जाति राजनीति की सीमाएं

असल सवाल है कि क्या सभी दलित-पिछड़ी जातियां अपने को एक समुदाय के रूप में देखती हैं? क्या अपनी अलग-अलग पहचान को भुला कर एक अस्मिता के साथ वे खड़ी होती दिख रही हैं?

जिस समय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जातीय जनगणना की मांग को लेकर बिहार में नई पैंतरेबाजी करते दिख रहे हैं, उसी समय आंध्र प्रदेश में एक जिले का नाम बदलने को लेकर विवाद ने हिंसक रूप ले रखा है। सरसरी तौर पर इन दोनों घटनाओं को एक साथ देखना बहुत से लोगों को अजीब लग सकता है। लेकिन अगर गहराई से गौर करें, तो इनके बीच संबंध नजर आएगा। आंध्र प्रदेश की सरकार ने अमलापुरम जिले का नाम बदल कर उसका नया नाम बीआर अंबेडकर जिला करने का फैसला किया। इस पर विरोध भड़क उठा। अब ध्यान देने की बात है कि इसका सबसे तीखा विरोध कौन से समुदाय कर रहे हैँ। ये विरोध ओबीसी जातियों और उनमें भी खास कर कापू जाति की तरफ से हुआ है। जबकि शहरी बुद्धिजीवी वर्ग में आम धारणा है कि डॉ. अंबेडकर तमाम दलित-पिछड़ी जातियों यानी बहुजन समुदाय के प्रतिनिधि हैँ। इसी वर्ग ने जातीय जनगणना को देश की तमाम समस्याओं के समाधान के रूप में पेश कर रखा है। स्पष्टतः अमलापुरम की घटना यह बताती है कि भारतीय समाज में जातीय आधार पर बहुजन समीकरण बनाना टेढ़ी खीर है।

1990 के दशक में ऐसा होने के संकेत जरूर मिले थे, लेकिन उसके बाद अलग-अलग जातियों के बीच अपनी अलग पहचान जताने की होड़ मची, उसने ऐसी संभावना को अब बेहद धूमिल कर दिया है। बसपा, सपा, राजद जैसी पार्टियों की कमजोर हुई स्थिति इसी नई परिस्थिति का परिणाम है। जबकि ये पार्टियां संभवतः अभी भी यह सोचती हैं कि अगर जातीय जनगणना से एक बार यह प्रमाणित हो जाए कि दलित-पिछड़ी जातियां बहुसंख्या में हैं, तो उनकी सियासत फिर चमक उठेगी। लेकिन असल सवाल है कि क्या ये सभी जातियां अपने को एक समुदाय के रूप में देखती हैं? क्या अपनी अलग-अलग पहचान को भुला कर एक अस्मिता के साथ खड़ी होती दिख रही हैं? जिन्हें भी जाति व्यवस्था और भारतीय समाज की अंदरूनी संचरना की समझ है, उनके लिए ऐसा सोचना कठिन है। परंतु जब असल मुद्दों को सामने लाने की बौद्धिक और राजनीतिक क्षमता ना बची हो, तब नीतीश कुमार और उन जैसे नेताओं के पास ऐसे ही मुद्दे उछालने के अलावा कोई चारा भी नहीं बचता।

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