हिंदू-मुस्लिम नैरेटिव चलता रहेगा!

कायदे से अब हिंदू-मुस्लिम का सार्वजनिक विमर्श बंद हो जाना चाहिए। मुसलमानों के खिलाफ होने वाली जुबानी और शारीरिक हिंसा थम जानी चाहिए। मुस्लिम धार्मिक प्रतीकों का अपमान बंद हो जाना चाहिए और सबसे ऊपर हर मस्जिद में शिवलिंग की तलाश भी समाप्त हो जानी चाहिए। आखिर हिंदू हितों और हिंदू राष्ट्र के लिए पिछले 97 साल से तपस्या कर रहे संगठन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने खुद कहा है कि हिंदुओं को हर मस्जिद में शिवलिंग नहीं तलाशना चाहिए। उन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद का खासतौर से जिक्र करते हुए कहा कि इसके लिए कोई आंदोलन नहीं होगा। उन्होंने जिस दिन यह बयान दिया उसके थोड़े दिन बाद ही भाजपा ने पैगंबर मोहम्मद साहब के प्रति अपमानजनक टिप्पणी करने वाले अपने दो प्रवक्ताओं को पार्टी से निकाल दिया। भाजपा ने अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में एक बयान भी जारी किया, जिसमें कहा, ‘भारत की हजारों वर्षों की यात्रा में हर धर्म पुष्पित व पल्लवित हुआ है। भारतीय जनता पार्टी सर्व पंथ समभाव को मानती है। किसी भी धर्म के पूजनीयों का अपमान भाजपा स्वीकार नहीं करती’।

इसके बाद क्या यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि हिंदू-मुसलमान का सार्वजनिक विमर्श समाप्त हो जाएगा? क्या यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि भाजपा के ‘फ्रिंज एलिमेंट’ या संघ के किसी अनुषंगी संगठन से जुड़े लोग दूसरे धर्मों के लिए अपमानजनक टिप्पणी नहीं करेंगे, पहनावे से पहचान कर किसी पर हमला नहीं करेंगे या गौरक्षा के नाम पर किसी का ‘वध’ नहीं करेंगे? क्या यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि टेलीविजन चैनलों पर निरंतर चलने वाली अश्लीलता की हद तक फूहड़ हो चली धार्मिक बहसें बंद हो जाएंगी? कायदे से संघ प्रमुख के बयान और भाजपा की कार्रवाई से ये सारी उम्मीदें की जा सकती हैं। लेकिन असल में इन उम्मीदों का पूरा होना दूसरी कई चीजों पर निर्भर करेगा। अगर भाजपा अपनी कार्रवाई और संघ प्रमुख अपने बयान के प्रति ईमानदार हैं तब तो देर-सबेर स्थितियों में सुधार होगा। लेकिन अगर हाल का पूरा घटनाक्रम किसी मजबूरी में हुआ या किसी बदली हुई रणनीति के तहत किया गया है तब किसी तरह के बदलाव या सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

राजनीति में कोई भी बात या कोई बयान सीधा-सपाट दिखने के बावजूद सरल नहीं होता है। उसकी कई परतें होती हैं, जो बारीक व्याख्या से खुलती हैं या आगे के घटनाक्रम से सामने आती हैं। मिसाल के लिए संघ प्रमुख के बयान को बारीकी से देखें। उन्होंने कहा, ‘ज्ञानवापी मस्जिद-काशी विश्वनाथ मंदिर विवाद में शामिल सभी लोगों को एक साथ बैठ कर आपसी सहमति से रास्ता निकालना चाहिए। लेकिन चूंकि ऐसा हर बार नहीं होता है और लोग अदालतों का रुख करते हैं। न्याय प्रणाली को पवित्र और सर्वोच्च मानते हुए सभी को अदालत के फैसले को स्वीकार करना चाहिए। यह सच है कि ऐसी जगहों पर हमारी विशेष, प्रतीकात्मक आस्था है, लेकिन हर दिन एक नया मुद्दा नहीं उठाना चाहिए। विवाद क्यों बढ़ाते हैं? ज्ञानवापी के रूप में, हमारी कुछ आस्था है, कुछ परंपराएं हैं, लेकिन शिवलिंग की तलाश क्यों हर मस्जिद में’?

