क्षेत्रीय पार्टियां क्या खत्म हो सकती हैं?
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने एक बार फिर यह बहस छेड़ दी है कि क्षेत्रीय पार्टियों का क्या भविष्य होगा? क्या वे खत्म हो जाएंगी या अब ऐसा समय आ गया है कि और ज्यादा मजबूत होंगी? जेपी नड्डा पांच अक्टूबर को पटना गए थे, जहां उन्होंने कैलाशपति मिश्र की सौवीं जयंती के कार्यक्रम में कहा कि क्षेत्रीय पार्टियां परिवारवाद और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती हैं इसलिए ये खत्म हो जाएंगी। इससे ठीक 14 महीने पहले 31 जुलाई 2022 को भी पटना में ही जेपी नड्डा ने यह बात कही थी। उन्होंने कहा था कि भाजपा अपनी विचारधारा पर चलती रही तो क्षेत्रीय पार्टियां देश से खत्म हो जाएंगी। उनके इस बयान के एक हफ्ते के बाद ही नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यू ने भाजपा से नाता तोड़ लिया था और नीतीश कुमार राजद व कांग्रेस की मदद से मुख्यमंत्री बन गए थे। एक साल बाद जब नड्डा ने फिर यह बयान दिया है तो इस पर बिहार में बहस छिड़ गई है। इस बार उनके बयान का भाजपा की सहयोगी क्षेत्रीय पार्टियां विरोध नहीं कर रही हैं, बल्कि अपनी अलग व्याख्या करके किसी तरह अपने को बचाने की कोशिश कर रही हैं।
तभी यह सवाल है कि क्या भारत में क्षेत्रीय पार्टियां खत्म हो सकती हैं या देश में ऐसी स्थितियां बन रही हैं, जिनमें क्षेत्रीय पार्टियां और मजबूत हो सकती हैं? ध्यान रहे भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों की यह मंशा रही है कि देश में दो ही पार्टियां हों। जब कांग्रेस अपनी सत्ता और ताकत के चरम पर थी तब वह भी ऐसा सोचती थी कि क्षेत्रीय पार्टियां खत्म हो जाएंगी। उसने बहुत प्रयास भी किए और अपने कई सहयोगी पार्टियों को खत्म करने की सक्रिय कोशिश की। हालांकि कामयाबी नहीं मिली। उस समय भाजपा सहयोगी क्षेत्रीय पार्टियों के दम पर फल-फूल रही थी तो वह चुप रहती थी। अब कांग्रेस कमजोर है और भाजपा अपनी ताकत के चरम पर है तो उसके नेता गाहे-बगाहे इस तरह की मंशा जाहिर करते रहते हैं कि क्षेत्रीय पार्टियां देश से खत्म हो जाएं।
लेकिन नड्डा के बयान और भाजपा की वास्तविक राजनीति में बड़ा विरोधाभास है। एक तरफ भाजपा ने विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के बरक्स अपने गठबंधन एनडीए का विस्तार करना शुरू किया है तो दूसरी ओर नड्डा क्षेत्रीय पार्टियों के खत्म होने की बात कर रहे हैं। ध्यान रहे जुलाई में जिस दिन बेंगलुरू में विपक्षी गठबंधन की बैठक थी, जिसमें 27 पार्टियां शामिल हुई थीं उसी दिन दिल्ली में भाजपा ने एनडीए की बैठक की थी, जिसमें 38 पार्टियां शामिल हुई थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद आगे बढ़ कर हर छोटे-बड़े नेता का स्वागत किया था। इसमें ऐसी पार्टियों के नेता भी शामिल हुए थे, जिनका न तो कोई विधायक है और न कोई सांसद। दिलचस्प बात यह है कि ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां, जो एनडीए से जुड़ी हैं वे परिवार की पार्टियां हैं। लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास, राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी, हिंदुस्तान आवाम मोर्चा, अपना दल (सोनेलाल), एनसीपी का अजित पवार गुट, जननायक जनता पार्टी आदि के नेता भाजपा की बुलाई बैठक में शामिल हुए थे। ये ऐसी पार्टियां हैं, जो संस्थापक नेताओं के बेटे, बेटियों, भाइयों, भतीजों आदि द्वारा संचालित हैं। यह भी दिलचस्प है कि कई पार्टियों के नेता भ्रष्टाचार के बड़े आरोपों से घिरे हैं। यानी परिवारवादी भी हैं और भ्रष्टाचार में आरोपी भी हैं फिर भी भाजपा को उन्हें गठबंधन में रखने और उनके साथ चुनाव लड़ने में दिक्कत नहीं है।
