क्षेत्रीय पार्टियों से ही भाजपा को चुनौती
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के उदयपुर के नव संकल्प शिविर के समापन भाषण में करीब 99 फीसदी बातें वहीं कहीं, जो वे पिछले आठ साल से कह रहे हैं। भाजपा समाज को बांटती है, जबकि कांग्रेस जोड़ती है और भाजपा चंद उद्योगपतियों के लिए काम करती है, जबकि कांग्रेस सबके लिए काम करती है, यह उनके भाषण की थीम थी। ये बातें वे सालों से कर रहे हैं। ‘मैं किसी से नहीं डरता हूं और मैंने किसी से एक रुपया नहीं लिया है’, यह बात वे कई बार कह चुके हैं। उन्होंने यह कबूल किया कि कांग्रेस का जनता से कनेक्शन टूट गया है, यह भी कोई नई बात नहीं है। वे हर चुनाव में कांग्रेस के हारने के बाद मीडिया के सामने आकर या ट्विट करके हार की जिम्मेदारी कबूल करते हैं तो वह असल में इसी बात का स्वीकार होता है कि कांग्रेस का कनेक्शन जनता से टूट गया है।
उनके करीब 35 मिनट के भाषण में कुल मिला कर एक लाइन नई थी कि क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा को नहीं हरा सकती हैं क्योंकि उनके पास कोई विचारधारा नहीं है। वे पहले भी कहते रहे हैं कि सिर्फ कांग्रेस ही भाजपा से लड़ सकती है। लेकिन इस बार उन्होंने क्षेत्रीय पार्टियों और उनकी विचारधारा का मुद्दा उठा दिया।
राहुल गांधी का यह बयान न सिर्फ राजनीतिक रूप से गलत है, बल्कि तथ्यात्मक रूप से भी गलत और भ्रामक है। मौजूदा समय की हकीकत है कि एकाध अपवाद को छोड़ कर कांग्रेस कहीं भी अकेले भाजपा से नहीं लड़ रही है। वह खुद ही कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों पर आश्रित है और उन्हीं की ताकत के सहारे लड़ रही है। दूसरी ओर क्षेत्रीय पार्टियां अपने दम पर भाजपा से लड़ सकती हैं और लड़ रही हैं कांग्रेस पार्टी इसलिए भाजपा से नहीं लड़ पा रही है क्योंकि उसके पास न संगठन की ताकत बची है और न विचारधारात्मक ताकत है। तीन दिन के नव संकल्प शिविर में भी कांग्रेस की विचारधारात्मक स्पष्टता नहीं दिखी।
पार्टी ने भाजपा की राजनीति को विभाजनकारी बताया लेकिन इस पर हमला दो टूक नहीं था। भाजपा हिंदुत्व की राजनीति का इस्तेमाल कर रही है यह कांग्रेस ने नहीं कहा। पार्टी ने यह भी नहीं कहा कि वह हिंदुत्व की इस राजनीति के बरक्स कौन सी राजनीति करेगी? उसके पास क्या वैकल्पिक विचार है, यह स्पष्ट नहीं किया गया। भाजपा की तरह कांग्रेस भी हिंदुत्व या नरम हिंदुत्व के रास्ते पर चल रही है। उसका रास्ता क्या यही रहेगा, यह स्पष्ट नहीं किया गया? सो, वैचारिक अस्पष्टता किसी भी क्षेत्रीय पार्टी से ज्यादा कांग्रेस में है। यहीं कारण है कि क्षेत्रीय पार्टियों में टूट-फूट नहीं हो रही है, जबकि कांग्रेस पार्टी के नेता पलक झपकने में जितना समय लगता है उतने समय में पार्टी बदल देते हैं। यह कांग्रेस के वैचारिक पतन की पराकाष्ठा है, जो इतनी बड़ी संख्या में उसके नेता पार्टी छोड़ रहे हैं।
अब रही बात जीतने-हारने की तो उसकी हकीकत समझने के लिए किसी बड़ी बौद्धिक कवायद की जरूरत नहीं है। पिछले आठ साल में क्षेत्रीय पार्टियों ने ही जगह जगह भाजपा का विजय रथ रोका है। क्षेत्रीय या गैर कांग्रेसी पार्टियों से ही लड़ने में भाजपा को मुश्किल हो रही है। राहुल गांधी हर जगह बिना मतलब यह बताते रहते हैं कि वे साहसी हैं और भाजपा से नहीं डरते हैं। यह कहे बगैर ही अनेक राज्यों के प्रादेशिक क्षत्रप भाजपा से लड़ रहे हैं। वे अपने साहस का डंका नहीं बजा रहे हैं। वे केंद्रीय एजेंसियों की मार भी झेल रहे हैं। इसके बावजूद भाजपा से लड़ रहे हैं और उसे हरा भी रहे हैं। उनकी और कांग्रेस की हार-जीत का अनुपात निकालें तो तस्वीर अपने आप साफ हो जाएगी। भाजपा के नेता भी मानते हैं कि उनके