भाजपा का उलझा हुआ चुनाव प्रचार
भारतीय जनता पार्टी बहुत स्पष्ट और वैचारिक रूप से ठोस मुद्दों के ऊपर लोकसभा चुनाव का प्रचार नहीं कर रही है और न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपलब्धियों का बहुत ढोल पीट कर वोट मांग रही है। उसका प्रचार अभियान सीधा सपाट होने की बजाय बहुत उलझा हुआ और जटिल है। उसमें एकरूपता नहीं दिख रही है, बल्कि कई जगह विरोधाभास और यहां तक की दोहरापन भी दिख रहा है। ऐसा क्यों है? भाजपा और खुद प्रधानमंत्री मोदी जब यह दावा करते हैं कि उन्होंने 10 साल में इतना काम कर दिया, जितना उससे पहले 65 साल में नहीं हुआ तो क्यों नहीं पार्टी उसी पर वोट मांग रही है? या जब पार्टी ने सात दशकों से लंबित लगभग सभी सैद्धांतिक वादों को पूरा कर दिया तो फिर वह उसी पर क्यों नहीं वोट मांग रही है? चुनाव प्रचार को इतना उलझाने या उसमें विरोधाभास पैदा करने की क्या जरुरत है?
सबसे पहले इस पहलू पर बात करें कि सरकार की उपलब्धियों का ढोल क्यों नहीं पीटा जा रहा है? ऐसा लग रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी और उनकी प्रचार टीम 20 साल पहले के यानी 2004 के चुनाव प्रचार के बैकफायर करने के इतिहास को दोहराना नहीं चाहती है। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार अपनी छह साल की उपलब्धियों का प्रचार करके चुनाव लड़ रही थी। ‘फीलगुड’ और ‘शाइनिंग इंडिया’ के जुमले गढ़े गए थे। कहा गया था कि भारत के लोग बहुत अच्छा महसूस कर रहे हैं और भारत चमक रहा है। लेकिन हकीकत इससे उलट थी। इसलिए नतीजे भी उलटे आए। अटल बिहारी वाजपेयी का कोई विकल्प विपक्ष में नहीं था फिर भी लोगों ने उनकी उपलब्धियों के प्रचार को खारिज कर दिया। मोदी और उनकी टीम को भी अंदाजा है कि भारत जैसी विशाल आबादी और भौगोलिक, सामाजिक विविधताओं वाले देश में कितना भी काम किया जाए, लोगों को संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। इसलिए अगर उपलब्धियों का बहुत ढिंढोरा पीटा गया तो लोग नाराज हो सकते हैं।
तभी प्रधानमंत्री मोदी ने बहुत होशियारी से यह नैरेटिव बनाया कि अभी तक जो काम किया है वह स्टार्टर है, अपेटाइइजर है और मेनकोर्स अभी आने वाला है। उन्होंने बड़ी होशियारी से खुद ही यह विचार प्रस्तुत कर दिया कि अभी जो हुआ है वह बहुत कम है, असली विकास तो आने वाले बरसों में होगा। यह नैरेटिव सरकार के समर्थकों और विरोधियों दोनों को मानसिक तौर पर संतुष्ट करने वाला है। दोनों को लगा कि प्रधानमंत्री अपनी उपलब्धियों के मामले में ईमानदार हैं और खुद ही कह रहे हैं कि अभी बहुत काम नहीं हुआ है। इस तरह अपने काम का मैसेज भी दे दिया और यह नैरेटिव भी नहीं बनने दिया कि सरकार सब कुछ ठीक कर देने यानी भारत को चमकदार बना देने का दावा कर रही है। इस बार भाजपा ने लाभार्थी का कार्ड भी ज्यादा जोर शोर से नहीं खेला। ध्यान रहे पिछली बार राष्ट्रवाद के कई मुद्दों के बावजूद भाजपा लाभार्थियों को लेकर सबसे ज्यादा भरोसे में थी। लेकिन 10 साल के बाद इस मुद्दे पर पार्टी ने जोखिम नहीं लिया। वाजपेयी सरकार के 2004 के चुनाव से सबक लेकर मोदी ने अपने प्रचार अभियान को यह रूप दिया। उसी चुनाव से मोदी ने यह सबक भी लिया कि गठबंधन में गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए और इसलिए बिहार में नीतीश कुमार और कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा को साथ लिया गया। हालांकि तमिलनाडु में गठबंधन उम्मीद के मुताबिक नहीं हुआ फिर भी भाजपा ने प्रयास में कोई कमी नहीं रखी।
