बिहार में लागू 75 प्रतिशत आरक्षण, अब पूरे देश में इसकी होगी होड़!
बिहार में आरक्षण की सीमा बढ़ाने का कानून लागू हो गया है। छत्तीसगढ़ और झारखंड से उलट बिहार में राज्यपाल ने आरक्षण बढ़ाने के लिए विधानसभा से पास किए गए कानून को मंजूरी दे दी है। राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर ने 18 नवंबर को शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सीमा बढ़ाने के दो विधेयकों को मंजूरी दी और राज्य सरकार ने 21 नवंबर को इसकी गजट अधिसूचना जारी करके इसे लागू करने का ऐलान कर दिया।
इस कानून के लागू होने के बाद बिहार में आरक्षण की सीमा 75 फीसदी हो गई है। इसमें 65 फीसदी आरक्षण अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जाति और अत्यंत पिछड़ी जातियों का है और 10 फीसदी आरक्षण आर्थिक रूप से कमजोर सवर्ण जातियों के लिए है, जिसे संविधान में एक संशोधन के जरिए केंद्र सरकार ने लागू किया है। राज्य सरकार ने 10 फीसदी ईडब्लुएस आरक्षण को जस का तस रखा है।
बिहार सरकार ने आरक्षण में 15 फीसदी का इजाफा करते हुए एससी, एसटी, ओबीसी और ईबीसी के आरक्षण को 50 से बढ़ा कर 65 फीसदी कर दिया है। इसमें पिछड़ी जातियों का आरक्षण 12 से बढ़ा कर 18 फीसदी, अत्यंत पिछड़ी जातियों का आरक्षण 18 से बढ़ा कर 25 फीसदी, एससी का 19 से बढ़ा कर 20 और एसटी का एक से बढ़ा कर दो फीसदी किया गया है। आरक्षण की सीमा बढ़ाने से पहले राज्य सरकार ने सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण कराया, जिसे आम बोलचाल की भाषा में जाति गणना कहा गया। हाई कोर्ट की ओर से लगाई गई रोक हटाए जाने के बाद राज्य सरकार ने गणना का काम पूरा कराया और दो चरणों में उसके आंकड़े पेश किए। पहले दो अक्टूबर को महात्मा गांधी की जयंती के दिन जातियों के आंकड़े जारी किए और फिर सात नवंबर को शीतकालीन सत्र में सामाजिक-आर्थिक विकास के आंकड़े पेश किए। इसके दो दिन बाद नौ नवंबर को आरक्षण बढ़ाने का प्रस्ताव दोनों सदनों से पास कराया। जाति गणना के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में सबसे ज्यादा 36 फीसदी आबादी अत्यंत पिछड़ी जातियों की है। उसके बाद 27 फीसदी पिछड़ी जातियों की आबादी है। अनुसूचित जाति की आबादी करीब 20 फीसदी और अनुसूचित जनजाति की आबादी एक फीसदी है। हिंदू और मुस्लिम दोनों की सवर्ण आबादी 15 फीसदी से कुछ ज्यादा है।
आरक्षण बढ़ा कर राज्य सरकार ने 27 फीसदी पिछड़ों के लिए 18 फीसदी और 36 फीसदी अत्यंत पिछड़ों के लिए 25 फीसदी आरक्षण कर दिया है। अनुसूचित जाति को उसकी आबादी के बराबर यानी 20 फीसदी आरक्षण दिया है तो अनुसूचित जनजाति को उसकी आबादी का दोगुना यानी दो फीसदी आरक्षण दिया है। आरक्षण बढ़ाने के लिए पास किए गए दोनों विधेयकों में इस बात का जिक्र किया गया है कि राज्य की आबादी के साढ़े 15 फीसदी सवर्णों के लिए 10 फीसदी ईडब्लुएस का आरक्षण लागू है। बिल में यह भी साफ किया गया है कि सवर्णों की आबादी और उनको मिले आरक्षण का अनुपात 64.5 फीसदी बनता है। यानी उनको आबादी के अनुपात में बहुत ज्यादा आरक्षण मिला हुआ है। आरक्षण की सीमा बढ़ाने के प्रस्ताव का समर्थन भाजपा ने भी किया था और इसलिए राज्यपाल को मंजूरी देने में दिक्कत नहीं हुई। मंजूरी मिलने और कानून बनने के बाद अब राज्य सरकार चाहती है कि इसे संविधान की नौवीं अनुसूची में डाला जाए ताकि इसे कानूनी चुनौती नहीं दी जा सके। लेकिन फिलहाल ऐसा नहीं होगा। इसे कानूनी चुनौती मिलेगी।
बिहार में आरक्षण बढ़ाए जाने का कानून बनने के बाद अब पूरे देश में इसकी होड़ बढ़ेगी। भाजपा विरोधी पार्टियों की राज्य सरकारें अपने राज्य में आरक्षण बढ़ाने का प्रयास शुरू करेंगी। चूंकि बिहार में राज्यपाल ने विधानसभा से पास विधेयकों को मंजूरी दे दी है इसलिए दूसरे राज्यों में राज्यपालो के लिए इसे रोकना मुश्किल होगा। इसकी शुरुआत झारखंड और छत्तीसगढ़ से हो सकती है, जहां पहले से आरक्षण बढ़ाने का बिल पास किया हुआ है। झारखंड सरकार ने पिछड़ी जातियों का आरक्षण 14 फीसदी से बढ़ा कर 27 फीसदी, अनुसूचित जाति का आरक्षण 10 से बढ़ा कर 12 और अनुसूचित जनजाति का आरक्षण 26 से बढ़ा कर 28 फीसदी करने का प्रस्ताव विधानसभा से पास कराया था। इस बढ़ोतरी के बाद इन तीन समूहों का आरक्षण 50 से बढ़ कर 67 फीसदी हो गया था। इसमें ईडब्लुएस का 10 फीसदी आरक्षण जोड़ने पर आरक्षण की कुल सीमा 77 फीसदी पहुंच गई थी। लेकिन राज्यपाल ने अटॉर्नी जनरल की सलाह पर इस साल अप्रैल में विधेयक को मंजूरी नहीं दी और उसे वापस लौटा दिया था।
