महंगाई घटाने की चिंता पर कमाई की?
भारतीय रिजर्व बैंक ने वहीं किया, जो इस स्थिति में आमतौर पर किया जाता है। महंगाई रोकने के लिए उसने नीतिगत ब्याज दर यानी रेपो रेट और नकद आरक्षित अनुपात यानी सीआरआर में बढ़ोतरी की। रेपो रेट और सीआरआर को सरल शब्दों में समझें तो रेपो रेट बढ़ने का मतलब होता है कि कर्ज लेना महंगा होगा, इससे आवास और वाहन की मांग घटेगी। सीआरआर बढ़ने का मतलब है कि बैंकों को अब रिजर्व बैंक के पास ज्यादा नकदी जमा रखनी होगी। इससे बाजार में नकदी कम होगी।
यानी सरकार कर्ज महंगा करके मांग घटा रही है और बाजार से नकदी खींच कर लोगों को कम खर्च के लिए बाध्य कर रही है। महंगाई कम करने का यह शास्त्रीय तरीका है। महंगाई कम करने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि लोगों की आमदनी बढ़ाई जाए या उनके हाथ में पैसा पहुंचाया जाए। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था की जो स्थिति है उसमें यह तरीका नहीं आजमाया जा सकता है। तभी विकास दर को दांव पर लगा कर शास्त्रीय तरीके से महंगाई कम करने का प्रयास हो रहा है।
रिजर्व बैंक ने पिछले एक महीने में दो बार रेपो रेट बढ़ाया है, जिसके बाद से यह 4.90 फीसदी हो गया है। अप्रैल में आपात बैठक करके केंद्रीय बैंक ने रेपो रेट में 0.40 फीसदी की बढ़ोतरी की थी और अब दो महीने में होने वाली मौद्रिक समीक्षा समिति की बैठक के बाद 0.50 फीसदी बढ़ाने का फैसला किया है। लेकिन यह अंतिम बढ़ोतरी नहीं है। अगली बैठक में इसमें फिर बढ़ोतरी होगी और संभव है कि चालू वित्त वर्ष यानी 2022-23 में इसमें एक फीसदी तक बढ़ोतरी हो। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि रिजर्व बैंक ने खुद माना है कि ब्याज दर में बढ़ोतरी के बावजूद महंगाई अभी तत्काल काबू में नहीं आने वाली है।
आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने ब्याज दरों में दूसरी बढ़ोतरी के बाद महंगाई दर का अनुमान भी बढ़ा दिया। उन्होंने कहा कि चालू वित्त वर्ष में महंगाई दर 6.7 फीसदी रहेगी। सोचें, दो महीने पहले रिजर्व बैंक का अनुमान था कि इस वित्त वर्ष में महंगाई दर 5.7 फीसदी रहेगी। उस अनुमान में एक फीसदी की बढ़ोतरी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि महंगाई की क्या स्थिति रहने वाली है।
रिजर्व बैंक ने महंगाई दर की सीमा दो से चार फीसदी तय की है और इसमें दो फीसदी ऊपर-नीचे का पैमाना तय किया है। यानी महंगाई अधिकतम छह फीसदी तक होनी चाहिए। पिछले तीन महीने से महंगाई दर इस अधिकतम सीमा से ज्यादा है और पूरे वित्त वर्ष इस सीमा से ज्यादा रहने वाली है। तभी रिजर्व बैंक के सामने इसके सिवा कोई चारा नहीं है कि वह विकास दर की परवाह छोड़ कर रेपो रेट में बढ़ोतरी जारी रखे। हालांकि सिर्फ रेपो रेट बढ़ाने से महंगाई काबू में आ जाएगी, यह नहीं कहा जा सकता है। सरकार को भी महंगाई कम करने में रिजर्व बैंक का साथ देना होगा।
केंद्र सरकार ने पिछले दिनों पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाले उत्पाद शुल्क में साढ़े नौ रुपए प्रति लीटर की कमी की थी। इसके अलावा कॉमर्शियल रसोई गैस के सिलिंडर के दाम भी घटाए गए हैं। अगर सरकार इस तरह के कदम उठाती रहती है तो रिजर्व बैंक द्वारा किए जा रहे उपायों का भी ज्यादा फायदा होगा। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़ने के बावजूद अगर केंद्र सरकार उत्पाद शुल्क में कटौती करके इसकी कीमतों को नियंत्रण में रखती है और गेहूं, चीनी जैसे उत्पादों के निर्यात पर पाबंदी या उसे सीमित रखने के उपाय भी जारी रखती है तो महंगाई का प्रबंधन थोड़ा आसान होगा।
