चुनाव क्या सिर्फ औपचारिकता?

तो क्या यह मान लिया जाए कि लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे तय हैं और चुनाव एक औपचारिकता भर है? क्या देश के लोगों ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को तीसरी बार शासन का मौका देने का फैसला कर लिया है? कम से कम प्रधानमंत्री की बातों से तो ऐसा ही लग रहा है। प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में रविवार को केंद्रीय मंत्रिपरिषद की बैठक हुई। करीब आठ घंटे चली इस बैठक में नई सरकार के सौ दिन के एजेंडे पर चर्चा होने की खबर है।

मीडिया में आई खबरों के मुताबिक मंत्रिपरिषद ने दीर्घकालिक लक्ष्य यानी 2047 में विकसित भारत बनाने के लक्ष्य पर विचार विमर्श किया और साथ ही नई सरकार के एक सौ दिन के लक्ष्य पर भी चर्चा की। कई मंत्रालयों के सौ दिन के एजेंडे पर प्रेजेंटेशन देने की खबर भी है। सवाल है कि क्या सचमुच नरेंद्र मोदी और उनके मंत्री मान रहे हैं कि तीसरी बार भी उनकी सरकार बनने जा रही है या मंत्रिपरिषद की बैठक से निकली खबरें चुनाव के लिए इस्तेमाल किए जा रहे किसी रणनीतिक दांव का हिस्सा हैं?

आमतौर पर चुनाव नतीजों के बारे में इस तरह का सटीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि कौन जीत रहा है और किसकी हार हो रही है। इस मायने में चुनाव भी क्रिकेट की तरह गौरवशाली अनिश्चितताओं का खेल है। कई नेताओं ने सार्वजनिक रूप से और अनौपचारिक बातचीत में स्वीकार किया है कि जिस समय वे चुनाव जीतने के सबसे ज्यादा भरोसे में होते हैं उस बार चुनाव हार जाते हैं और जब लगता है कि कांटे का मुकाबला है तो चुनाव जीत जाते हैं।

यह व्यक्तियों और पार्टियों दोनों के मामले में सही है। पिछले ही साल के विधानसभा चुनावों मे कांग्रेस छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की जीत को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त थी तो बीआरएस को लग रहा था कि वह तेलंगाना हार ही नहीं सकती है। इन राज्यों के नतीजे सबको पता हैं।
अगर लोकसभा चुनावों की बात करें तो 2004 के नतीजों का सबको पता है। जैसे अभी भाजपा के नेता अगली सरकार का एजेंडा तय कर रहे हैं उसी तरह 2004 में भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के मंत्री अगली सरकार का एजेंडा तय कर रहे थे। ‘देयर इज नो ऑल्टरनेटिव’ यानी ‘टीना’ फैक्टर के आधार पर कहा जा रहा था कि अटल बिहारी वाजपेयी के मुकाबले कोई नहीं है।

अंग्रेजी के बड़े पत्रकार लच्छेदार जुमलों में बता रहे थे कि ‘सोनिया इज द ऑल्टरनेटिव सो देयर इज नो ऑल्टरनिव’ यानी ‘सीटा बनाम टीना’ फैक्टर की चर्चा थी। दिसंबर 2003 में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए थे, जिनमें से राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा जीती थी और उससे बनी लहर का इस्तेमाल करने के लिए वाजपेयी सरकार ने समय से पहले मई 2004 में लोकसभा चुनाव कराने का फैसला किया। ‘शाइनिंग इंडिया’ और ‘फीलगुड’ के मुद्दे पर चुनाव लड़ा गया और उसका भी नतीजा सबको पता है।

ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी को इस राजनीतिक इतिहास या चुनावी अनिश्चितताओं का अंदाजा नहीं है। लेकिन कई बार असीमित सत्ता और लोकप्रियता भ्रम पैदा करती है। आंखों के सामने परदा डाल देती है। तकनीक, आंकड़ों और मोदी के निजी करिश्मे से भाजपा की टीम ऐसा नैरेटिव बना रही है कि हैरानी नहीं होगी अगर सचमुच भाजपा नेता इस भरोसे में बैठे हों कि चुनाव जीत रहे हैं।