अब सवाल है कि जब भाजपा इस तरह से परिवारवादी और भ्रष्टाचार की आरोपी क्षेत्रीय पार्टियों को साथ रख कर आगे बढ़ाएगी तो वह इन्हें खत्म करने का अभियान कैसे पूरा कर पाएगी? यहां तो नीयत में ही एकरूपता नहीं दिख रही है। एक तरफ खत्म करने की बात हो रही है और जेपी नड्डा कह रहे हैं कि भाजपा अब किसी पार्टी को कंधे पर नहीं बैठाएगी और दूसरी ओर क्षेत्रीय पार्टियों को कंधे पर उठा कर उनको ऊंचा बनाया जा रहा है! बिहार में नीतीश के गठबंधन छोड़ कर जाने के बाद नड्डा ने यह स्टैंड लिया है कि पार्टी अब किसी को कंधे पर नहीं बैठाएगी और उधर महाराष्ट्र में शिव सेना से अलग हुए एकनाथ शिंदे को कंधे पर उठा कर मुख्यमंत्री बनाया है। इतना ही नहीं जिस पार्टी पर भाजपा ने 70 हजार करोड़ रुपए के घोटाले का आरोप लगाया है उसी के नेता अजित पवार को उनकी पसंद का मंत्रालय देकर उप मुख्यमंत्री बनाया है। कर्नाटक में खत्म हो रही जेडीएस को अपने साथ जोड़ कर भाजपा ने ऑक्सीजन दिया है ताकि वह जिंदा हो सके। यही काम वह आजसू के साथ झारखंड में करने जा रही है। यही काम वह बिहार की चार क्षेत्रीय पार्टियों के साथ करेगी। उत्तर प्रदेश में अनुप्रिया पटेल की पार्टी के साथ किया है, झारखंड में आजसू, हरियाणा में जजपा आदि पार्टियों को भाजपा ने ही ऑक्सीजन दिया है।
बड़ा गठबंधन बनाने की होड़ में कांग्रेस और कुछ अन्य क्षेत्रीय पार्टियों ने मिल कर ‘इंडिया’ का गठन किया है, जिसमें दो दर्जन से ज्यादा पार्टियां जुड़ी हैं। हर पार्टी के मजबूत होने की स्थितियां गठबंधन की वजह से बन रही है। एनसीपी, शिव सेना, तृणमूल कांग्रेस, राजद, जेएमएम, डीएमके, समाजवादी पार्टी आदि पहले से बड़ी पार्टियां हैं और गठबंधन की वजह से ये पार्टियां और मजबूत होंगी। यानी कांग्रेस और भाजपा दोनों मिल कर क्षेत्रीय पार्टियों को ताकत दे रहे हैं। ऐसे में उनके खत्म होने की बात करना एक राजनीतिक बयानबाजी से ज्यादा कुछ नहीं है।
इस बीच एक और घटनाक्रम यह हुआ है कि बिहार ने जाति गणना करा कर जातियों के आंकड़े जारी कर दिए हैं। अब कांग्रेस पूरे देश में जाति गणना का वादा कर रही है। जहां भी कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों की सरकार है वहां जाति गणना होगी और सभी जातियों के आंकड़े सार्वजनिक होंगे। इससे जाति आधारित पार्टियों के लिए मौका बन रहा है। जैसे बिहार की जाति गणना से कई प्रादेशिक पार्टियों की ताकत बढ़ी है। मल्लाह नेता मुकेश सहनी अपनी जाति की 10 फीसदी आबादी का दम भर रहे हैं तो जीतन राम मांझी पांच फीसदी, चिराग पासवान पांच फीसदी और उपेंद्र कुशवाहा चार फीसदी आबादी का नेता होने का दावा कर रहे हैं। ध्यान रहे जैसे जैसे जातियों की संख्या पता चलेगी वैसे वैसे जातीय अस्मिता मजबूत होगी और सामाजिक पहचान मजबूत होने के बाद उसको राजनीतिक पूंजी में बदलने का प्रयास तेज होगा। तब जाति विमर्श और बढ़ेगा। देश में जाति आधारित पार्टियां बनेंगी और उनका विस्तार भी होगा। तमिलनाडु में कुछ साल पहले यह प्रक्रिया चली थी और अब उत्तर प्रदेश, बिहार सहित हिंदी पट्टी के राज्यों में चलेगी। इससे क्षेत्रीय पार्टियां कमजोर होने की बजाय मजबूत होंगी।