भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर
दस साल पहले 2014 में जब मनमोहन सिंह की सरकार लोकसभा चुनाव में जाने वाली थी तब उसने सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न दिया था। अभी 2024 के चुनाव में जाने की तैयारी कर रही नरेंद्र मोदी की सरकार ने कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिया है। इससे दोनों पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा की राजनीतिक समझ का फर्क पता चलता है। वैसे अपने दस साल के कार्यकाल में मनमोहन सिंह ने सिर्फ तीन लोगों को भारत रत्न दिया और उनमें से कोई भी राजनीतिक व्यक्ति नहीं था। इसके उलट नरेंद्र मोदी ने अपने दस साल में सात लोगों को भारत रत्न दिया, जिसमें से सिर्फ एक भूपेन हजारिका अराजनीतिक व्यक्ति थे।
बाकी छह लोग हार्डकोर राजनीति से जुड़े हैं। इससे भी दोनों सरकारों की कार्यशैली के फर्क का पता चलता है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कर्पूरी ठाकुर की सौवीं जयंती की पूर्व संध्या पर उनको भारत रत्न देने का ऐलान हुआ। ऐसा नहीं हुआ कि सिर्फ घोषणा कर दी गई और बात आई-गई हो गई। हिंदी और अंग्रेजी के सभी अखबारों में प्रधानमंत्री मोदी का लेख छपा, जिसमें उन्होंने दावा किया कि उनकी सरकार कर्पूरी ठाकुर के आदर्शों पर चल रही है। उन्होंने उनके बेटे रामनाथ ठाकुर से फोन पर बात की और उनको बधाई दी। उसके बाद सारे मंत्री और पूरा प्रचार तंत्र इसमें जुट गया कि कैसे मोदी ने अत्यंत पिछड़े समुदाय के सबसे बड़े नेता को सबसे बड़ा सम्मान दिया है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि केंद्र सरकार का फैसला लोकसभा चुनाव और अत्यंत पिछड़ी जाति की राजनीति को ध्यान में रख कर किया गया है। अन्यथा जब अटल बिहारी वाजपेयी या प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न दिया जा रहा था उसी समय कर्पूरी ठाकुर को भी यह सम्मान मिल जाता। आखिर वे भारतीय राजनीति में अपना बेमिसाल योगदान देकर 1988 में ही इस दुनिया से चले गए थे। उनके जीवित रहते नहीं तो उनके जाने के बाद किसी भी समय उनको यह सम्मान दिया जा सकता था। लेकिन पहले किसी ने इसकी जरुरत नहीं समझी। उनके चेले भी सरकार में रहे लेकिन उनको भी नहीं लगा कि इस देश के सबसे मौलिक और साहसी सोच रखने वाले नेताओं में से एक कर्पूरी ठाकुर को सर्वोच्च नागरिक सम्मान मिलना चाहिए।
नरेंद्र मोदी ने भी इस बारे में तब सोचा, जब बिहार में जाति गणना के आंकड़े आए और पता चला कि सबसे ज्यादा 36 फीसदी आबादी अति पिछड़ी जातियों की है। बिहार में जाति गणना के बाद अब आंध्र प्रदेश में भी जाति गणना शुरू हो गई है और देश के कई राज्यों में मंडल की राजनीति करने वाली पार्टियां इसकी मांग कर रही हैं। नब्बे के दशक के बाद एक बार फिर जाति की भावना को राजनीतिक लाभ के लिए उभारा जा रहा है। राज्यों में गैर भाजपा सरकारें पिछड़ी जातियों की अनुमानित संख्या के आधार पर आरक्षण की सीमा बढ़ा रही हैं। बिहार में ही आरक्षण की सीमा 75 फीसदी कर दी गई है। हिंदुत्व की राजनीति कर रही भाजपा आरक्षण बढ़ाने का फैसला अभी नहीं कर सकती है और न प्रत्यक्ष रूप से जाति की राजनीति में हाथ डाल सकती है। इसलिए उसने एक दूसरा रास्ता निकाला। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करने वाले महानायक को भारत रत्न से सम्मानित कर दिया। इस पर आगे बहुत राजनीति होनी है, प्रधानमंत्री मोदी ने लेख लिख कर इसकी शुरुआत कर दी है। उन्होंने अपने लेख में खुद को पिछड़ी जाति का बताते हुए कर्पूरी ठाकुर से जोड़ा है।
यह दुर्भाग्य है कि कर्पूरी ठाकुर को सिर्फ आरक्षण और अति पिछड़ी जातियों की राजनीति से जोड़ कर देखा जा रहा है। इस दायरे से बाहर उनके जीवन और राजनीति का विस्तार बहुत बड़ा था। आरक्षण की व्यवस्था तो समाज में बदलाव लाने के उनके प्रयासों का एक छोटा सा हिस्सा थी। उन्होंने सबसे पहले तो शिक्षा की जरुरत को समझा था और 1967 में जब उप मुख्यमंत्री बने थे तभी आठवीं तक की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को पूरी तरह से मुफ्त कर दिया था। उन्होंने एक नारा भी दिया था कि ‘पढ़ जाएगा तो बढ़ जाएगा’। अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में शामिल रहे कर्पूरी ठाकुर को पता था कि बिहार में छात्रों के लिए अंग्रेजी कितनी दुरूह है और कैसे उनकी शिक्षा के रास्ते की बाधा है।
