चिंतन शिविर से क्या बदलेगा?

कांग्रेस का हाल नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाला है। तीन दिन तक पार्टी के आला नेताओं ने उदयपुर में चिंतन किया। इससे कई साल पहले से ऐसे चिंतन की जरूरत बताई जा रही थी। सो, कह सकते हैं कि कई सालों की प्रतीक्षा और तैयारी के बाद यह शिविर लगा था, जिसे नव संकल्प शिविर का नाम दिया गया था। लेकिन सवाल है कि तीन दिन के चिंतन के बाद कांग्रेस में क्या बदला है या क्या बदलेगा? क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि यह सारी कवायद ऑप्टिक्स के लिए यानी दिखावे के लिए हुई कार्रवाई थी, जिसका कोई वास्तविक मतलब नहीं है? कांग्रेस ने तीन दिन में कुल मिला कर यह किया कि अलग अलग पार्टियों और सार्वजनिक संस्थाओं की कुछ अच्छी बातों यानी गुड प्रैक्टिसेज को अपनाने की बात कही। इसमें कुछ भी नया या मौलिक नहीं है। एक परिवार एक टिकट या नेताओं के लिए कूलिंग ऑफ पीरियड या पार्टी संगठन और टिकट बंटवारे में कमजोर व वंचित वर्ग के लिए आरक्षण सहित कोई ऐसी बात नहीं है, जो नई हो।

इस चिंतन शिविर से पहले जिन बातों की सबसे ज्यादा चर्चा हो रही थी उनके बारे में कुछ किया ही नहीं गया। कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं के समूह यानी जी-23 के नेताओं ने संसदीय बोर्ड को पुनर्जीवित करने का सुझाव दिया था। इसके अलावा उन्होंने कार्य समिति से लेकर पार्टी संगठन और अनुषंगी संगठनों में अहम पदों के लिए चुनाव का भी सुझाव दिया था। संसदीय बोर्ड को पुनर्जीवित करने के बारे में चर्चा तो हुई लेकिन परिवार के प्रति निष्ठावान नेताओं ने इस प्रस्ताव को मंजूरी नहीं मिलने दी। सोचें, क्या सिर्फ इसलिए कि कुछ असंतुष्ट नेताओं ने इसका सुझाव दिया है, इसे नहीं मानना कोई समझदारी की बात है? कांग्रेस ने दिखावे के लिए जो कुछ फैसले किए उसके मुकाबले अगर संसदीय बोर्ड बनाने और संसदीय बोर्ड व कार्य समिति के आधे सदस्यों के चुनाव की घोषणा की जाती तो उसका ज्यादा असर होता। लेकिन चूंकि पार्टी को असल में कुछ बदलाव नहीं करना है, बल्कि यथास्थिति बनाए रखनी है इसलिए उसने ऐसी कोई पहल होने ही नहीं दी, जिससे वास्तविक बदलाव होता।

ऊपर से पार्टी के नेताओं ने इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन को लेकर माथापच्ची की और एक बड़े नेता, जो प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री रहे हैं और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे हैं उन्होंने कहा कि पार्टी सत्ता में आई तो ईवीएम से चुनाव बंद कराएगी और बैलेट से वोटिंग कराएगी। सोचें, अगर पार्टी को ऐसा लगता है कि ईवीएम हैक किया जाता है और उसी से भाजपा चुनाव जीत रही है तो फिर पहला सवाल तो यही है कि कांग्रेस सत्ता में कैसे आएगी? जब भाजपा ईवीएम हैक करके चुनाव जीतती रहेगी तो जाहिर है कि कांग्रेस या दूसरी पार्टियां कभी सत्ता में नहीं आ पाएंगी फिर ईवीएम से चुनाव बंद करा कर बैलेट से चुनाव कराने की बात का क्या मतलब है? असल में यह भी दिखावे के लिए कहा गया है। पार्टी अपने निराश कार्यकर्ताओं को यह मैसेज देना चाह रही है कि वह अपनी संगठनात्मक या वैचारिक कमजोरियों की वजह से चुनाव नहीं हार रही है, बल्कि ईवीएम के कारण हार रही। लेकिन ऐसा लगता नहीं है कि यह ट्रिक किसी काम आएगी।

