पुलिस क्या राज्यों की राजनीतिक सेना है?

दिल्ली के एक भाजपा नेता और सोशल मीडिया एक्टिविस्ट तेजिंदर बग्गा की गिरफ्तारी को लेकर तीन राज्यों की पुलिस के बीच जो ड्रामा हुआ वह एक बेहद गंभीर बीमारी का बड़ा और प्रत्यक्ष लक्षण है। यह सिर्फ दो राजनीतिक दलों या दो-तीन राज्यों के अहम का टकराव नहीं है, बल्कि केंद्र-राज्य संबंध, संवैधानिक व्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बहुत बड़े संकट का संकेत है। पुलिस वैसे भी अपने पूर्वाग्रह और लापरवाहियों के लिए बदनाम रही है लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि वह राज्यों की राजनीतिक सेना में या मुख्यमंत्रियों की निजी सेना में तब्दील होती जा रही है। वह कानून की बजाय मुख्यमंत्रियों या सत्तारूढ़ दलों की राजनीति से संचालित हो रही है। यह बहुत खतरनाक स्थिति है।

अगर सिर्फ बग्गा के मामले को ही देखें तो कई सवाल खड़े होते हैं। पंजाब पुलिस ने मोहाली की एक अदालत से बग्गा की गिरफ्तारी का वारंट जारी कराया है, यह काम उसने पहले क्यों नहीं किया? क्या पंजाब पुलिस को पता नहीं था कि दूसरे राज्य में जाकर किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए वारंट की जरूरत होती है? क्या पंजाब पुलिस यह नहीं जानती थी कि दूसरे राज्य में किसी को गिरफ्तार करने से पहले स्थानीय पुलिस को इस कार्रवाई की जानकारी देनी होती है? फिर क्यों वह बिना वारंट या स्थानीय पुलिस को साथ लिए, बग्गा को गिरफ्तार करने पहुंची? ऐसे ही सवाल दिल्ली पुलिस की कार्रवाई को लेकर भी हैं। जब दिल्ली पुलिस को पता था कि बग्गा को पंजाब पुलिस ले जा रही है तो उसने अपहरण का केस क्यों दर्ज किया? क्या पंजाब पुलिस अपहर्ता है? अगर किसी एक राजनीतिक दल का मामला नहीं होता तो क्या किसी राज्य की पुलिस दूसरे राज्य की पुलिस के खिलाफ अपहरण का मामला दर्ज करती? हरियाणा पुलिस ने भी जिस तरह कुरुक्षेत्र में पंजाब पुलिस का घेराव किया उससे भी लग रहा है कि वह दिल्ली की एक अदालत से चंद घंटे पहले जारी हुए सर्च वारंट की तामील नहीं कर रही थी, बल्कि अपने राजनीतिक आकाओं के अहम की संतुष्टि कर रही थी। अगर अदालतों के आदेश को लेकर पुलिस इतनी चौकस रहती तो देश के चीफ जस्टिस को यह नहीं कहना पड़ता कि अदालत के आदेशों पर अमल नहीं होता है।

जाहिर है तीनों राज्यों की पुलिस अपने राजनीतिक आकाओं के अहम के टकराव में मोहरा बनी। किसी स्वतंत्र पुलिस सिस्टम से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती है। पुलिस से उम्मीद की जाती है कि वह हर मामले के गुणदोष पर फैसला करेगी और वस्तुनिष्ठ तरीके से कदम उठाएगी। लेकिन इस मामले में पुलिस ने गुणदोष पर विचार करने की बजाय राजनीतिक दलों के पूर्वाग्रहों का ज्यादा ध्यान रखा। इस घटना के तुरंत बाद एक न्यूज चैनल के कार्यक्रम में पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक शशिकांत ने कहा था, ‘हर प्रमोशन के साथ पुलिस अधिकारी अपना दो वरटिब्रा गंवाते जाते हैं और जब तक वे शीर्ष पर पहुंचते हैं तब तक वे रूढ़विहीन चुके होते हैं’। हर पुलिस अधिकारी के लिए हो सकता है कि यह बात सही नहीं हो लेकिन इससे एक व्यापक तस्वीर उभरती है।

