

बिहार में जनवरी में जातीय गणना शुरू हुई थी और पहला चरण पूरा होने के बाद हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी। हाई कोर्ट में इसके खिलाफ जो याचिकाएं दायर की गई थीं, उनमें कहा गया था कि जनगणना कराना विशुद्ध रूप से केंद्र सरकार का काम है और कोई भी राज्य अपने से जनगणना नहीं करा सकती है। इस आधार पर हाई कोर्ट ने जातीय गिनती पर अंतरिम रोक लगा दी थी। बाद में बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची तो सर्वोच्च अदालत ने हाई कोर्ट के आदेश में दखल देने से इनकार कर दिया। अब हाई कोर्ट ने इस पर विस्तार से सुनवाई के बाद सारी याचिकाओं को खारिज कर दिया है और जातीय गिनती और सामाजिक व आर्थिक सर्वे कराने का राज्य सरकार का अधिकार स्वीकार किया है। इस फैसले के बाद दूसरे चरण की गिनती का काम शुरू हो गया है।

जातियों की गिनती कराने के दो स्पष्ट राजनीतिक फायदे हैं। पहला तो यह है कि देश में जनगणना नहीं हुई है, ऐसे में बिहार में जातियों की गिनती होती है तो सत्तारूढ़ गठबंधन के नेता दावा कर सकते हैं कि वे नागरिकों की जरूरतों को लेकर ज्यादा संवेदनशील हैं और वे इसलिए गिनती करा रहे हैं ताकि संख्या के हिसाब से हर समूह को हिस्सेदारी मिले और उनके हितों की योजना बनाई जा सके। ध्यान रहे हर 10 साल पर होने वाली जनगणना 2021 में होने वाली थी, जो नहीं हुई है। पहले कोरोना वायरस की महामारी के कारण जनगणना रूकी और उसके बाद राजनीतिक कारणों से इसे टाल दिया गया। अब यह स्पष्ट है कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले जनगणना नहीं होगी। इसे लेकर दुनिया भर के जानकार सवाल उठा रहे हैं क्योंकि केंद्र सरकार के सारे फैसले और सारी नीतियां 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित हैं। पिछले 12 साल से ज्यादा समय में आबादी के आंकड़ों में बड़ा बदलाव आया है और साथ ही अलग अलग समूहों की सामाजिक व आर्थिक स्थितियों में भी बदलाव आया है। इसलिए ताजा आंकड़ों के बगैर बनाई गई कोई भी नीति बहुत कारगर नहीं हो सकती है। सो, बिहार में सत्तारूढ़ राजद और जदयू के नेता केंद्र सरकार को पिछड़े, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक समूहों की जरूरतों और आकांक्षाओं के प्रति असंवेदनशील बता कर खुद की वाहवाही कर सकते हैं।

दूसरा फायदा यह है कि जातियों का वास्तविक आंकड़ा सामने आने के बाद एफर्मेटिव एक्शन यानी आरक्षण की राजनीति को नई धार मिल सकती है। ध्यान रहे नब्बे के दशक में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद जो राजनीति शुरू हुई थी उसका प्रतिनिधित्व करने वाले सिर्फ दो ही लोग बचे हैं। वीपी सिंह से लेकर मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, जॉर्ज फर्नांडीज जैसे तमाम नेताओं का निधन हो गया है। अब मंडल मसीहा के तौर पर सिर्फ लालू प्रसाद और नीतीश कुमार सक्रिय राजनीति में हैं। भाजपा की कमंडल यानी मंदिर और हिंदुत्व की राजनीति के बरक्स मंडल की राजनीति का स्वाभाविक प्रतिनिधित्व ये दोनों नेता करेंगे। इस आशंका में ही बिहार भाजपा के नेता हाई कोर्ट के फैसले का स्वागत कर रहे हैं।