अब सैद्धांतिक या वैचारिक पहलुओं पर नजर डालें तो कहीं भी एकरुपता नहीं दिखाई देगी, बल्कि कई विरोधाभास नजर आएंगे। इन मामलों में ऐसा लग रहा है, जैसे भाजपा पहले इस उम्मीद में थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बार उनके कामकाज और सरकार की निरंतरता के नाम पर वोट मिल जाएगा। कोई बड़ा भावनात्मक मुद्दा उठाने की जरुरत नहीं है। भाजपा के प्रचार रणनीतिकार यह भी मान रहे थे कि अयोध्या में राममंदिर का निर्माण और जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति दो ऐसे मुद्दे हैं, जो हर हिंदू के अवचेतन में बैठे हैं और जब वह वोट डालने जाएगा तो अपने आप भाजपा को वोट करेगा। लेकिन पहले चरण के मतदान के बाद भाजपा का भ्रम टूटा। हालांकि तब भी भाजपा और शीर्ष नेताओं ने तमाम भावनात्मक मुद्दों को एक साथ नहीं उठाया। उन्हें किश्तों में उठाया गया, जिससे यह मैसेज बना कि हर चरण के बाद भाजपा मुद्दे बदल रही है क्योंकि उसे चुनाव हारने का खतरा दिख रहा है।
इसकी शुरुआत पहले चरण के मतदान के बाद हुई, जब 19 अप्रैल के मतदान के दो दिन बाद 21 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजस्थान के बांसवाड़ा में कहा कि कांग्रेस की नजर लोगों की संपत्ति पर है और वह इसे छीन कर उन लोगों को दे देगी, जिनके ‘ज्यादा बच्चे हैं’ और जो ‘घुसपैठिए’ हैं। दूसरे चरण तक यानी 26 अप्रैल तक यह कहानी चलती रही और उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि कांग्रेस सत्ता में आ गई तो एससी, एसटी और ओबीसी का आरक्षण छीन कर मुसलमानों को दे देगी। यह प्रचार तीसरे चरण यानी सात मई तक चला। उसके बाद प्रधानमंत्री ने कहा कि कांग्रेस आ गई तो अयोध्या में राममंदिर पर बाबरी ताला लगवा देगी। इसके बाद चौथा चरण आते आते प्रधानमंत्री सहित पूरी भाजपा की ओर से कहा जाने लगा कि कांग्रेस आ गई तो वह अयोध्या में राममंदिर पर बुलडोजर चलवा देगी। इस तरह पहले चरण से पांचवें चरण के बीच हिंदू मुस्लिम और भारत पाकिस्तान का मुद्दा बनाया गया।
और फिर एक दिन अचानक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘ज्यादा बच्चे वालों’ से उनका मतलब गरीबों से था। सवाल है कि फिर ‘घुसपैठियों’ से उनका मतलब किसके था? फिर प्रधानमंत्री ने कहा कि उनका बचपन मुस्लिम समुदाय के लोगों के साथ ही बीता और ईद के दिन मुसलमानों के घर से उनके यहां खाना आता था। उन्होंने अपने को मुसलमानों का हितैषी बताते हुए यह भी दावा किया कि अपना विशेष प्रतिनिधि भेज कर उन्होंने इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से अनुरोध किया था कि रमजान के महीने में गाजा पर बमबारी रोकें। सोचें, एक बार प्रधानमंत्री ने मुसलमानों को लेकर ऐसा भाषण दिया कि चुनाव आयोग ने नोटिस भेज कर जवाब मांगा तो दूसरी ओर उन्होंने अपने को मुसलमानों का सबसे बड़ा हितैषी बता दिया। इससे उनके समर्थकों में भी कंफ्यूजन बना।
ऐसी कई बातों को लेकर भाजपा समर्थकों के बीच कंफ्यूजन बना। जैसे लोग अभी तक यह अंदाजा लगा रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने अंबानी और अडानी का जिक्र क्यों किया। उन्होंने क्यों यह कहा कि कांग्रेस के शहजादे को अंबानी, अडानी से बोरे में भर कर या टैंपो में भर कर काला धन मिल रहा है? भाजपा समर्थक इस बात से भी हैरान हैं कि मोदी के तीसरी बार सरकार बनाने पर छह महीने में पाक अधिकृत कश्मीर के भारत में मिल जाने का नैरेटिव पांचवें चरण के मतदान के समय क्यों बनाया गया? यह पहले चरण से क्यों नहीं बनाया गया? पार्टी के समर्थक मान रहे हैं कि या तो प्रधानमंत्री मोदी की सरकार की 10 साल की उपलब्धियों पर चुनाव लड़ा जाता या हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर खुल कर प्रचार होता। पहले चरण से राममंदिर, अनुच्छेद 370, पाक अधिकृत कश्मीर पर कब्जा, कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण आदि को मुद्दा बनाया जाता। इन्हें किश्तों में मुद्दा बनाने से कंफ्यूजन पैदा हुआ।