तीन दिन के चिंतन के बाद सबसे बड़े फैसले के रूप में इस बात का प्रचार किया जा रहा है कि राहुल गांधी पूरे देश में पदयात्रा करेंगे। सोनिया और राहुल गांधी ने इस पदयात्रा का ऐलान किया और कहा कि अक्टूबर में पूरी पार्टी सड़क पर होगी। कश्मीर से कन्याकुमारी तक पदयात्रा की घोषणा हुई है। महात्मा गांधी से लेकर चंद्रशेखर तक अनेक नेताओं ने पदयात्रा की और देश को समझने का प्रयास किया। लेकिन यह कोई चुनाव जीतने का फॉर्मूला नहीं है। चंद्रशेखर ने भारत एकता यात्रा की तो उससे कोई उनकी पार्टी का संगठन मजबूत नहीं हो गया और नरेंद्र मोदी-अमित शाह को अपनी पार्टी का संगठन मजबूत करने के लिए किसी पदयात्रा की जरूरत नहीं पड़ी। पदयात्रा करें या ट्रेन से यात्रा करें लेकिन उसके साथ साथ पार्टी संगठन को मजबूत करने और पार्टी को नया वैचारिक आधार देने का प्रयास भी जरूर करें। याद रहे 1989 में लोकसभा का चुनाव हारने के बाद राजीव गांधी ने ट्रेन से देश के बड़े हिस्से की यात्रा की थी। लेकिन उस यात्रा से कांग्रेस को कोई फायदा नहीं हुआ। समूचे उत्तर भारत में मंडल और कमंडल के बाद से राजनीति ऐसे बदल गई थी कि 1991 के चुनाव में उत्तर भारत के राज्यों में कांग्रेस को उस यात्रा का कोई फायदा नहीं हुआ। दक्षिण के राज्यों में कांग्रेस को फायदा हुआ लेकिन उसका कारण यह था कि उन इलाकों में मतदान से पहले तमिलनाडु के श्रीपेरेम्बदूर में राजीव गांधी की हत्या हो गई थी। इसके बावजूद पदयात्रा का विचार अच्छा है। लेकिन इसके साथ साथ पार्टी को कई और काम करने होंगे। यह अच्छी बात है कि राहुल गांधी ने स्वीकार किया कि कांग्रेस का जनता से कनेक्शन कट गया है। लेकिन कनेक्शन फिर से जोड़ने का कोई रोडमैप कांग्रेस के पास नहीं है। कांग्रेस की सदिच्छा है कि पदयात्रा से वह कनेक्शन जुड़ जाएगा, लेकिन ऐसा होना आसान नहीं है।

सबसे अहम बात यह है कि तीन दिन के चिंतन शिविर में चुनावी हार को लेकर कोई चर्चा होने की खबर नहीं है। दो महीने पहले ही कांग्रेस पांच राज्यों में बुरी तरह से हारी है। पिछले लोकसभा चुनाव यानी 2019 के बाद से 17 राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए और एकाध राज्यों में सीट बढ़ने के अलावा पार्टी हर राज्य में हारी है। इस लगातार हार पर पार्टी ने कोई चिंतन नहीं किया। उत्तर प्रदेश में पार्टी ने प्रियंका गांधी के नाम पर चुनाव लड़ा था और करीब चार सौ सीटों पर लड़ने के बावजूद उसे ढाई फीसदी से भी कम वोट आए। तीन सौ से ज्यादा सीटों पर तो पार्टी के उम्मीदवारों को दो-दो, तीन-तीन हजार वोट आए हैं। ऐसी हार के तुरंत बाद हो रहे चिंतन शिविर में सबसे विस्तार से चर्चा इसी पर होनी चाहिए थी। चुनावी हार के अलावा कांग्रेस को इस बात पर भी चर्चा करनी चाहिए थी कि आखिर क्या कारण है, जो पार्टी के नेता साथ छोड़-छोड़ कर जा रहे हैं? सिर्फ यह कह देना पर्याप्त नहीं है कि सब लोग केंद्रीय एजेंसियों से डर गए हैं या सब लालची हैं। कुछ तो पार्टी और नेतृत्व की भी कमी होगी! पिछले दो-तीन साल में दो बड़े राज्यों में कांग्रेस की सरकार गिर गई। इस पर भी पार्टी को विचार करना चाहिए था कि ऐसा क्यों हो रहा है। असल में पार्टी असली बीमारी को पहचानने के बारे में गंभीर नहीं है। वह किसी तरह से समय काट रही है और इंतजार कर रही है कि उसका समय आएगा। लेकिन अब राजनीति बहुत बदल गई है। अब अपने आप समय नहीं आएगा। इसलिए कांग्रेस को सत्ता का इंतजार छोड़ कर विपक्ष की भूमिका मजबूती से निभानी होगी। वह मजबूत विपक्ष बनेगी, तभी सत्ता की संभावना जगेगी।

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