धार्मिक-सामाजिक एजेंडे का क्या जवाब?
कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां कैच-22 सिचुएशन में हैं। उनकी स्थिति सांप-छुछुंदर वाली हो गई है। पिछले आठ साल से भाजपा की ओर से सेट किए गए एजेंडे पर प्रतिक्रिया देते देते विपक्षी पार्टियां अपना एजेंडा सेट करना भूल गई हैं और अब भाजपा की ओर से सेट किए गए एजेंडे पर प्रतिक्रिया देने की स्थिति में भी नहीं हैं। भाजपा अब ऐसा एजेंडा सेट कर रही है, जिस पर कोई भी प्रतिक्रिया देना विपक्ष के लिए राजनीतिक रूप से आत्मघाती हो सकता है। सभी पार्टियां शिव सेना की तरह नहीं हैं, जो भाजपा को दो टूक जवाब दे सकें। भाजपा के एक नेता ने कहा कि बाबरी मस्जिद का ढांचा टूटा तो वे वहीं पर थे और वहां कोई शिव सैनिक नहीं था। इसके जवाब में शिव सेना ने खुल कर कहा कि शिव सैनिकों ने ढांचा गिराया और सुप्रीम कोर्ट तक में इसके सबूत हैं। शिव सेना ने लालकृष्ण आडवाणी का एक इंटरव्यू भी साझा किया, जिसमें वे कह रहे हैं कि गुंबद पर चढ़े लोग मराठी बोल रहे थे और भाजपा के नहीं थे इसलिए उमा भारती और प्रमोद महाजन की बात नहीं मान रहे थे।
क्या ऐसे किसी मुद्दे पर कोई दूसरी विपक्षी पार्टी इस तरह का जवाब दे सकती है? सोचें, जब सारे मुद्दे ऐसे ही होंगे तो विपक्ष क्या जवाब देगा? भाजपा ने हिंदी का मुद्दा छेड़ा है। हिंदी को पूरे देश में संपर्क भाषा बनाने की बात केंद्रीय गृह मंत्री ने कही है। दिल्ली में सरकारी कामकाज अब हिंदी में होने लगे हैं और संसद में केंद्रीय मंत्री अब किसी भी भाषा में पूछे गए सवाल का जवाब हिंदी में देते हैं। दक्षिण भारत की पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं। वे कर सकती हैं क्योंकि उनको हिंदी विरोध से फायदा होगा। भाषायी अस्मिता की राजनीति करने वाली कुछ और पार्टियां इसका विरोध कर सकती हैं। लेकिन कांग्रेस या उत्तर भारत की दूसरी प्रादेशिक विपक्षी पार्टियां क्या करेंगी? उनके सामने चुप रहने के सिवा कोई और रास्ता नहीं है। कांग्रेस के लिए तो चुप्पी भी कोई समाधान नहीं है क्योंकि उसे उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक हर राज्य में राजनीति करनी है। अगर भाषा का विवाद बढ़ता है तो कांग्रेस को कोई स्टैंड लेना होगा और पहली नजर में कोई भी स्टैंड उसको फायदा पहुंचाने वाला नहीं होगा।
हिंदी की तरह ही कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा कर उसका विशेष राज्य का दर्ज खत्म करने का मुद्दा है। कश्मीर की पार्टियों और वामपंथी दलों को छोड़ दें तो किसी विपक्षी पार्टी ने इसका विरोध नहीं किया। कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों का विरोध इतने तक सीमित है कि केंद्र सरकार जम्मू कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्ज बहाल करे और विधानसभा के चुनाव कराए। सोचें, साढ़े तीन साल से कश्मीर में राष्ट्रपति शासन है और देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी सहित किसी की हिम्मत नहीं है कि वह इसके खिलाफ सड़क पर उतरे और आंदोलन करे कि कश्मीर में लोकतांत्रिक व्यवस्था बहाल हो। विपक्ष को पता है कि कश्मीर का मुद्दा बेहद संवेदनशील है और उसे छेड़ना भारी पड़ सकता है।
असल में नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में भाजपा और सरकार ने खुद ऐसा एजेंडा सेट किया है, जिस पर विपक्ष की चुप रहने की मजबूरी है। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो या काशी कॉरिडोर का निर्माण हुआ, विपक्ष इनका विरोध नहीं कर सकता है। दबे स्वर में एकाध टिप्पणियों के अलावा इन मुद्दों पर विपक्ष की मौन सहमति रही। नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के खिलाफ देश भर में आंदोलन हुआ लेकिन इस आंदोलन का नेतृत्व विपक्ष नहीं कर रहा था। मुस्लिम संगठनों और आम मुस्लिम आवाम ने इसके विरोध में आंदोलन किया इसलिए सरकार की सेहत पर इसका रत्ती भर असर नहीं हुआ। उलटे भाजपा को इससे राजनीति के ध्रुवीकरण में मदद मिली। असम इस आंदोलन का एक केंद्र था, जहां पिछले साल हुए चुनाव में एक बार फिर भाजपा का गठबंधन भारी बहुमत से जीता।
