सोच समस्याग्रस्त है
सुप्रीम कोर्ट ने वेश्यालयों पर छापा मारने पर रोक लगाई, यह उसका स्वागतयोग्य फैसला है। ये मांग लंबे समय से रही है कि वेश्यावृत्ति से संबंधित कानून में दंड का भागी इस प्रथा की शिकार महिलाओं को नहीं बनाया जाना चाहिए। बल्कि सजा उन लोगों को दी जानी चाहिए, जो ये धंधा चलाते हैं और जिनके लिए इसे चलाया जाता है। आखिर जो महिलाएं इस काम में फंसती हैं, वे मजबूरी का शिकार होती हैँ। मानव तस्करी और आर्थिक मुसीबतों की मारी महिलाओं को उस काम का दोषी ठहरा दिया जाए, जिसके लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं- किसी रूप में न्यायोचित नहीं समझा जा सकता। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह दिशा-निर्देशों काबिल-ए-तारीप है कि जब भी किसी वेश्यालय पर छापा मारा जाता है, तो संबंधित वेश्याओं को गिरफ्तार या दंडित या परेशान नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने जो बाकी टिप्पणियां कीं, वे समस्याग्रस्त हैँ।
सुप्रीम कोर्ट ने वेश्यावृत्ति को “पेशे” के रूप में मान्यता दी है। कहा कि “सेक्स वर्कर्स” कानून के तहत सम्मान और समान सुरक्षा की हकदार हैं। यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या शरीर को बेचना ऐसा काम समझा जा सकता है, जिसकी किसी सभ्य या सभ्य बनने की आकांक्षा रखने वाले समाज में जगह हो? ये धारणा कुछ अज्ञानतावश और कुछ शरारतपूर्ण ढंग से फैलाई गई है कि बहुत सी महिलाएं स्वेच्छा से कथित यौनकर्मी बनती हैँ। ऐसी बात कहते समय इस ऐतिहासिक और सामाजिक समझ की पूरी तरह अनदेखी कर दी जाती है कि यौनकर्मी बनने की जड़ में वो सूरत है, जिसमें यौन को खरीद-बिक्री की वस्तु समझा जाता है। इसमें खरीदार हमेशा ऑथरिटी की स्थिति में और विक्रेता अधीनस्थ स्थिति में रहती है। पितृसत्तात्मक संस्कृति के कारण स्त्रियों के शरीर को वस्तु या भोग की वस्तु मानने की सोच लोगों के दिमाग में बैठी रहती है। यह सोच महिलाओं में भी हो सकती है। ऐसे में जब शरीर का बाजार उपलब्ध है, तो संभव है कि कोई महिला उससे ईजी मनी कमाने के लिए प्रेरित हो जाए। लेकिन यह वैसी ही स्वेच्छा है, जैसी महिलाओं में पति से पिटाई को सही मानने की धारणा बैठी रहती है।