पेरारिवलन की रिहाई और कुछ सवाल
राजीव गांधी की हत्या में दोषी ठहराए गए एजी पेरारिवलन को सुप्रीम कोर्ट ने असाधारण परिस्थितियों में इस्तेमाल होने वाले संविधान के अनुच्छेद 142 की शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए रिहा कर दिया है। उम्र कैद की सजा पाए किसी कैदी का करीब 30 साल सजा काट लेने के बाद रिहा होना एक न्यायसंगत और मानवीय बात लगती है। इस पर किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन पेरारिवलन का मामला इतना सीधा और सरल नहीं है। इसमें कई पेंच हैं और इसी वजह यह रिहाई सवालों के घेरे में है।
रिहाई की प्रक्रिया से लेकर पेरारिवलन के रिहा होने के बाद का घटनाक्रम कई सवालों को जन्म देता है। दुर्भाग्य से ये सारे सवाल चिंताजनक हैं और न्यायपालिका, सरकार, मीडिया व राजनीतिक दलों को इसका ईमानदारी से जवाब तलाशना होगा।
सबसे पहला सवाल यह है कि आखिर एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश में शामिल अपराधी का मामला क्षेत्र विशेष की अस्मिता का मामला कैसे बना? तमिलनाडु में पेरारिवलन की रिहाई को लेकर खूब राजनीति हुई और इसके लिए आंदोलन हुए। जनभावना के नाम पर राजनीतिक दलों ने उसकी रिहाई का समर्थन किया। सवाल है कि क्या सरकारें और न्यायपालिका सिर्फ जन भावना के दबाव से संचालित हो सकती हैं? जम्मू कश्मीर में आए दिन संदिग्ध आतंकवादियों के समर्थन में रैलियां होती हैं, जुलूस निकाले जाते हैं और उनकी रिहाई की मांग होती है। वहां भी तमिलनाडु की तरह अगर सारी पार्टियां एकजुट होकर किसी आतंकवादी या आतंकवादी के सहयोगी को रिहा करने की मांग करने लगें तो क्या होगा? क्या बीमार पिता और बूढ़ी मां का तर्क किसी बेहद गंभीर अपराध में शामिल रहे दोषी व्यक्ति की रिहाई का आधार बन सकता है? क्या इससे आतंकवादियों के हौसले नहीं बढ़ेंगे?
पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के मामले में मौत की सजा पाए बलवंत सिंह राजोआना का मामला भी बिल्कुल इसी तरह का है। राजोआना को विशेष अदालत ने मौत की सजा सुनाई, जिसके खिलाफ उसने अपील नहीं करने का ऐलान कर दिया। उसने मीडिया के नाम खुली चिट्ठी लिखी और भारत की न्याय प्रणाली पर अविश्वास जताया। बाद में शिरोमणी गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी ने दया याचिका दायर की, जिस पर कार्रवाई करते हुए 2012 में तब की कांग्रेस सरकार ने फांसी की सजा पर रोक लगा दी। उसके बाद से राजोआना का मुद्दा लंबित है और उसकी रिहाई की मांग अब धार्मिक, सामाजिक आंदोलन में बदल गई है। यह भी एक आतंकवादी की अस्मिता और उसकी राजनीति से जुड़ा मामला है। पेरारिवलन की रिहाई से से राजोआना कि रिहाई का भी रास्ता बनता है।
दूसरा सवाल इतने गंभीर अपराध की जांच में हुई गड़बड़ी का है। जांच करने वाले अधिकारियों में से एक ने खुद जांच रिपोर्ट में छेड़छाड़ की बात स्वीकार की है। एजी पेरारिवलन के ऊपर आरोप था कि उसने नौ वोल्ट की दो बैटरी खरीदी थी और उसे शिवरासन को दिया था। इस बैटरी का इस्तेमाल बम बनाने के लिए किया गया था और उसी बम से राजीव गांधी की हत्या हुई थी। टाडा कानून के तहत दिए अपने इकबालिया बयान में पेरारिवलन ने बैटरी खरीदने और उसे शिवरासन को देने की बात कबूल की थी। इस आधार पर अदालत ने उसे आतंकवादियों का सहयोगी माना और मौत की सजा दी। सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी मौत की सजा बरकरार रखी थी, जिसे बाद में उम्र कैद में बदला गया। हालांकि हर सुनवाई में पेरारिवलन अपने को बेकसूर बताता रहा। बाद में 2013 में इस मामले की जांच से जुड़े एक आईपीएस अधिकारी वी त्यागराजन ने कहा कि पेरारिवलन ने अपने बयान में बैटरी खरीद कर शिवरासन को देने की बात तो कबूल की थी लेकिन वह नहीं जानता था कि इसका क्या इस्तेमाल होगा। खुद त्यागराजन ने कबूल किया कि उन्होंने अपनी तरफ से रिपोर्ट में यह निष्कर्ष जोड़ा कि पेरारिवलन को पता था कि बैटरी का इस्तेमाल बम बनाने में किया जाएगा। यह सही था तब भी पेरारिवलन बेकसूर नहीं था लेकिन उसका अपराध उतना बड़ा भी नहीं था कि उसे 30 साल जेल में रहना पड़े। तभी सवाल है कि जांच अधिकारी के खिलाफ क्यों नहीं कोई कार्रवाई की गई और न्यायपालिका ने इस पर खुद संज्ञान लेकर अपने फैसले में बदलाव क्यों नहीं किया?
