उदयपुर से क्या कांग्रेस का टेक आफ होगा?

बातों के दिन गए! कम से कम देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लिए तो गए। सत्ता पक्ष भाजपा के दिन कब तक चलेंगे, यह समय बताएगा। पड़ोसी श्रीलंका की सरकार और वहां के प्रधानमंत्री का हाल देखकर लग रहा है कि नफरत और झूठ की राजनीति करके अपनी आर्थिक स्थिति छुपाने का काम ज्यादा दिन नहीं चलॉ सकता। एक न एक दिन झूठ और जुमलेबाजी का भांडा फूटता है और वह श्रीलंका कॉ तरह चौराहों पर भागता, बचता फिरता है।

खैर यहां श्रीलंका की स्थिति विषय नहीं है। न भाजपा की केन्द्र सरकार। वह तो बस प्रसंग बातों का था तो याद आ गया। आज का विषय कांग्रेस ही है। जिसका खत्म होना या कमजोर होना खुद भाजपा भी नहीं चाह रही। जो उससे लगातार 70 साल से लड़ रही है। अपनी स्थापना 1951 से। उसमें जो पढ़े लिखे लोग हैं, थोड़ा दूर तक देख सकने वाले वे जानते हैं कि हिन्दुस्तान में एक दलीय या एक दक्षिणपंथी पार्टी का शासन लंबे समय तक नहीं चल सकता। पड़ोस के श्रीलंका ने दिखा दिया। एक या कई दूसरी पार्टियों के लिए जगह हमेशा रहेगी। उसमें अगर कांग्रेस जैसी मध्यमार्गी पार्टी नहीं होगी तो दूसरी उनसे भी ज्यादा घोर प्रतिगामी पार्टी या अति लेफ्ट पार्टी के लिए जगह खुल जाएगी। खुद उनकी कार्बन कापी आम आदमी पार्टी के अवसर भी बढ़ जाएंगे। इसलिए अभी हिन्दुस्तान और शासन को समझने वाले केन्द्रीय मंत्री हरदीप पुरी ने कहा कि भाजपा नहीं चाहती कि कांग्रेस खत्म हो या कमजोर हो।

मगर रकीबों (दुश्मनों, प्रतिस्पर्धियों) की दुआओं से क्या होता है? जब बंदा खुद ही अपने आपको मिटाने की तैयारी कर रहा हो। कांग्रेस की हालत ऐसी ही है। दुआओं और झाड़ फूंक से उस पर असर होता नहीं दिख रहा। वह सर्जरी से डर रही है। अभी दो दिन बाद शुक्रवार 13 मई से ही उसे अपने इलाज की तैयारी करना शुरू करना है। उदयपुर में खूब प्रचार वाला शिविर लगा है। मगर वहां जाने से पहले कांग्रेस अभी खुद को बातों से ही बहला रही है। पार्टी की सबसे ताकतवर और नीति निर्धारक इकाई कांग्रेस वर्किंग कमेटी ( सीडब्ल्यूसी) की मीटिंग में एक बार फिर बागियों से, असंतुष्टों से, काम न करने वालों से अपीलें, प्रार्थनाएं की गईं।

पता नहीं क्यों कांग्रेस के नेतृत्व की समझ में यह नहीं आ रहा है कि वैसे तो विपक्ष के 8 साल मगर कांग्रेसियों के अंदरखाने धोखों को देखा जाए तो 2011 से जब यूपीए की सरकार थी तब से कुछ लोग खुद को पार्टी से बड़ा और पार्टी को चलाने, संवारने वाले मानने लगे थे। कुछ मीडिया, कुछ उनके आसपास लगे रहने वालों और कुछ भाजपा के काबिल नेताओं ने उनकी इस खुशफहमी को खूब बढ़ाया कि वे ही पार्टी के कर्णधार हैं। सोनिया गांधी उनके बिना कुछ नहीं हैं। सोनिया को बनाने वाले वे ही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि यूपीए के दस साल कुछ लोग सोनिया को घेरे रहे। उनसे अपने लोगों के हितों में निर्णय करवाते रहे। खुद को मजबूत करते रहे। पार्टी कितनी कमजोर, खोखली होती जा रही है इस और न खुद ध्यान दिया और न ही सोनिया को देने दिया।

उस समय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने कहा था कि सत्ता के दो केन्द्र होने से पार्टी को बहुत नुकसान हो रहा है। सत्ता का एक ही केन्द्र होना चाहिए। राहुल गांधी को आगे आकर कमान संभालना चाहिए। पार्टी और सरकार दोनों की। लेकिन उस समय किसी ने उनकी नहीं सुनी। उस समय कांग्रेस में एक फैशन चल रहा था कि जो दिग्विजय कहें उसका खंडन करो और अधिकृत रूप से कहो कि पार्टी उनकी बात से सहमत नहीं है। पार्टी ने उन्हें बात करने से मना किया है। वे पार्टी के निर्देशों की अवहेलना कर रहे हैं जबकि दिगिवजय पार्टी के महासचिव थे।