अभी देश भर में हनुमान चालीसा का मुद्दा छाया हुआ है। अजान बनाम हनुमान चालीसा के इस विवाद में विपक्ष को समझ में ही नहीं आ रहा है कि वह क्या करे। कहीं धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकर उतारे जा रहे हैं तो कहीं मुफ्त लाउडस्पीकर बांट कर धर्मस्थलों पर लगाए जा रहे हैं। विपक्ष किंकर्तव्यविमूढ़ है। रोटी, कपड़ा और मकान की जगह नया नैरेटिव बना दिया गया है। रोटी की जगह हलाल मीट, कपड़े की जगह हिजाब और मकान की जगह बुलडोजर ने ले ली है। इस विमर्श में विपक्ष क्या कर सकता है? कांग्रेस और विपक्ष की ऐसी मजबूरी है कि गरीबों और मजलूमों के घर पर बिना कानूनी कार्रवाई के बुलडोजर चलाने का भी वह विरोध नहीं कर पा रहा है। हलाल मीट और हिजाब के विवाद में भी कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टियों का कोई दो टूक स्टैंड नहीं है। वे गोलमोल प्रतिक्रिया देकर उम्मीद कर रहे हैं देर सबेर यह विवाद खत्म जाएगा। उनको समझ ही नहीं आ रहा है कि खत्म होने के लिए ये विवाद शुरू नहीं हुए हैं। इन्हें सुनियोजित तरीके से शुरू किया गया है और ये खत्म तभी होंगे, जब इनका राजनीतिक मकसद पूरा हो जाएगा।
सोचें, लव जिहाद रोकने के नाम पर देश के कई राज्यों में अंतरधार्मिक विवाहों को प्रतिबंधित करने वाला कानून बन गया और विपक्ष क्या कर सका? एक के बाद एक राज्यों में भगवद्गीता को पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है तो विपक्ष क्या कर ले रहा है? एक के बाद एक कई राज्यों ने समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में पहला कदम बढ़ा दिया है तो विपक्ष क्या कर रहा है? विपक्ष के पास चुपचाप तमाशा देखने का विकल्प है या इसी खेल में घुस जाने का विकल्प है। कई विपक्षी पार्टियों ने दूसरा रास्ता चुना है यानी वे खुद भी इसी खेल में घुस गए हैं। भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों और संगठनों ने इन दिनों गौरक्षा का काम स्थगित कर रखा है और इस एजेंडे पर बहुत मंथर गति से काम हो रहा है लेकिन कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ में गौरक्षा का ज्यादा काम शुरू हो गया। वहां के मुख्यमंत्री गोबर खरीद रहे हैं और गोबर से बने बैग में दस्तावेज लेकर बजट पेश करने गए थे। धीरे धीरे बाकी धार्मिक-सामाजिक एजेंडे पर भी विपक्षी पार्टियों का ऐसा ही रवैया देखने को मिले तो हैरानी नहीं होगी।
विपक्ष के पास ले-देकर महंगाई और बेरोजगारी का एक मुद्दा है। यह बड़ा मुद्दा है लेकिन अव्वल तो विपक्ष इसे प्रभावी तरीके से उठा नहीं पा रहा है और दूसरे सरकार ने सामाजिक विकास की अपनी योजनाओं के जरिए इस समस्या का असर काफी हद तक कम कर दिया है। अगले दो साल में महंगाई और बेरोजगारी बढ़ती है तो उसी अनुपात में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत मुफ्त अनाज की मात्रा बढ़ा दी जाएगी। पांच किलो अनाज और एक किलो दाल के साथ तेल, नमक और मसाले भी दे दिए जाएंगे। किसान सम्मान निधि के तहत मिलने वाली सालाना राशि छह से बढ़ा कर 12 हजार रुपए कर दी जाएगी। महिलाओं को मिलने वाली सहायता राशि बढ़ा दी जाएगी और आवास योजना का दायरा बढ़ा दिया जाएगा। इतनी योजनाओं के लिए सरकार के पास पैसे की कमी नहीं है। हर महीने जीएसटी की वसूली बढ़ रही है और हर साल आयकर की वसूली में भी रिकॉर्ड बढ़ोतरी हो रही है। सरकार हर साल सिर्फ पेट्रोल-डीजल पर करीब साढ़े चार लाख करोड़ रुपया वसूल रही है, उतने से ही समाज कल्याण की सारी योजनाओं का संचालन हो जाएगा।