अगर ऐसा भरोसा है तो यह अति आत्मविश्वास नहीं, बल्कि उससे आगे की चीज है। इसे अहंकार कह सकते हैं। यह जनता और मतदाताओं को फॉर गारंटेड लेने या अपना पिछलग्गू मानने की सोच है। चुनाव प्रचार में किसी पार्टी द्वारा जीत का दावा करने और मंत्रिपरिषद की बैठक करके अपनी जीत की गारंटी बताने के बीच के फर्क को समझने की जरुरत है। पार्टियां चुनाव प्रचार में बड़ी से बड़ी जीत का दावा करती हैं, भरोसा जताती हैं, आत्मविश्वास दिखाती हैं लेकिन जब सरकार मंत्रिपरिषद की बैठक करके अगली सरकार का एजेंडा तय किया जाए तो उसे आत्मविश्वास नहीं कहेंगे। यह अति आत्मविश्वास से भी आगे की चीज है।

तो क्या यह माना जाए कि प्रधानमंत्री मोदी में अहंकार आ गया है और वे मतदाताओं को फॉर गारटेंड मान रहे हैं? अगर ऐसा है तो फिर वोट मांगने जाने की भी क्या जरुरत है या मतदाता मालिकों के आगे सिर झुकाने, उन्हें अपना परिवार बताने और उनसे तीसरा मौका देने का अनुरोध करने की क्या जरुरत है? जाहिर है असलियत वह नहीं है, जो दिख रही है। भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री मोदी जो दिन-रात एक किए हुए हैं वह अलग कहानी बयां कर रही है। उससे ऐसा लग रहा है कि तीसरी बार की जो मुश्किलें होती हैं उनका सामना पार्टी कर रही है।
पार्टी के रणनीतिकारों को चुनौतियों का अंदाजा है। भाजपा के हर उम्मीदवार के सामने विपक्ष का एक साझा उम्मीदवार नहीं आए इसके लिए कांग्रेस सहित विपक्ष की हर पार्टी तोड़ी जा रही है। दूसरी पार्टियों के नेताओं को खुले दिल से भाजपा में आमंत्रित किया जा रहा है और उनकी हैसियत से हिसाब से राज्यसभा दी जा रही है या लोकसभा की टिकट दी जा रही है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी की यात्रा जिस राज्य में पहुंचने वाली होती है वहां पहले से तोड़-फोड़ करके यात्रा को फेल करने के जतन किए जा रहे हैं। इन सबसे तो ऐसा नहीं लग रहा है कि भारतीय जनता पार्टी आसानी से चुनाव जीतने के आत्मविश्वास में है।

कायदे से ऐसा ही होना चाहिए। हर चुनाव इस तरह से लड़ा जाना चाहिए, जैसे पहली बार लड़ रहे हों और जीवन का आखिरी चुनाव हो। मोदी और अमित शाह हमेशा इसी तरह से चुनाव लड़ते हैं। तभी ऐसा लग रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी अपनी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं में जीत का विश्वास भर रहे हैं और मतदाताओं का एक बड़ा समूह, जो आखिरी समय तक अनिश्चय की स्थिति में रहता है उसको समझा रहे हैं कि उसे अपना अनिश्चय समाप्त करना चाहिए और अनिर्णय की स्थिति से निकल कर भाजपा को वोट देना चाहिए क्योंकि भाजपा जीत ही रही है।

मंत्रिपरिषद की बैठक में सौ दिन के एजेंडे पर चर्चा करके प्रधानमंत्री ने यही मैसेज बनवाया। उससे पहले संसद के बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा का जवाब देते हुए भी प्रधानमंत्री ने भाजपा को 370 और एनडीए को चार सौ सीट का जो दावा किया और अपनी बात के प्रमाण के तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के भाषण का आधा अधूरा संदर्भ दिया उसके पीछे भी मकसद यही था।

इतना ही नहीं भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में प्रधानमंत्री ने जो यह दावा किया कि दुनिया भर के देशों से जुलाई-अगस्त का न्योता मिल रहा है क्योंकि दुनिया के देश भी मान रहे हैं कि आएगा तो मोदी ही, उसका भी मकसद यह धारणा बनवाना था कि भाजपा जीत रही है। इस तरह के दावों से भाजपा हवा बना रही है। असल में भाजपा इस चुनाव को पहले से ज्यादा चुनौतीपूर्ण मान रही है इसलिए राममंदिर और अनुच्छेद 370 के बावजूद दस तरह के उपाय किए जा रहे हैं।

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