रिजर्व बैंक और भारत सरकार दोनों मिल कर महंगाई को काबू में करने के जो भी उपाय करेंगे उसका प्रत्यक्ष असर देश की अर्थव्यवस्था पर होगा। विकास दर में कमी का सिलसिला पहले ही शुरू हो गया है। विश्व बैंक ने पहले अनुमान लगाया था कि चालू वित्त वर्ष में भारत की विकास दर 8.7 फीसदी रहेगी, जिसे घटा कर उसने 7.5 फीसदी कर दिया है। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी भारत के विकास दर का अनुमान 9.1 फीसदी से घटा कर 8.8 फीसदी कर दिया है। इस आंकड़े में और कमी आ सकती है क्योंकि अर्थव्यवस्था के अंतरराष्ट्रीय हालात भी कोई बहुत अच्छे नहीं है। अमेरिका में बढ़ती महंगाई और सख्त मौद्रिक नीति का असर भारत और दुनिया की दूसरी अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ेगा। हाल में अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी एसएंडपी ने दुनिया के देशों की विकास की अनुमानित दर घटाई है। उसने चालू वित्त वर्ष में अमेरिका की विकास दर का अनुमान 3.2 से घटा कर 2.4 फीसदी कर दिया है। चीन की विकास दर का अनुमान भी 4.9 से घटा कर 4.2 फीसदी किया है। इसी तरह यूरोजोन की विकास दर का अनुमान 3.3 से घटा कर 2.7 फीसदी किया है।
सोचें, जब दुनिया के बड़े देशों की विकास दर में गिरावट आएगी तो उसका कितना बड़ा असर भारत पर होगा! भारत बहुत बड़ा निर्यातक नहीं है लेकिन दुनिया के बड़े देशों में आर्थिक गतिविधियों के सुस्त होने से भारत का निर्यात भी कम होगा। इसका असर विकास दर पर पड़ेगा। इसी तरह रूस और यूक्रेन की लड़ाई पर भी किसी का जोर नहीं है। अमेरिका और यूरोप के देश मान रहे हैं कि युद्ध इस साल के अंत तक चल सकता है। अगर ऐसा होता है तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर इसका असर होगा। भारत में महंगाई और विकास दर दोनों इससे प्रभावित होंगे। भारतीय मुद्रा यानी रुपए की कीमत में गिरावट का सिलसिला थम नहीं रहा है। एक डॉलर की कीमत अब 78 रुपए के करीब पहुंच गई है। ध्यान रहे भारत में आयात का बिल कम नहीं हो रहा है क्योंकि भारत में उपभोग की वस्तुओं में ईंधन सबसे ऊपर है, जिसका 80 फीसदी हिस्सा भारत आयात करता है। इसके उलट अंतरराष्ट्रीय हालात से भारत का निर्यात प्रभावित हो सकता है। ऐसे में रुपए के मुकाबले डॉलर की कीमत में हो रही बढ़ोतरी भारत को बहुत बुरी तरह से प्रभावित करेगी।
भारत की अर्थव्यवस्था में कोरोना की महामारी की वजह से पिछले दो-तीन साल में एक और बदलाव देखने को मिला है। वह बदलाव ये है कि सेवाओं के मुकाबले वस्तुओं की महंगाई ज्यादा बढ़ी है। कोरोना की महामारी शुरू होने से ठीक पहले सेवाओं की महंगाई दर ज्यादा थी और वस्तुओं की कम थी। लेकिन कोरोना के बाद के दो साल में सेवाओं की औसत महंगाई दर 4.6 फीसदी रही, जबकि वस्तुओं की औसत महंगाई दर 6.2 फीसदी पहुंच गई। इसका कारण यह है कि कोरोना के दौरान सेवाओं पर ज्यादा पाबंदियां रहीं या लोगों ने उनका इस्तेमाल कम किया। उसके मुकाबले वस्तुओं की जरूरत किसी न किसी तरह से पूरी की गई। वस्तुओं में भी देश की बहुसंख्यक आबादी कोरोना के दौरान जरूरी वस्तुओं की खरीद ही करती रही। इसका मतलब है कि यह महंगाई जरूरी वस्तुओं की है और इसलिए आम लोगों को ज्यादा परेशान करने वाली है। तभी रिजर्व बैंक और भारत सरकार दोनों की पहली प्राथमिकता महंगाई कम करने और लोगों की आमदनी बढ़ाने की होनी चाहिए।