इसी तरह छत्तीसगढ़ में भी राज्य सरकार ने आरक्षण बढ़ाने का विधेयक पास कराया था। छत्तीसगढ़ में सरकार ने पिछड़ी जातियों का आरक्षण 14 से बढ़ा कर 27 फीसदी और अनुसूचित जाति का आरक्षण 12 से बढ़ा कर 13 फीसदी करने का ऐलान किया था। सरकार ने अनुसूचित जनजाति का आरक्षण 32 फीसदी रहने दिया था और गरीब सवर्ण यानी ईडब्लुएस का आरक्षण घटा कर चार फीसदी कर दिया था। इस तरह राज्य में आरक्षण की कुल सीमा 76 फीसदी पहुंच गई थी। लेकिन वहां भी राज्यपाल ने विधेयक को मंजूरी नहीं दी है। इसलिए अभी 58 फीसदी आरक्षण लागू है। देश में ओबीसी, एससी और एसटी के लिए सर्वाधिक आरक्षण तमिलनाडु में है। नब्बे के दशक के शुरुआती दिनों में जब राज्य में जयललिता की सरकार थी उस समय तमिलनाडु में आरक्षण 69 फीसदी किया गया था और केंद्र की पीवी नरसिंह राव सरकार ने उस कानून को नौवीं अनुसूची में डाल दिया था, जिससे उसे कानूनी चुनौती नहीं दी जा सकी। इसी तर्ज पर बिहार सरकार भी आरक्षण बढ़ाने के कानून को नौवीं अनुसूची में डालना चाहती है।
बहरहाल, बिहार में कानून को मंजूरी मिलने के बाद अब झारखंड और छत्तीसगढ़ में कानून को रोकना मुश्किल होगा। ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि नए सिरे से बिल पास करा कर उसे राज्यपाल के पास भेजने से पहले राज्य सरकारों को अलग अलग जातीय समूहों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति का आंकड़ा जुटाना पड़े। झारखंड सरकार ने कहा भी है कि वह पिछड़ी जाति आयोग का गठन करके आंकड़े जुटाएगी। अगर बिहार की तरह सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण हो जाता है राज्य सरकारें आंकड़ों के आधार पर आरक्षण बढ़ाने का बिल पास कराती हैं तो उसे रोका नहीं जा सकेगा? सर्वोच्च अदालत ने भी महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण के प्रस्ताव को इसी आधार पर खारिज किया था उनके पास मात्रात्मक यानी क्वांटिफायबल आंकड़े नहीं थे। मात्रात्मक आंकड़े आने के बाद इसे नहीं रोका जा सकेगा। क्योंकि इंदिरा साहनी केस में तय की गई आरक्षण की अधिकतम 50 फीसदी की सीमा टूट चुकी है। खुद सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्लुएस आरक्षण को चुनौती देने वाली याचिका पर कहा था कि सरकारें जरूरत के हिसाब से सीमा बढ़ा सकती हैं। सो, चाहे झारखंड और छत्तीसगढ़ में पिछड़ों का आरक्षण बढ़ाने का मामला हो या महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण का मामला हो, सरकारें आरक्षण बढ़ाने का रास्ता पकड़ेंगी।
यह राजनीतिक रूप से भारतीय जनता पार्टी के लिए बड़े धर्मसंकट का मामला होगा। अगर भाजपा विरोधी पार्टियों की राज्य सरकारें ओबीसी आरक्षण बढ़ाने के फैसले करती हैं तो भाजपा के लिए मुश्किल बढ़ेगी। अगर वह इसका साथ देती है और राज्यपाल मंजूरी देते हैं तो उसके ऊपर दबाव बढ़ेगा कि वह अपने शासन वाले राज्यों में भी इसे लागू करे और केंद्र सरकार की नौकरियों में भी ओबीसी, एससी और एसटी का आरक्षण बढ़ाए। अगर भाजपा आरक्षण बढ़ाने के फैसले का साथ नहीं देती है या राज्यपाल बिल अटकाते हैं तो भाजपा को ओबीसी और एससी, एसटी विरोधी बताया जाएगा। सो, यह उसके लिए दुविधा वाली स्थिति है। आरक्षण बढ़ाने के दांव से विपक्षी पार्टियां भाजपा के व्यापक हिंदुत्व के समेकन यानी कंसोलिडेशन की रणनीति को चुनौती देंगी। जिस अंदाज में कांग्रेस नेता राहुल गांधी पूरे देश में जाति गणना कराने और आबादी के अनुपात में हक देने की बात कर रहे हैं उसे देखते हुए साफ लग रहा है कि भाजपा के लिए आरक्षण का मामला गले की हड्डी बनने वाला है।