कांग्रेस में नए युग की शुरुआत

कांग्रेस के 137 साल के इतिहास में सिर्फ छह मौके ऐसे आए हैं, जब अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ। इन छह मौकों में से तीन मौके पिछले ढाई दशक में आए हैं। पहले 1997 में सीताराम केसरी चुनाव के जरिए अध्यक्ष बने फिर सन 2000 में सोनिया गांधी चुनाव लड़ कर कांग्रेस अध्यक्ष बनीं और अब मल्लिकार्जुन खड़गे एक हाई वोल्टेज प्रचार अभियान वाले चुनाव के बाद भारी बहुमत से जीत कर कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं। सोचें, जिस पार्टी को लेकर वंशवाद के सबसे गंभीर और बड़े आरोप लगते रहे हैं उस पार्टी में पिछले ढाई दशक में तीन बार अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ। दूसरी ओर जो पार्टियां आरोप लगाती हैं उनकी स्थापना के बाद से ही कोई चुनाव नहीं हुआ है। हर बार आम सहमति, जिसका मतलब पार्टी के सर्वोच्च नेता की मंजूरी होती है, उससे अध्यक्ष चुने जाते हैं। पार्टियों के सर्वोच्च नेता या तो खुद अध्यक्ष होते हैं या उनकी बैठाई माटी की मूरतें होती हैं। देश और दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी में भी अभी तक कभी चुनाव की स्थिति नहीं आई। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि एक से ज्यादा व्यक्ति ने नामांकन दाखिल किया हो।

बहरहाल, भारतीय राजनीति की इस बुनियादी कमी पर अलग से विचार की जरूरत है। फिलहाल कांग्रेस पार्टी की चर्चा है, जिसको 24 साल के बाद एक गैर गांधी अध्यक्ष मिला है। कोई ढाई दशक के बाद ऐसा हुआ है, जब कांग्रेस की कमान नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति के हाथ में गई है। इतने ही अरसे के बाद दक्षिण भारत का कोई नेता कांग्रेस का अध्यक्ष बना है। नेहरू-गांधी परिवार के बाहर के और दक्षिण भारत के व्यक्ति का अध्यक्ष बनना कांग्रेस में नए युग की शुरुआत है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सोनिया और राहुल गांधी का असर नए अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे पर होगा। खुद खड़गे ने भी कई बार कहा कि वे गांधी परिवार से सलाह लेने में नहीं हिचकेंगे। यह बहुत स्वाभाविक है क्योंकि सोनिया और राहुल गांधी दोनों कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके हैं। सो, पूर्व अध्यक्ष के नाते उनकी हैसियत भी है और उनके पास लंबा अनुभव भी है। इसलिए अगर खड़गे उनकी सलाह से लेकर कांग्रेस चलाते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं होगा। भाजपा कांग्रेस के नए अध्यक्ष को रिमोट कंट्रोल से चलने वाला बता रही है। यह सिर्फ आलोचना के लिए आलोचना है क्योंकि भाजपा की स्थापना के बाद पिछले 42 साल में जितने भी अध्यक्ष हुए हैं उनमें तीन-चार को छोड़ दें तो बाकी हर नेता से ज्यादा अनुभव और ज्यादा बड़ा कद मल्लिकार्जुन खड़गे का है।

यह संयोग है या प्रयोग यह नहीं कहा जा सकता है लेकिन कांग्रेस की राजनीति में दो घटनाएं एक साथ हुई हैं। पहली राहुल गांधी का भारत जोड़ो यात्रा पर निकलना और दूसरी नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के एक दिग्गज नेता का कांग्रेस अध्यक्ष बनना। ये दोनों घटनाएं बहुत बड़े मायने वाली हैं। पिछले आठ साल से कांग्रेस की सर्वाधिक आलोचना इस बात को लेकर होती थी कि उसमें पार्टी अध्यक्ष का पद गांधी परिवार के लिए आरक्षित है। भाजपा से तुलना करते हुए पार्टी के नेता अक्सर कहा करते थे कि भाजपा में कोई भी अध्यक्ष बन सकता है, जबकि कांग्रेस में गांधी परिवार का ही कोई व्यक्ति अध्यक्ष बनेगा। इसे लेकर कई तरह के मजाक सुनाए जाते थे। खड़गे के अध्यक्ष बनने से इस आलोचना की धार कुंद पड़ जाएगी। चाहे उन्हें रिमोट कंट्रोल्ड अध्यक्ष कहा जाए लेकिन हकीकत यह है कि अध्यक्ष के पद पर गैर गांधी बैठा होगा। खड़गे की खासियत यह भी है कि वे किसी राजनीतिक वंश के नहीं हैं। वे दलित समाज से आते हैं और कोई 55 साल पहले उन्होंने एक सामान्य कार्यकर्ता के तौर पर कांग्रेस की राजनीति शुरू की थी। कांग्रेस की दूसरी आलोचना राहुल गांधी को लेकर होती थी। अक्सर कहा जाता था कि राजनीति में उनकी रूचि नहीं है, वे अक्सर विदेश चले जाते हैं, वे जमीन पर उतर कर राजनीति नहीं करते आदि आदि। भारत जोड़ो यात्रा से राहुल ने इन तमाम आलोचनाओं का जवाब दिया है। ये दोनों घटनाक्रम एक साथ हुए हैं इसलिए इनका असर ज्यादा गहरा और दूरगामी होगा।