लिए कांग्रेस से लड़ना और उसे हराना बहुत आसान है। भाजपा बार बार कांग्रेस को हरा रही है और उसके नेता सार्वजनिक रूप से कहते हैं कि उनके असली प्रचारक राहुल गांधी हैं। यह बात वे प्रादेशिक नेताओं के बारे में नहीं कहते हैं। संभव है कि कांग्रेस की अखिल भारतीय मौजूदगी और पुराने इतिहास को देखते हुए भाजपा उसकी वापसी की संभावना से डरती हो और इसलिए राहुल को ज्यादा निशानी बनाती हो लेकिन हकीकत यह है कि अभी तक पिछले आठ साल में राहुल और उनकी कमान वाली कांग्रेस ने भाजपा को वास्तविक चुनौती नहीं दी है।
भाजपा के लिए वास्तविक चुनौती प्रादेशिक पार्टियां हैं। बिहार में 2015 में राजद और जदयू मिल गए तो दोनों ने भाजपा को बुरी तरह से हराया। ममता बनर्जी ने तो पश्चिम बंगाल में 2016 और 2021 में लगातार दो बार हराया। इसी तरह अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में लगातार दो चुनावों में भाजपा को बुरी तरह से हराया। झारखंड में हेमंत सोरेन ने भाजपा को निर्णायक रूप से हराया। बिहार और झारखंड में कांग्रेस भी गठबंधन सहयोगी थी, जिसका फायदा उसे मिला। तमिलनाडु में डीएमके ने अन्ना डीएमके से गठबंधन करके भाजपा के लड़ने की रणनीति को बुरी तरह से विफल किया। केरल में वाम मोर्चे ने भाजपा को रोका है तो ओडिसा और आंध्र प्रदेश में भी दो क्षेत्रीय पार्टियों ने भाजपा के विजय रथ को रोक रखा है। तेलंगाना में भी भाजपा को रोकना है तो यह काम कांग्रेस नहीं करेगी, बल्कि टीआरएस करेगी। महाराष्ट्र में भाजपा की पुरानी सहयोगी शिव सेना ने पहल करके भाजपा को सरकार बनाने से रोका।
प्रादेशिक पार्टियों के इस प्रदर्शन के बरक्स कांग्रेस का प्रदर्शन देखें तो तस्वीर बिल्कुल साफ हो जाती है। जहां भी कांग्रेस का सीधा मुकाबला था या भाजपा को रोकने की जिम्मेदारी कांग्रेस की थी वहां वह लगभग पूरी तरह से असफल रही। समूचा पूर्वोत्तर किसी क्षेत्रीय पार्टी की वजह से भाजपा के नियंत्रण में नहीं गया है, बल्कि वह कांग्रेस की विफलता थी कि वहां आधा दर्जन राज्यों में भाजपा की या उसके समर्थन वाली सरकार बनी है। कर्नाटक में जेडीएस टूटने के कारण कांग्रेस और जेडीएस की साझा सरकार नहीं गिरी थी, बल्कि कांग्रेस की कमजोरी और उसके टूटने की वजह से सरकार गिरी थी। मध्य प्रदेश में लोगों ने कांग्रेस को जीत दिलाई थी लेकिन कांग्रेस की कमजोरी से वहां भी सरकार गिर गई। सिर्फ दो राज्यों में इस समय कांग्रेस की सरकार है और वह भी पार्टी की किसी विचारधारा या केंद्रीय नेतृत्व की वजह से नहीं है, बल्कि पार्टी के दो कद्दावर प्रादेशिक क्षत्रपों की वजह से है। लोकसभा चुनाव में भी भाजपा का जहां कांग्रेस से मुकाबला है वहां उसका रिजल्ट सौ फीसदी के करीब है। दो-तीन राज्यों को छोड़ दें तो ज्यादातर राज्यों में लोकसभा चुनाव में भी प्रादेशिक क्षत्रपों ने ही भाजपा को चुनौती दी है और उसे रोका है।
कांग्रेस इस हकीकत को नजरअंदाज कर रही है कि ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों के पास लंबा राजनीतिक इतिहास है और वे किसी न किसी आंदोलन से निकली हैं। अलग झारखंड राज्य के आंदोलन से झारखंड मुक्ति मोर्चा का जन्म हुआ तो मंडल की राजनीति से राजद, सपा आदि पार्टियों का उदय हुआ। लंबे द्रविड आंदोलन की पैदाइश डीएमके है तो अलग राज्य के आंदोलन से तेलंगाना राष्ट्र समिति का उदय हुआ। साढ़े तीन दशक के लेफ्ट शासन के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस बनी है। इन पार्टियों के पास अपना इतिहास है, अपनी विचारधारा है, अपने लोगों के लिए काम करने का एजेंडा है और सबसे ऊपर इनके पास संगठन और कैडर की ताकत है। इनके बरक्स कांग्रेस के पास इतिहास छोड़ कर और कुछ नहीं बचा दिख रहा है।