इसमें दो बातें बहुत साफ कही गई हैं। पहली बात तो यह कि ज्ञानवापी-काशी विश्वनाथ में विशेष आस्था है। ऐसी ही विशेष आस्था मथुरा से भी है। काशी और मथुरा दोनों अयोध्या की तरह विशेष आस्था और प्रतीकात्मक महत्व से जुड़े मामले हैं। इसका अर्थात यह निकाला जा सकता है कि मुस्लिम समुदाय इन दोनों जगहों के विवाद में पीछे हटे और जिस तरह अयोध्या पूरी तरह से हिंदुओं की हुई उसी तरह ये दोनों पवित्र स्थान भी पूरी तरह से हिंदुओं के होने चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं है कि काशी भगवान शिव की नगरी है और मथुरा कृष्ण की जन्मभूमि और लीलाभूमि भी है। इसलिए इन दोनों जगहों पर खंडित पूजास्थल उचित नहीं हैं। अगर मुस्लिम संगठन ये दोनों पवित्र स्थल बिना शर्त हिंदुओं को सौंपते हैं तो बाकी जगहों पर संभवतः शिवलिंग तलाशने की जरूरत न पड़े। यह अलग से विचार का मसला है।

दूसरी खास बात यह है कि ‘न्याय प्रणाली को पवित्र और सर्वोच्च मानते हुए सभी को अदालत के फैसले को स्वीकार करना चाहिए’। सोचें, अयोध्या आंदोलन के समय संघ की ओर से आंदोलन का नेतृत्व कर रहे विश्व हिंदू परिषद के तमाम बड़े नेताओं और भाजपा के नेताओं ने भी कहा था कि अयोध्या आस्था का मामला है और इसमें अदालत की कोई भूमिका नहीं है। तभी अदालत में उत्तर प्रदेश के तब के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की ओर से दिए गए हलफनामे के बावजूद बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराया गया। तब अदालत की कोई भूमिका नहीं थी और अब न्याय प्रणाली पवित्र और सर्वोच्च मान ली गई! संघ प्रमुख ने कहा कि वह अब किसी आंदोलन में शामिल नहीं होगी। सोचें, अगर अपने मनमाफिक फैसले अदालतों से मिलेंगे तो फिर आंदोलन की क्या जरूरत है?

जहां तक अपने प्रवक्ताओं पर भाजपा की कार्रवाई का सवाल है तो यह तात्कालिक परिस्थितियों और वैश्विक दबावों का नतीजा है। पिछले कुछ समय से अल्पसंख्यकों पर जुबानी और शारीरिक हिंसा की घटनाओं में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। इसे एमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने अपनी तरह से आर्टिकुलेट करके लोगों के सामने रखा। उन्होंने कहा- हमारे हिजाब से दिक्कत है, हमारे पूजा स्थल हमसे छीनी जा रही हैं, हमारी दुकानों पर बुलडोजर चलाए जा रहे हैं हम कहां जाएंगे? सोचें, कहीं हिजाब पर पाबंदी है, कहीं हलाल मीट का विवाद है, कहीं नाम पूछ हर लिंचिंग का खतरा है, कहीं मदरसों का नामो-निशान मिटाने का सरकारी ऐलान है, कहीं मस्जिदों में शिवलिंग खोज कर उस पर कब्जे की मुहिम है, कहीं सार्वजनिक रूप से पैगंबर का अपमान है तो ऐसे में मुस्लिम सचमुच क्या करेंगे? निश्चित रूप से सरकार को इसका अंदाजा होगा कि स्थिति विस्फोटक हो रही है। इसलिए भी उबाल आने से पहले पानी डाल कर उसे ठंडा करने का प्रयास किया गया।

दूसरी ओर भाजपा प्रवक्ताओं के बयानों पर अचानक खाड़ी देशों में तीखी प्रतिक्रिया हुई। इनमें ऐसे देश शामिल हैं, जिनके साथ भारत का बहुत गहरा आर्थिक संबंध है। इन देशों में लाखों की संख्या में भारतीय रहते हैं और लाखों करोड़ रुपए इन देशों से भारत आते हैं। एक तरफ इन कारोबारी संबंधों की रक्षा करने का दबाव था तो दूसरी ओर अमेरिका और यूरोप के देशों में भारत को लेकर बन रही धारणा से भी चिंता बढ़ी थी। ध्यान रहे पिछले ही हफ्ते वैश्विक धार्मिक आजादी को लेकर अमेरिका की सालाना रिपोर्ट जारी हुई, जिसमें भारत में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ने की बात कही गई है। भारत ने वैसे तो इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया लेकिन उसे पता है कि बयानों से इसे नहीं बदला जा सकता है। इसलिए मोहन भागवत के बयान या भाजपा की कार्रवाई से कोई ज्यादा गहन गंभीर निष्कर्ष निकालने की जरूरत नहीं है।

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