बॉलीवुड भी प्रोपेगेंडा की मशीन!

पिछले कुछ सालों से बॉलीवुड एक विशाल प्रोपेगेंडा मशीन बन गया है। वहां ऐसे फिल्में बनाई जा रही हैं जो पहले से चले आ रहे राजनैतिक प्रोपेगेंडा को और मसालेदार, तथा प्रभावी बनाती हैं। मूल उद्देश्य राजनैतिक होता है। कुछ फिल्म निर्देशक एक विशिष्ट राजनैतिक विचारधारा के झंडाबरदार बन गए हैं।

राजनीति से प्रेरित और राजनीति को प्रभावित करने वाली ऐसी फिल्मों की बाढ़ सी आ गई है। इनमें से कुछ में तथ्यों को दरकिनार कर मनमर्जी से कुछ भी दिखाया जाता है। कुछ में सच्चाई का अंश होता है मगर उसे इतना बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता है कि वह भी झूठ जैसा हो जाता है। ऐसी फिल्में बहुत ही योजनाबद्ध ढंग से आम चुनाव के पहले एक-के-बाद रिलीज की जा रही हैं।

हालांकि इन दिनों मैं फिल्मों की दुनिया से थोड़ी दूर हूँ मगर मुझे इस तरह की फिल्मों के बारे में सब कुछ पता है। क्यों? शायद इसलिए क्योंकि रिलीज़ होने से पहला इनका इतना प्रचार किया गया था कि ये मेरे दिलोदिमाग में बैठ गईं हैं।

ऐसी पहली फिल्म जो याद आती है वह है ‘गदर 2’।पाकिस्तान के बारे में फिल्में खूब बिकती हैं। और जब सनी देओल अकेले पूरे पाकिस्तान को ठिकाने लगा रहे हों, उसकी धुनाई कर रहे हों, तो कहना ही क्या। अपने ‘दुश्मन’ को पिटते देख दर्शकों को जो आनंद मिलता है, उसके चलते इस फिल्म को सुपरहिट होना ही था। और वह हुई।

उसके बाद आई ‘केरेला स्टोरी’ जिसने अपने दक्षिणपंथी झुकाव के कारण सुर्ख़ियों में जगह पाई, खासकर भाजपा-शासित राज्यों में। केरेला स्टोरी काफी कुछ ‘द कश्मीर फाईल्स’ जैसी थी। दोनों हिंदी पट्टी के हिन्दी-भाषी दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाईं गईं थी। शायद ये लोग उनके घर-गाँव के बाहर क्या हुआ था, उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। कश्मीर फाइल्स के रिलीज होने के बाद हिन्दी भाषी दर्शक कश्मीर में 1990 के दशक के घटनाक्रम के बारे में जानकर स्तब्ध रह गए।

ऐसा लगा है जैसे इस फिल्म के रिलीज होने के पहले तक उन्हें इस बारे में कुछ भी पता नहीं था। मेरा मानना है कि लोगों की अज्ञानता ही इस फिल्म की सफलता की वजह थी। केरेला स्टोरी की ही तरह कश्मीर फाइल्स भी ईमानदार फिल्म नहीं है। वास्तविकता को और भयावह और डरावना बनाने के लिए उसमें कल्पना का जबरदस्त तड़का लगा है। घटिया अभिनय, दिल दहलाने वाली हिंसा और आसानी से भुलाए जा सकने वाले पात्रों से लबरेज़ इन फिल्मों का उद्धेश्य सच को तोड़-मरोड़कर, प्रोपेगेंडा को ताकत देना था।

कमाई की दृष्टि से दोनों फिल्में सफल रहीं और दोनों ने भारत में ही 200 करोड़ रूपये से अधिक कमाए। और आज भी ये रोजमर्रा की चर्चा और राजनैतिक नैरेटिव का हिस्सा बनी हुई हैं।