अब सवाल है कि खड़गे के अध्यक्ष बनने से कांग्रेस में क्या बदलेगा? सबसे पहले तो काम करने का तरीका और कार्य संस्कृति बदलेगी। अब सोनिया और राहुल गांधी आमतौर पर 10, जनपथ या नौ, तुगलक लेन से ही राजनीति करते थे। इसके उलट खड़गे कांग्रेस मुख्यालय में बैठेंगे। इसका सबसे बड़ा असर यह होगा कि नेताओं और कार्यकर्ताओं को पार्टी मुख्यालय में आना जाना बढ़ेगा। खड़गे एसपीजी या जेड प्लस सुरक्षा घेरे में रहने वाले नहीं हैं इसलिए पार्टी नेता उनसे सहज तरीके से मिल पाएंगे और अपनी बात कह पाएंगे। उनकी जो नई टीम बनेगी उसके नेता भी उनके साथ सहज होंगे। खड़गे के पास संगठन का बहुत व्यापक अनुभव है। वे गुलबर्गा में नगर अध्यक्ष रहे हैं, कर्नाटक के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं और अब राष्ट्रीय अध्यक्ष बने हैं। इसलिए उनको पता है कि आम कार्यकर्ताओं से कनेक्ट कैसे बनता है और संगठन को कैसे मजबूत किया जाता है। यह उनको किसी से सीखने की जरूरत नहीं है।

मल्लिकार्जुन खड़गे के अध्यक्ष बनने से कांग्रेस को चुनावी फायदा भी होगा। वे कर्नाटक के जमीनी नेता हैं। उनका अध्यक्ष बनना कन्नाडिगा के सम्मान की बात है। वहां अगले साल मई में चुनाव होना है और कांग्रेस को खड़गे के अध्यक्ष बनने से लाभ मिलेगा। खड़गे नया वोट समूह पार्टी के साथ जोड़ सकते हैं, पार्टी की आंतरिक खींचतान को खत्म करा सकते हैं और जरूरत पड़ने पर देवगौड़ा परिवार के साथ तालमेल भी करा सकते हैं। ध्यान रहे कर्नाटक से कांग्रेस को बड़ी उम्मीद है। विधानसभा चुनाव में जीत के साथ साथ कांग्रेस को उम्मीद है कि लोकसभा चुनाव में पिछली बार भाजपा को जो छप्पर फाड़ जीत मिली थी उसे इस बार बदला जा सकता है। यह काम खड़गे के नाम, चेहरे और उनकी सक्रियता से संभव है। कर्नाटक के साथ साथ पूरे दक्षिण भारत में खड़गे कांग्रेस के बहुत काम आएंगे। ध्यान रहे कांग्रेस की कुल 52 लोकसभा सीटों में से आधी यानी 26 सीटें सिर्फ तीन राज्यों- तमिलनाडु, केरल और तेलंगाना से मिली हैं। इसे बचाते हुए कांग्रेस को इनमें कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से बढ़ोतरी करनी है, जिसमें खड़गे का चेहरा काम आएगा। खड़गे का दलित होना कांग्रेस के पुराने और समर्पित दलित वोट को फिर से पार्टी के साथ जोड़ने में भी काम आएगा।

अब खड़गे का बायोडाटा नोट करें और देश के किसी भी बड़े नेता से तुलना करें- वे नौ बार विधायक रहे। दो बार लोकसभा सांसद और फिलहाल राज्यसभा सांसद हैं। वे राज्य सरकार में मंत्री रहे और तीन बार मुख्यमंत्री बनते बनते रह गए। वे केंद्र सरकार में मंत्री रहे। कांग्रेस विपक्ष में आई तो लोकसभा में पार्टी के नेता बने और अभी राज्यसभा में कांग्रेस के नेता हैं। वे कर्नाटक के प्रदेश अध्यक्ष रहे और अब राष्ट्रीय अध्यक्ष बने हैं। तमाम उतार-चढ़ाई और अच्छे-बुरे दिनों के बावजूद वे कांग्रेस में बने रहे और अपनी शिकायतों के बावजूद पार्टी के अनुशासित सिपाही की तरह काम किया। जो भी जिम्मेदारी मिली उसे दिल से निभाया। कांग्रेस के एक सामान्य कार्यकर्ता से कांग्रेस अध्यक्ष बनने का खड़गे का सफर कांग्रेस और दूसरी सभी पार्टियों के नेताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगा।

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