आठ साल बाद की चुनौतियां

उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद यह मानने वालों की संख्या बढ़ी है कि 2024 का चुनाव ‘डन डील’ है। वैसे बौद्धिक लोग भी उम्मीद छोड़ चुके हैं, जो लगातार दो बार के शासन के बाद एंटी इन्कम्बैंसी के हवाले 2024 में बदलाव की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? क्या सचमुच 2024 का चुनाव ‘डन डील’ है? इस बारे में कोई भी भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी, जैसा कि चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर बार बार कह रहे हैं कि लोकसभा का चुनाव राज्यों के चुनाव से अलग होगा। वह देश का चुनाव होगा और अलग तरह से लड़ा जाएगा। इसलिए चुनावी भविष्यवाणी या नतीजों की अटकलबाजी में अभी से उलझने की जरूरत नहीं है। वैसे भी लोकसभा चुनाव से पहले 10 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और उनके नतीजों से भी आम चुनाव का माहौल बनेगा।

उससे पहले मोदी सरकार के आठ साल पूरे करने के मौके पर दो बातों पर विचार जरूरी है। पहली बात तो यह है कि मोदी की ताकत क्या है, जिससे वे लंबे समय तक सत्ता में टिके रहते हैं और अपने विरोधियों को पस्त करते हैं? दूसरी बात यह है कि आठ साल के राज के बाद उनके सामने क्या चुनौतियां हैं? जब हम चुनौतियों को बात करते हैं तो वह सिर्फ राजनीतिक विरोधियों की तरफ से पेश आने वाली चुनौतियां नहीं हैं। कुछ चुनौतियां ऐसी हैं, जो पिछले आठ साल में सरकार द्वारा किए गए या समय पर नहीं किए गए फैसलों की वजह से पैदा हुई हैं। कुछ चुनौतियां ऐसी हैं, जो वैश्विक हालात की वजह से पैदा हुई हैं और कुछ चुनौतियां देश में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सरकार या सत्तारूढ़ दल की मदद से बनाई जा रही परिस्थितियों की वजह से पैदा हुई हैं। अभी भले ऐसा लग रहा हो कि ये जो परिस्थितियां पैदा हुई हैं या की गई हैं वे अनुकूल हैं लेकिन अंततः उनसे नुकसान होना है।

अगर नरेंद्र मोदी के लंबे समय तक सत्ता में टिके रहने के नुस्खे या उनकी ताकत की बात करें तो दो चीजें प्रत्यक्ष रूप से उभर कर सामने आती हैं। पहली चीज है उनकी ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवि। यह छवि उनके गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले से गढ़ी जाने लगी थी। अब इसका चरमोत्कर्ष आ गया है। अब वे हर तरह के आरोप-प्रत्यारोप से मुक्त हो चुके हैं। किसी तरह का आरोप उनके ऊपर नहीं चिपकता है। यह करिश्मा है कि अपनी ही सरकार के गलत फैसलों से होने वाले नकारात्मक प्रभाव से भी वे अछूते रहते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि बुरा हो रहा होता है तब भी वे खुद और उनकी पार्टी बताती है कि सब अच्छा हो रहा है। जैसे अभी उन्होंने कहा कि आठ साल में कोई ऐसा काम नहीं किया, जिससे देश को शर्मिंदा होना पड़े। उनके इस तरह के भाषण नैरेटिव निर्माण के सबसे पावरफुल टूल्स हैं। तभी लोग जब तपती धूप में हजारों किलोमीटर पैदल चल कर जा रहे थे या ऑक्सीजन की कमी से मर रहे थे या महंगाई और बेरोजगारी झेल रहे हैं तब भी कह रहे हैं कि मोदी अकेले क्या कर सकते हैं?