बहरहाल, बिहार में जातियों का वास्तविक आंकड़ा मिलने के बाद आरक्षण की राजनीति का दूसरा दौर शुरू होगा, जिसमें आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी देने की पहल होगी। यह मंडल 2.0 की राजनीति होगी, जिसका एक दौर राज्यों में चल रहा है। झारखंड से लेकर छत्तीसगढ़ तक आरक्षण बढ़ाने का फैसला हुआ है। इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय की गई 50 फीसदी अधिकतम आरक्षण की सीमा टूट गई है। राज्यों में 75 फीसदी या उससे भी ज्यादा आरक्षण के कानून बने हैं। पिछले दिनों कर्नाटक के चुनाव में जब मुसलमानों का चार फीसदी आरक्षण बहाल करने का वादा कांग्रेस ने किया तो भाजपा ने पूछा था कि क्या वह इसके लिए वोक्कालिगा और लिंगायत को मिला अतिरिक्त आरक्षण समाप्त करेगी? इसके जवाब में कांग्रेस ने कहा था कि किसी के आरक्षण में कटौती करने की जरूरत नहीं है क्योंकि सरकार आरक्षण बढ़ाएगी और उसे 75 फीसदी तक ले जाएगी। ध्यान रहे अभी तक जातियों की संख्या के बारे में 1931 की जनगणना के आधार पर अंदाजा लगाया जाता है। उसके मुताबिक देश की कुल आबादी में ओबीसी जातियों का हिस्सा 54 फीसदी के करीब है। इसी आंकड़े के आधार पर उनको इसका आधा यानी 27 फीसदी आरक्षण दिया गया था। नए आंकड़ों से इस संख्या की पुष्टि होने के बाद उनके लिए आरक्षण बढ़ाए जाने की बात होगी। तब भाजपा के लिए धर्मसंकट की स्थिति होगी क्योंकि जातियों का उभार हिंदुत्व के नाम पर बनाई जा रही एकजुटता को तोड़ेगा।

कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की बाकी पार्टियां पहले ही इस बात को स्वीकार कर चुकी हैं। नीतीश कुमार के साथ पहली मुलाकात के बाद ही राहुल गांधी को यह आइडिया पसंद आ गया था। तभी उन्होंने कर्नाटक में कांग्रेस का अभियान शुरू करते हुए जातीय जनगणना का समर्थन किया था और आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी की वकालत की थी। विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ में शामिल लगभग सभी पार्टियां इस विचार से सहमत हैं। अगले लोकसभा के लिए विपक्ष का जो साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनेगा उसमें जातीय जनगणना और आबादी के अनुपात में आरक्षण का वादा मुख्य होगा।

विपक्ष के इस वादे पर भरोसा बनाने वाला चेहरा नीतीश कुमार का हो सकता है। इसका कारण यह है कि इस राजनीति का सबसे भरोसेमंद और परिपक्व चेहरा उनका है। लालू प्रसाद सक्रिय राजनीति से दूर हो चुके हैं और मुलायम सिंह व शरद यादव का निधन हो गया है। इसलिए मंडल मसीहा के तौर पर नीतीश का चेहरा विपक्षी की बड़ी पूंजी है। नीतीश के साथ एक दूसरा फायदा यह है कि वे अति पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि के रूप में ज्यादा स्वीकार्य हैं। ध्यान रहे लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव हों या अखिलेश यादव हों ये ओबीसी की सबसे दबंग जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं। ओबीसी की कुल आबादी में उनकी जाति सबसे बड़ी आबादी वाली जाति होगी लेकिन उनसे बहुत ज्यादा आबादी अति पिछड़ी जातियों की होगी, जिनका अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिनिधित्व करने वाला कोई नेता नहीं है। अगर नीतीश कुमार जातियों की गिनती और सामाजिक व आर्थिक स्थिति का आंकड़ा हासिल करने के बाद उसके आधार पर बिहार में एक मॉडल बना कर दिखाते हैं तो विपक्ष का नेतृत्व उनके हाथ में आ सकता है और उससे अगले चुनाव का समूचा चुनावी व राजनीतिक विमर्श बदल सकता है।

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