इसलिए उन्होंने एक विषय के रूप में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त किया। इसके लिए उनकी बड़ी आलोचना हुई लेकिन उन्होंने कभी परवाह नहीं की। अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म होने के बाद उसमें फेल होने वाले भी मैट्रिक में पास होने लगे तो ऐसे छात्रों के बारे में कहा जाता था कि वह कर्पूरी डिवीजन से पास हुआ है। कर्पूरी ठाकुर संभवतः पहले नेता थे, जिन्होंने सरकारी ठेकों में परोक्ष आरक्षण की व्यवस्था की। उन्होंने बेरोजगार इंजीनियरों को ठेके में प्राथमिकता देने का नियम बनाया था। उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाने और बंजर जमीन पर मालगुजारी नहीं लगाने का उनका फैसला भी बहुत साहसिक था।
उप मुख्यमंत्री बनने के तीन साल बाद वे मुख्यमंत्री बने थे लेकिन तब उनका कार्यकाल महज 163 दिन का था। वे दूसरी बार 1977 में मुख्यमंत्री बने तब पिछड़ी जातियों के लिए 26 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था लागू की। अनुसूचित जाति व जनजातियों को संविधान से आरक्षण मिलता था। लेकिन पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की पहली बार व्यवस्था कर्पूरी ठाकुर ने की। उसी समय उन्होंने पिछड़ी जातियों का वर्गीकरण किया और अधिक आबादी वाले और अपेक्षाकृत ज्यादा गरीब अति पिछड़ी जातियों को ज्यादा आरक्षण दिया था। बाद में नीतीश कुमार ने कर्पूरी फॉर्मूले पर बिहार में आरक्षण दिया। हालांकि अभी तक केंद्र सरकार ने ऐसी कोई पहल नहीं की है।
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण के लिए तो पांच सदस्यों की एक कमेटी बनाई है लेकिन पिछड़ी जातियों का वर्गीकरण करने और अत्यंत पिछड़ों को आरक्षण का ज्यादा लाभ देने की पहल नहीं की गई है, जबकि सरकार के पास जस्टिस जी रोहिणी आयोग की रिपोर्ट लंबित है। फिर भी प्रधानमंत्री ने दावा किया है कि उनकी सरकार कर्पूरी ठाकुर के आदर्शों पर चलती है! बहरहाल, कर्पूरी पहले नेता था, जिन्होंने नौकरियों में महिलाओं और गरीब सवर्णों के लिए भी तीन-तीन फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की। हालांकि आरक्षण पर उनकी क्रांतिकारी सोच के चलते उनको डेढ़ साल के बाद ही मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया और उनकी जगह रामसुंदर दास मुख्यमंत्री बने, जिन्होंने आरक्षण के सारे प्रयोगों को रोक दिया।
उप मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री के नाते अपने फैसलों की वजह से जितना महत्व कर्पूरी ठाकुर का है उतना ही महत्व उनकी राजनीति का भी है। उन्होंने कांग्रेस और भारतीय जनसंघ से अलग हमेशा समाजवादी राजनीति की और उसके आदर्शों को अपने जीवन में अपनाया। वे अपने जीवन में संपूर्ण ईमानदारी का पर्याय बने। जीवन भर पिछड़े, दलित और वंचितों के लिए काम किया और सही अर्थों में समाज के सबसे कमजोर तबके के मसीहा रहे। राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को अपना आदर्श मानने वाले कर्पूरी ठाकुर ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के समय यह नारा दिया था कि ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ’।
सोचें, इस नारे के पांच दशक बाद राहुल गांधी ‘जितनी आबादी उतना हक का नारा’ देकर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। अपने आचरण, अपने विचार, अपनी राजनीति और अपने फैसलों से कर्पूरी ठाकुर ने देश की राजनीति में एक नया उजाला भर दिया था। वे बहुत कम समय तक मुख्यमंत्री रहे लेकिन उतने समय में उन्होंने जो कुछ किया उसकी गूंज आज तक सुनाई दे रही है। दशकों तक मुख्यमंत्री रहा कोई भी नेता देश की राजनीति पर वैसी छाप नहीं छोड़ सका, जैसी कर्पूरी ने छोड़ी थी। उनको भारत रत्न दिया जाना एक समाजवादी योद्धा का सम्मान तो है ही साथ ही ईमानदार और समावेशी राजनीति का भी सम्मान है।