उनकी दूसरी ताकत निरंतर बदलाव करने में है। अपनी सख्त और नहीं झुकने वाली छवि के बावजूद वे बेहद लचीले हैं। ऐसे अनेक फैसलों की मिसाल दी जा सकती है, जो उन्होंने बदले हैं। उन्होंने उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदला और लगा कि यह फैसला सही नहीं है तो चार महीने में उस मुख्यमंत्री को बदल दिया। गुजरात से लेकर त्रिपुरा तक मुख्यमंत्रियों का बदला जाना भी इसकी मिसाल है। भूमि अधिग्रहण बिल का विरोध हुआ तो उन्होंने बिल वापस लेने में देरी नहीं की। उसी तरह तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसानों ने आंदोलन किया तो एक साल बाद ही सही लेकिन उन्होंने तीनों कानून वापस ले लिए। इसी तरह उनके ऊपर धनपतियों की मदद का आरोप लगा तो उन्होंने कोरोना की आपदा को अवसर बना कर प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना शुरू कर दी। जरूरत के हिसाब से अपने नजरिए में बदलाव करना और फैसले बदलने में उनको हिचक नहीं होती है। यह गुण किसी भी नेता को मजबूत विपक्ष से लड़ने की ताकत देता है। यह अलग बात है कि भारत में विपक्ष मजबूत नहीं है। वह भी मोदी की एक ताकत है लेकिन उस पर अलग से विचार की जरूरत है।

जहां तक चुनौतियों की बात है तो मोदी सरकार उनसे चौतरफा घिरी है। सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक मोर्चे पर है। देश में इस समय अभूतपूर्व आर्थिक संकट है। महंगाई चरम पर है। बेरोजगारी कम नहीं हो रही है। गरीबों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। कोरोना की महामारी और सरकार की ओर से प्रोत्साहन की कमी से लघु व मझोले उद्योग का सेक्टर पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है। देश के 90 फीसदी कामगार या स्वरोजगार करने वाले जिस अनौपचारिक सेक्टर से जुड़े हैं वह पहले नोटबंदी की वजह से तबाह हुआ और बाद में कोरोना महामारी ने उसकी कमर तोड़ दी। सरकार निर्यात में बढ़ोतरी का दावा कर रही है लेकिन उसी अनुपात में आयात में भी बढ़ोतरी हुई है। बाजार की स्थिति कैसी है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सरकार अपनी मुनाफा कमाने वाली कंपनियां बाजार में लेकर बैठी है और खरीदार नहीं मिल रहे हैं। एलआईसी का आईपीओ लांच होने के बाद से लगातार गिर रहा है। कहने को सरकार अर्थव्यवस्था के फंडामेंटल्स के ठीक होने का दावा कर रही है, लेकिन वह ठीक नहीं है। तभी विकास दर की परवाह नहीं करके रिजर्व बैंक को ब्याज दरों में बढ़ोतरी करनी पड़ रही है। उधर रूस-यूक्रेन की लड़ाई नहीं थम रही है और अमेरिका में महंगाई ऐसे बढ़ रही है, जिससे दुनिया के फिर से मंदी की चपेट में आने का अंदेशा है। इसका बड़ा असर भारत की अर्थव्यवस्था पर होगा।

आर्थिक संकट के अलावा मोदी सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती घरेलू हालात की है। सरकार ने भाजपा और आरएसएस के एजेंडे को पूरा करने के लिए कुछ ऐसे फैसले किए, जिनसे घरेलू हालात बिगड़े। इसी तरह चुनावी राजनीति की वजह से धार्मिक और सामाजिक विभाजन बढ़ा है, जिसका असर अंततः हर चीज पर होना है। संवैधानिक संस्थाओं और मीडिया की आजादी को लेकर भी भारत सरकार कठघरे में है। इन सबसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की जो छवि बिगड़ी है उसे ठीक करना एक बड़ी चुनौती है। भारत की छवि कैसे बिगड़ी है, इसे कुछ आंकड़ों से समझ सकते हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव विकास सूचकांक में भारत एक स्थान नीचे खिसका है तो संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक खुशहाली रैंकिंग में भारत 19 स्थान नीचे गया है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत 46 स्थान गिर कर बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल आदि देशों से भी नीचे चला गया है। अमेरिकी संस्था की ओर से जारी होने वाले कैटो ह्यूमन फ्रीडम इंडेक्स में भारत 44 स्थान नीचे चला गया है तो दावोस के ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में 13 स्थान नीचे गिरा है। इसके अलावा दो वैश्विक संस्थाओं के डेमोक्रेसी इंडेक्स में भी भारत बहुत नीचे चला गया है। एक संस्था ने तो भारत को आंशिक रूप से आजाद देश बताया है। इसके अलावा क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स हो, सबसे अधिक प्रदूषित शहरों की संख्या हो, एयर क्वालिटी इंडेक्स हो या वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स हो सबमें भारत का स्थान नीचे हुआ है। भले देखने में ऐसा लग रहा हो कि इसका कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होना है लेकिन लंबे समय तक यह स्थिति रही तो उसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।

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