हाल में कश्मीर के बारे में ‘आर्टिकल 370’ नामक एक और फिल्म रिलीज हुई है। इसके निर्माता आदित्य धर हैं, जिनकी फिल्म ‘उरी’ का एक डायलाग, ‘हाऊ इज द जोश’ बहुत लोकप्रिय हुआ था। धर निश्चित ही कश्मीर फाइल्स के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की तुलना में अधिक गंभीर निर्देशक हैं। फिल्म के रिलीज होने के पहले उन्होंने साफ-साफ कहा था कि यह ‘प्रोपेगेंडा फिल्म‘ नहीं है। हालांकि फिल्म का शीर्षक, कथानक और पात्रों –सबसे राजनीति की बू आ रही थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जम्मू में एक आमसभा में इस फिल्म का जिक्र करते हुए कहा, “‘मैंने सुना है कि इस हफ्ते अनुच्छेद 370 पर एक फिल्म रिलीज हो रही है। मेरा मानना है कि इस फिल्म को लेकर आपकी जयकारे सारे देश में सुनायी देंगे”। इसके बाद इस फिल्म को देखने का जोश अचानक बहुत बढ़ गया।

यह एक बड़ी हिट फिल्म बन गई।23 फरवरी को रिलीज होने के बाद से यह फिल्म देश में ही 32.60 करोड़ रूपये की कमाई कर चुकी है। मैं उन भाग्यशाली लोगों में से एक थी जिन्हें 22 फरवरी को दिल्ली में हुई विशेष स्क्रीनिंग में यह फिल्म देखने का मौका मिला। इस स्क्रीनिंग में कुछ सरकारी अधिकारी, कुछ नेता और बहुत सारे पत्रकार – जिनमें से अधिकतर ‘नए भारत के पैरोकार थे’ – मौजूद थे।

वे ‘सही दृश्यों’ पर तालियाँ पीट रहे थे और ‘गलत दृश्यों’ पर हूटिंग कर रहे थे। कश्मीर फाइल्स के विपरीत आर्टिकल 370पर सबसे पहली एक फिल्म है। एक अच्छी कहानी है, प्लाट है और अभिनय भी बहुत अतिरंजित नहीं है। संगीत भी कहीं-कहीं अच्छा है और कुछ दृश्य बांधकर रखते हैं।

इसकी बावजूद, तथ्यात्मक दृष्टि से यह कुछ हद तक गलत है। लेकिन इसमें दर्शकों, खासकर ‘अज्ञानी’ हिन्दी भाषियों को यह यकीन दिलाने के लिए जरूरी सामग्री पर्याप्त मात्रा में है कि कश्मीर को बर्बाद करने में कांग्रेस की भी भूमिका है। वहां हुई बेकाबू हिंसा के पीछे बहुत हद तक राजनीतिक कारण थे, जिसके चलते वर्तमान सरकार कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करने पर विवश हुई। फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने होशियारी और चालाकी से राज्य को अनुच्छेद 370 की सुरक्षा छतरी से वंचित कर दिया। इससे शाह-मोदी इस फिल्म – और देश के भी – असली नायक सिद्ध होते हैं।

हालांकि यह कुछ हद तक निराशाजनक है कि 5 अगस्त 2019 के घटनाक्रम को थोड़े से दृश्यों में समेट दिया गया है और उससे अधिक निराशाजनक है अमित शाह के भाषण में जोश का अभाव। अमित शाह की भूमिका निभाने वाला कलाकार निराश करता है क्योंकि वह असली अमित शाह की रहस्यमयता और गंभीरता को प्रदर्शित करने में असफल है।

मैंने कहीं पढ़ा है कि निर्देशक ऐसी फिल्में दर्शकों की मांग पर बना रहे हैं। केरेला फाइल्स के निदेशक विपुल अमृतलाल शाह ने इंडिया टुडे से बातचीत करते हुए दावा किया कि “युवा वर्ग पावरफुल और आंखे खोलने वाली फिल्में देखना चाहता है जो उन्हें सोचने के लिए मजबूर कर सकें”। आदित्य जांभाले के अनुसार उन्होंने आर्टिकल 370 ‘‘पांचवी क्लास के ऐसे विद्यार्थी के लिए बनाई है जो इतिहास और राजनीति में ज्यादा रूचि नहीं रखता। वह सिनेमाघर जाकर जब यह फिल्म देखेगा तो उसे अनुच्छेद 370 हटाने के बारे में वह सब पता चलेगा जो उसे उसे पता होना चाहिए। और वह इसका कारण दूसरों भी बता सकेगा क्योंकि उसे चीज़ें समझ में आयेंगी।”