तीसरा सवाल न्यायपालिका की भूमिका पर है। सुप्रीम कोर्ट की जिस बेंच ने पेरारिवलन की मौत की सजा बरकरार रखने का फैसला सुनाया था उसके अध्यक्ष थे जस्टिस केटी थॉमस। रिटायर होने के बाद जस्टिस थॉमस ने एक इंटरव्यू में कहा था कि वे इकबालिया बयान या एक आरोपी के दूसरे के खिलाफ दिए बयान को अंतिम सत्य मान कर फैसला देने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने कहा था कि इकबालिया बयान ठोस सबूत नहीं होता है, बल्कि कोरोबोरेटिंग इवीडेंस होता है, जिसे दूसरे सबूतों के साथ मिला कर देखना होता है। जस्टिस थॉमस का कहना था कि उन्होंने बेंच में अपने साथी जजों को पारंपरिक साक्ष्य अधनियम की यह बात समझाने की कोशिश की लेकिन बहुमत की राय थी कि टाडा कानून में इकबालिया बयान सजा देने के लिए पर्याप्त है। सोचें, इतने गंभीर मामले में क्या देश की सर्वोच्च अदालत को ज्यादा व्यापक नजरिया रखते हुए फैसला नहीं करना चाहिए था? ध्यान रहे सर्वोच्च अदालत किसी कानून का गुलाम नहीं है, बल्कि उसका काम कानून की व्याख्या और समीक्षा करना है।
चौथा सवाल राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका को लेकर है। तमिलनाडु सरकार ने सितंबर 2018 में पेरारिवलन की रिहाई का प्रस्ताव राज्यपाल के पास भेजा था। राज्यपाल ने ढाई साल तक इस पर कोई फैसला नहीं किया। प्रस्ताव राजभवन में पड़ा रहा। जुलाई 2020 में मद्रास हाई कोर्ट ने इस पर बेहद तीखी टिप्पणी करते हुए कहा था कि राज्यपाल के फैसला करने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है लेकिन ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि उस पद के साथ आस्था और विश्वास जुड़ा हुआ है। इसके आगे अदालत ने कहा कि अगर संवैधानिक संस्थाएं एक निश्चित समय में फैसला नहीं करती हैं तो अदालतों के लिए दखल देना अनिवार्य हो जाएगा। इस टिप्पणी के बावजूद राज्यपाल के पास प्रस्ताव छह महीने से ज्यादा लंबित रहा और फरवरी 2021 में उन्होंने इस पर फैसला करने की बजाय इसे राष्ट्रपति को भेज दिया। राष्ट्रपति के यहां भी एक साल से ज्यादा समय तक कोई फैसला नहीं हुआ तो सुप्रीम कोर्ट ने भी बेहद तीखी टिप्पणी की और अनुच्छेद 142 से मिली अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए पेरारिवलन को रिहा कर दिया।
इस घटनाक्रम के बाद क्या यह जरूरी नहीं हो जाता है कि राज्यपालों के फैसला करने की एक निश्चित समय सीमा तय की जाए? आज तमिलनाडु से लेकर पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र तक कई राज्यपालों से सरकारों को शिकायत है कि वे विधानसभा के फैसलों और केंद्र सरकार की ओर से भेजे गए प्रस्तावों को रोक कर बैठे रहते हैं। पेरारिवलन मामले से एक खिड़की खुली है। सरकारों की ओर से राज्यपालों को भेजे गए प्रस्तावों पर फैसला करने के लिए अब एक निश्चित समय सीमा तय होनी चाहिए। इससे आम आवाम का बहुत भला होगा। एक सवाल भारतीय मीडिया के लिए भी है। पेरारिवलन की रिहाई के फैसले के अगले दिन यानी 19 मई को अंग्रेजी के एक अखबार ने उसका लेख प्रकाशित किया। ध्यान रहे जाने या अनजाने में उसने आतंकवादियों की मदद की थी और एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या का साझीदार रहा है। वह कोई क्रांतिकारी नहीं है। वह हत्या के मामले में जेल काट कर छूटा है। उसके और उसकी मां के ‘संघर्ष’ को महिमामंडित करना एक खतरनाक परंपरा की शुरुआत है।