जैसे आठ साल वैसे 10, 15 या 20 साल
प्रधानमंत्री जापान गए तो वहां प्रवासी भारतीयों के बीच कहा, ‘मैं मक्खन पर नहीं पत्थर पर लकीर खींचने में विश्वास करता हूं’। पिछले आठ साल में भारत की राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था को जो दिशा मिली है वह भी पत्थर पर खींची गई लकीर की तरह है, जो नहीं बदलने वाली है। प्रधानमंत्री की अपनी सोच और कार्यशैली भी पत्थऱ पर लकीर की तरह ही है। तभी यह मान सकते हैं कि जैसे आठ साल बीते हैं वैसे ही आगे 10, 15 या 20 साल बीतेंगे। कुछ भी नहीं बदलेगा क्योंकि भारत आज जिस दशा में है वह सिर्फ परिस्थितियों के कारण नहीं है, बल्कि सोच-समझ कर किए गए फैसलों की वजह से है। दुनिया भर के देशों की अर्थव्यवस्था में गिरावट कोरोना वायरस की महामारी के कारण हुई लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था उससे बहुत पहले किए गए नोटबंदी के सुनियोजित फैसले की वजह से बिगड़ने लगी थी। दुनिया में गिरावट मार्च 2020 में शुरू हुई और भारत में मार्च 2018 में ही शुरू हो गई थी। चीन और दुनिया के देशों पर भारत की निर्भरता बढ़ी है। भारत का निर्यात बढ़ा है तो उसी अनुपात में आयात भी बढ़ा है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भरा है तो उसी अनुपात में भारतीय मुद्रा की कीमत गिरी है और आयात का बिल भी बढ़ा है। सो, अगर आठ साल में विकास दर ठप्प है, महंगाई और बेरोजगारी बढ़ी है, गरीबों की संख्या में इजाफा हुआ है, संपत्ति निर्माण बंद है, सरकारी कंपनियों की बिक्री भी नहीं हो पा रही है लेकिन अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है तो यहीं सब कुछ आगे भी होता रहेगा।
आगे के कई सालों की राजनीतिक व सामाजिक पटकथा भी पहले ही लिखी जा चुकी है। जो कहानी शुरू हो गई है वह चलती जाएगी। प्रधान सेवक की ईमानदारी और सादगी की चर्चा होती रहेगी। विपक्षी पार्टियों के परिवारवादी होने और भ्रष्ट होने का नैरेटिव केंद्रीय एजेंसियों के छापों से हल्ला होता जाएगा। विपक्ष के नेता भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़े जाएंगे लेकिन व्यवस्था का भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा। जनता रिश्वत देकर अपना काम कराती रहेगी लेकिन विपक्षी नेताओं के पकड़े जाने का जश्न भी मनाएगी। अपने घर में कभी पूजा नहीं करने वाले भी अपने घर से हजारों मील दूर किसी मस्जिद में मूर्ति मिलने की खुशी मनाएंगे और सरकार का जयकारा लगाएंगे। सो, अगले कई बरसों तक नेताओं पर छापे पड़ते रहेंगे, वे मुकदमों में उलझे रहेंगे, मस्जिदों की खुदाई चलती रहेगी, मूर्तियों के मिलने का सिलसिला जारी रहेगा और लोग इसके जश्न में डूबे रहेंगे। एक बार यह सिलसिला शुरू हो गया है तो इसे तभी रोका जा सकता है, जब बड़ा बल लगा कर रोका जाए लेकिन वह कौन करेगा! जिसने शुरू किया उसे तो इसका फायदा हो रहा है।
समझदार लोग इस चिंता में हैं कि सामाजिक विभाजन बहुत गहरा हो रहा है और देश गृहयुद्ध की तरफ बढ़ रहा है। लेकिन उससे भी क्या? देश में गृह युद्ध तो होना ही था, वह कल होना था तो आज हो जाए। दुनिया के किस देश में गृह युद्ध नहीं हुआ! यूरोप के लोग क्या बिना लड़े सभ्य हो गए! उन्होंने सदियों तक धर्म युद्ध किए हैं। भारत में भी अगर ऐसा होता है और साफ-सफाई होती है तो क्या बुरा है? लोग कपड़े, पहनावे, बोली-भाषा और खान-पान से पहचाने जाएंगे और अकेले मिल गए तो मार भी दिए जाएंगे। जैसे मध्य प्रदेश में मोहम्मद के शक में जैन साहेब मार दिए गए। धर्म के आधार पर समाज के विभाजन की प्रक्रिया शुरू हो गई है तो वह चलती रहेगी क्योंकि उसे रोकने की मंशा किसी की नहीं है। उलटे सत्ता तंत्र की लकड़ियों से इस उबाल को बनाए रखने का प्रयास चलता रहेगा क्योंकि इसकी आंच पर वोट पक रहे हैं।
सोचें, जिस काम से वोट मिल रहे हों उसे कौन रोकना चाहेगा? अगर सरकार से पांच किलो अनाज लेने वाला कहे कि उसने सरकार का नमक खाया है और वह धोखा नहीं कर सकता है तो क्या पांच किलो अनाज का सौदा महंगा है? उलटे यह बहुत सस्ता सौदा है। ध्यान रहे भारत में बहुत पहले किसी ने यह नैरेटिव बना दिया था कि काम करने पर वोट नहीं मिलता है। कई मिसाल देकर लोग बताते हैं कि अमुक नेता तो इतना काम किया फिर भी नहीं जीत सका। सो, जीतने का फॉर्मूला अलग है और वह काम नहीं है। वह फॉर्मूला मुफ्त में अनाज बांटने का है, स्मार्ट फोन, लैपटॉप बांटने का है, पोशाक व कपड़े देने का है, सम्मान निधि के नाम पर पांच सौ-हजार रुपए महीना देने का है या फिर इतिहास की खुदाई करके मंदिर निकालना है। सो, तय मानें कि आगे अनेक बरसों तक यही सब कुछ होते रहना है।