ऐसी खबरें हैं कि ऐसी ही कुछ अन्य फिल्में जल्द ही प्रदर्शित होने वाली हैं। इन फिल्मों में इशारों में और अप्रत्यक्ष ढंग से ऐसे बातें दिखाई गईं हैं जो भोले-भाले दर्शकों को भोला-भाला बनाए रखेंगी। फिर 15 मार्च को ‘बस्तरः द नक्सल स्टोरी’ रिलीज होगी। फिल्म के निर्माता विपुल शाह के अनुसार यह फिल्म छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के नक्सलियों और शहरों में रहने वाले उनकी समर्थकों की कहानी दिखाती है। लम्बे समय से बन रही वीर सावरकर की बायोपिक भी मार्च में ही थियेटरों में प्रदर्शित होगी, जिसके बाद गुजरात में 2002 में हुए दंगों पर केन्द्रित फिल्म ‘द साबरमती रिपोर्ट’ आएगी। कंगना रनौत की राजनैतिक फिल्म इमरजेंसी को चुनाव निपटने के बाद प्रदर्शित किया जाएगा।

फिल्मों का हमेशा से राजनीति से जुड़ाव रहा है क्योंकि इनके जरिए प्रोपेगेंडा को आगे बढ़ाया जा सकता है। और जो फिल्में दिलों में पैठे भय और अंधराष्ट्रवादी पूर्वाग्रहों को हवा देती हैं, वे बहुत कमाई करती हैं। हॉलीवुड में भी ऐसा ही होता है। यह बात अलग है कि वहां यह सब बहुत सुरूचिपूर्ण ढंग से होता है और ये फिल्में आपसे एक का साथ छोड़कर दूसरे के साथ खड़े होने के लिए नहीं कहतीं। ये थोक में नहीं बनाई जातीं और ना ही चुनावों के ठीक पहले सुनामी की तरह रिलीज की जाती हैं। काफी सटीकता, योजनाबद्ध ढंग से, अनुसंधान और छोटी-छोटी बातें तथ्यात्मक हों यह सुनिश्चित करते हुए ये फिल्में बनाई जाती हैं ताकि वे यथार्थ के अधिक से अधिक निकट हों।

राजनीति पर केन्द्रित हॉलीवुड फिल्में हमारी जानकारी बढ़ाती हैं और दर्शकों को गंभीरता से विचार करने पर बाध्य करती हैं। जो छवियां हम देखते हैं वे अतीत किसी भी दौर के प्रति हमारा नजरिया गढ़ती हैं।जबकि हम भारतवासियों को बॉलीवुड द्वारा जो परोसा जा रहा है वह विशुद्ध कूड़ा-करकट है। एक निश्चित समय सीमा में रिलीज होने की जल्दबाजी के चलते फिल्में बेतरतीब ढंग से बनाई जाती हैं, जिनमें चिंतन-मनन और विचार के लिए कोई जगह नहीं होती। फ्रेंच निदेशक जिन-लुक गोडार्ड ने कहा था “फिल्म 24 फ्रेम प्रति सेंकड के दर से दिखाई जाने वाली सच्चाई होती है”। लेकिन क्या यथार्थ को तोड़-मरोड़कर उसका उपयोग किसी लक्ष्य की पूर्ति करना सच्चाई दिखाना है?

जब कम्युनिस्टों ने इतिहास का पुनर्लेखन किया और पुरानी तस्वीरों से नेताओं को हटाया, तब उनकी बहुत खिल्ली उड़ाई गई। लेकिन क्या हम भी वही नहीं कर रहे हैं? मैं मानती हूं कि फिल्मों का महत्व होता है। उसी तरह जैसे मेरा और मेरे समकालीनों के लेखन का होता है और इसका भी कि हम चीजों को किस रूप में प्रस्तुत करते हैं। हम सब इतिहास लेखन में अपनी-अपनी भूमिका निभा रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस अमृतकाल में इतिहास को झूठ, गलत बयानी और प्रोपेगंडा से दूषित किया जा रहा है।

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