सवाल है कि क्या इसके लिए सिर्फ पुलिस जिम्मेदार है या उनसे ज्यादा जिम्मेदारी राजनीतिक व्यवस्था की है? अगर किसी राज्य का मुख्यमंत्री चाहता है कि पुलिस उसके कहे अनुसार काम करे और उसके विरोधियों पर कार्रवाई करे तो पुलिस अधिकारी अपने करियर का जोखिम लिए बगैर एक सीमा से ज्यादा इसका विरोध नहीं कर सकते हैं। वे अपने करियर की कीमत पर ही पोलिटिकल मास्टर्स की बात का विरोध कर सकते हैं। कोई चाहे तो सरकार का आदेश मानने से इनकार करके अपना करियर और निजी जीवन भी तबाह करने वाले पुलिस अधिकारियों की एक पूरी फेहरिस्त तैयार कर सकता है। पुलिस की ज्यादतियों की अक्सर चर्चा होती है लेकिन उसके लिए भी जिम्मेदार राजनीतिक व्यवस्था है। अगर सत्तारूढ़ दल के नेता अपने विरोधियों के खिलाफ पुलिस का बेजा इस्तेमाल करते हैं तो फिर वे पुलिस को किसी और के खिलाफ ज्यादती करने से रोकने का नैतिक अधिकार खो बैठते हैं। ऐसा नहीं हो सकता है कि चुनी हुई सरकार के आदेश पर पुलिस उसके विरोधियों के खिलाफ कानून की सीमा से परे जाकर कार्रवाई करे और बाकी मामलों में निरपेक्ष और ईमानदार बनी रहे।

दुर्भाग्य से भारत में राजनेताओं ने पुलिस को अपनी निजी या राजनीतिक सेना मान ली है। वे मनमाने तरीके से पुलिस का इस्तेमाल कर रहे हैं और पुलिस अधिकारी भी आंख मूंद कर उनके कहे का पालन कर रहे हैं। अन्यथा कोई कारण नहीं था कि पंजाब पुलिस कुमार विश्वास, तेजिंदर बग्गा या अलका लांबा के खिलाफ मुकदमा दर्ज करती या बिना वारंट बग्गा को गिरफ्तार करने दिल्ली पहुंच जाती। इसका भी कोई कारण नहीं था कि दिल्ली पुलिस पंजाब पुलिस के खिलाफ अपहरण का मुकदमा दर्ज करती। इस बात का भी कोई कारण नहीं था कि मुंबई पुलिस सांसद नवनीत राणा और उनके विधायक पति रवि राणा के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दर्ज करती। असम पुलिस के पास हजारों जरूरी और गंभीर अपराध के मुकदमे लंबित होंगे लेकिन वहां की पुलिस हजारों किलोमीटर की दूरी तय करके गुजरात पहुंच गई थी एक विधायक को उसके एक ट्विट के लिए गिरफ्तार करने। कुछ दिन पहले ही देश ने देखा कि कैसे बिहार की पुलिस ने विधानसभा में घुस कर माननीय विधायकों के साथ मारपीट की।

ये कुछ प्रतिनिधि घटनाएं हैं, जिनसे यह तस्वीर उभरती है कि पुलिस किस तरह से राजनेताओं के हाथ का हथियार बनती जा रही है। चुनी हुई सरकारें पुलिस को अपनी राजनीतिक सेना मानने लगी हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी राज्य की पुलिस को यह आदेश नहीं देतीं कि वे सीमा सुरक्षा बल यानी बीएसएफ के जवानों को सीमा के अंदर 50 किलोमीटर के दायरे में काम करने से रोकें। यह कानून बन गया है कि बीएसएफ का दायरा सीमा के अंदर 50 किलोमीटर तक होगा तो उसका राजनीतिक तौर पर जितना भी विरोध हो लेकिन उसे पुलिस और बीएसएफ के बीच टकराव का कारण नहीं बनाया जा सकता है। सोचें, क्या होगा अगर बीएसएफ सीमा के अंदर कोई कार्रवाई कर रही हो और पुलिस उसे रोकने पहुंच जाए? कहां तो सभी सुरक्षा बलों को साथ मिल कर राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रथम लक्ष्य के लिए काम करना है तो कहां सुरक्षा बलों के बीच ही टकराव बढ़ाया जा रहा है।

बहुत समय नहीं बीता, जब असम और मेघालय की पुलिस आमने-सामने आ गई थी। उससे पहले सीमा विवाद को लेकर असम और मिजोरम की पुलिस में भिड़ंत हो गई थी। बग्गा के मामले में पंजाब, दिल्ली और हरियाणा की पुलिस में टकराव हुआ। पश्चिम बंगाल और पंजाब में भी पुलिस और अर्धसैनिक बलों के बीच टकराव के हालात बन रहे हैं। यह स्थिति देश को अराजकता की ओर ले जाएगी। नेता अगर अपने अहम और विरोधियों के प्रति असहिष्णुता व दुर्भावना से इसी तरह ग्रस्त रहे तो वह दिन दूर नहीं है, जब राज्यों की पुलिस आपस में लड़ रही होगी और पुलिस व अर्धसैनिक बलों की झड़प हो रही होगी। कहीं अर्धसैनिक बल किसी राज्य के मुख्यमंत्री को पकड़ेंगे तो कहीं किसी राज्य की पुलिस विरोधी पार्टी के नेता, मंत्री या मुख्यमंत्री को पकड़ेगी।

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