ये वही समय था जब अन्ना हजारे को दिल्ली ले आया गया था। और कांग्रेस की केन्द्र सरकार, दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार उनसे निपटने में पूरी तरह असमर्थ हो गई थी। कांग्रेस मुख्यालय में आकर लोग जूते चप्पल फेंक रहे थे। किसी छोटे, मोटे नेता पर नहीं। भारत के गृह मंत्री चिदम्बरम पर। संगठन के महासचिवों और दूसरे बड़े नेताओं पर। शरद पवार जैसे वरिष्ठ और शक्तिशाली भी माने जाने वाले नेता, मंत्री के गाल पर चांटा मारा जा रहा था। और अन्ना हजारे खुश होकर कह रहे थे कि केवल एक ही गाल में क्यों? दूसरे में क्यों नहीं? चिदम्बरम पर जूता फेंकने वाले को केजरीवाल अपनी पार्टी का टिकट देकर विधायक बना रहे थे।

ऐसे समय में कांग्रेस के धुरंधर आपस में इस बात को लेकर विवाद कर रहे थे कि फलाने ने अन्ना के नाम के साथ जी नहीं लगाया। और अन्ना हजारे जी का सम्मान हमारे यहां कम हो रहा है। उस वक्त दिग्विजय सिंह ने कहा था कि अन्ना संघ के आदमी हैं। लेकिन कांग्रेसियों में तो उन्हें दूसरा गांधी बताने की होड़ लगी थी। परिणाम सामने हैं। अन्ना ने पहले दिल्ली की और फिर केन्द्र की सरकार बदलवाई और गायब हो गए। आज वे कहां हैं , किसी को नहीं पता। मगर तब से कांग्रेसी नेतृत्व तेजविहीन, शिथिल पड़ा हुआ है।

अब सोनिया गांधी ने उदयपुर जाने से पहले कहा कि कर्ज चुकाने का समय आ गया। लेकिन क्या इस तरह की सामान्य, औपचारिक अपीलें, सलाह कांग्रेसियों पर असर करेंगी? यह आवाज किसी को सुनाई देगी?

सोनिया जी को समझना चाहिए कि शब्दों के दिन गए। जो सोए हैं वे आवाज सुनकर उठ सकते हैं। मगर जो सोने का नाटक कर रहे हैं उन्हें नगाड़ों की आवाजें भी नहीं उठा सकतीं। कर्ज की तो बात तो अच्छी कही। मगर यह शरीफों के बीच की बात है। कांग्रेसियों के कहां समझ में आएगी!

कांग्रेस के लिए अब सख्त कदम उटाने के दिन हैं।

“जो घर फुंके आपना चले हमारे साथ “

कबीर के इस ओरिजनल दोहे को कहने का वक्त है। वह नहीं कि जो सुविधाजीवियों, समझौतावादियों ने बना लिया है कि “ न काहू से दोस्ती न काहू से बैर! “ गोल मोल भाषा के दिन गए। कांग्रेसियों की चमड़ी मोटी हो गई है। लगातार सत्ता ने उन्हें भारी अहंकारी, आत्ममुग्ध बना दिया है। वे सिर्फ अपनी शानो शौकत, बुद्धि ( जो केवल उन्हीं के काम में आती है) का प्रदर्शन और मुझे क्या मिला कि शिकायतों के साथ घूम रहे हैं। कांग्रेस के कमजोर होने, सिमटने से उन्हें कोई मतलब नहीं। मगर क्या भाजपा चाहती है, मीडिया चाहता है, न्यायपालिका, दूसरे इंस्टिट्यूशन चाहते हैं कि कांग्रेस खत्म हो जाए, कमजोर हो जाए? नहीं।

केवल कुछ कांग्रेसी चाहते हैं। कांग्रेस को उन्हें बाहर करना होगा। उन्हें सब पहचानते हैं। इसमें समय खर्च करने की जरूरत नहीं।

भाजपा को आज क्या किसी नेता की जरूरत है? भाजपा का उदाहरण इसलिए कि यॉ कांग्रेसी आजकल उसी से बहुत प्रभावित हैं। तो जिस भाजपा का यह रात दिन गुणगान करते हैं उसमें है कोई मोदी और अमित शाह के अलावा? वाजपेयी के साथ आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, सुषमा स्वराज, अरुण शौरी थे। जावेड़कर, रविशंकर प्रसाद जैसे लोग भी थे। आज कहां हैं। और सच पूछो तो जरूरत भी क्या है?

कांग्रेस उन नेताओं से कम प्रतिबद्ध, पार्टी के प्रति कम समर्पित लोगों को ढो रही है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया ने उदयपुर के नव संकल्प शिविर के लिए कहा कि यह रिचुअल ( कर्मकांड, दिखावा, रस्म अदायगी) नहीं है। अगर नहीं है तो बातों से नहीं, शब्दों से नहीं, एक्शन से करके दिखाना होगा। और यह बताना होगा कि कौन करेगा? राहुल या कोई और!

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