अमेरिका, यूरोप से लड़ने की जरूरत नहीं

भारतीय जनता पार्टी के नेता और समर्थक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कई गुणों में से एक गुण यह बताते हैं कि अब जाकर देश को बोलने वाला प्रधानमंत्री मिला है। उसी तरह भारत को बोलने वाला विदेश मंत्री भी मिल गया है। यह अलग बात है कि विदेश मंत्री को अंदाजा ही नहीं होता है कि कब और कहां क्या बोलना है। तभी वे कहीं भी कुछ भी बोलते हैं यहां तक कि सही बात भी गलत जगह पर और गलत समय पर बोलते हैं। कुछ संयोग भी ऐसा है कि वे बोलते हैं और उसका उलटा हो जाता है।

पिछले दिनों अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने दुनिया भर में धार्मिक आजादी पर सालाना रिपोर्ट जारी की, जिसमें भारत में अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थलों पर हमले को लेकर चिंता जताई गई थी। जवाब में विदेश मंत्रालय ने अमेरिका पर तीखी टिप्पणी की। वहां के ‘गन कल्चर’ पर सवाल उठाया और भारत को नसीहत न देने की सलाह दी।

विदेश मंत्रालय ने अमेरिका को एक तरह से लड़ने के अंदाज में जवाब दिया। इस जवाब के एक हफ्ते भी नहीं बीते थे कि पैगंबर मोहम्मद साहब के अपमान के मामले में सरकार घिर गई और अरब देशों से माफी मांगनी पड़ी। सोचें, अमेरिका ने नसीहत दी तो अपनी कमी स्वीकार करने या स्थितियों को ठीक करने का प्रयास करने की बजाय सरकार ने उससे लड़ना शुरू कर दिया और दूसरी ओर अरब देशों ने धमकाया तो सरकार घुटनों पर आ गई! यह कितना अपमानजनक है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता ने पैगंबर साहब का अपमान किया और माफी भारत सरकार मांग रही है! इसके बावजूद अरब देशों में रहने वाले भारतीयों की मुश्किलें कम नहीं हो रही हैं। क्या ऐसा नहीं होना चाहिए था कि अमेरिकी रिपोर्ट और अरब देशों की नाराजगी को भारत वस्तुनिष्ठ व संतुलित तरीके से संभालता? लेकिन यह काम किसी सरकारी बाबू के बस का नहीं है।

इसी तरह जयशंकर चार जून को स्लोवाकिया के दौरे पर गए तो ब्रातिस्लावा में एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने यूरोपीय देशों के लिए उलटा-सीधा बोल दिया। इसकी भी कोई जरूरत नहीं थी। न तो इसका मौका था और न इसकी जरूरत थी। लेकिन जयशंकर ने बिना मतलब का साहस दिखाते हुए कहा कि ‘यूरोप इस मानसिकता से बाहर निकले कि उसकी समस्याएं पूरी दुनिया की समस्याएं हैं लेकिन दुनिया की समस्या यूरोप की समस्या नहीं है’। विदेश मंत्री ने यह बात रूस और यूक्रेन के युद्ध के संदर्भ में कही, जिसमें अमेरिका और यूरोप के देश चाहते हैं कि भारत स्पष्ट स्टैंड ले और रूस का विरोध करे।

ऐसा लग रहा है कि विदेश मंत्री को एक अनुप्रास अलंकार से युक्त वाक्य बोलना था सो उन्होंने बोल दिया। इसके पीछे कोई तार्किक आधार नहीं है। क्या जयशंकर दुनिया को बता सकते हैं कि दुनिया की कौन सी समस्या है, जिसे यूरोप के देश अपनी समस्या मान कर उसे सुलझाने के उपाय नहीं करते हैं? आज दुनिया इस्लामिक आतंकवाद से जूझ रही है तो क्या यूरोप के देश उसे रोकने के उपाय नहीं कर रहे हैं? तालिबान से लड़ने यूरोप के देश नहीं तो क्या भारत गया था? श्रीलंका में तमिलों के नरसंहार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र संघ में क्या यूरोप के देश खड़े नहीं हुए? जहां तमिलों के समर्थन में भारत खड़ा नहीं हुआ वहां अमेरिका और यूरोपीय देश खड़े हुए। क्या जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के उपायों में यूरोप के देश पीछे हैं? क्या चीन की विस्तारवादी नीतियों का विरोध यूरोप के देश नहीं कर रहे हैं? रूस के बर्बर हमले के खिलाफ क्या यूरोपीय देश यूक्रेन की मदद नहीं कर रहे हैं? यूरोपीय देशों की गैस और तेल की ज्यादातर आपूर्ति रूस से होती है, जिसका जोखिम उठा कर उन्होंने रूस का विरोध किया। सो, कौन सी ऐसी वैश्विक समस्या है, जिसकी ओर विदेश मंत्री इशारा कर रहे थे?

यूरोप को आंख दिखाते हुए विदेश मंत्री ने यह भी कहा कि ‘भारत के चीन के साथ रिश्ते असहज हैं लेकिन हमें इसको मैनेज करना आता है’। सोचें, चीन के साथ असहज रिश्ते का क्या मतलब है और भारत सरकार कैसे इसे मैनेज कर रही है? असहज रिश्ते को क्या कारोबार बढ़ा कर भारत मैनेज कर रहा है? पिछले वित्त वर्ष में पहली बार भारत और चीन का कारोबार 125 अरब डॉलर से ऊपर पहुंचा। इसमें चीन ने भारत को 97 अरब डॉलर का सामान बेचा है और भारत ने महज 28 अरब डॉलर का सामान उसको बेचा है। यानी सीधे तौर पर 69 अरब डॉलर का व्यापार घाटा भारत को है।

यह स्थिति तब है, जब चीन भारत की हजारों वर्गमील जमीन कब्जा करके बैठा है और रणनीतिक जगहों पर पुल और सड़कें बना कर भारत को घेर रहा है। पूर्वी लद्दाख में उसने मई 2020 की जमीनी स्थिति को बदल दिया है। पैंगोंग झील के पास अब वह दूसरा पुल बना रहा है। उधर अरुणाचल प्रदेश में भारत की संप्रभुता का उल्लंघन करते हुए अंदरूनी इलाकों के तिब्बती नाम रख रहा है। और भारत के विदेश मंत्री कह रहे हैं कि भारत के चीन के साथ रिश्ते असहज हैं और भारत को इसे मैनेज करना आता है!

असल में चीन के साथ भारत के रिश्ते असहज नहीं हैं, बल्कि बहुत खराब हैं लेकिन भारत इस तरह चीन की आर्थिक गुलामी में फंसा है कि विदेश मंत्री खराब रिश्ते को असहज बता कर काम चला रहे हैं और उसके सामने सरेंडर करने को मैनेज करना कह रहे हैं। विदेश मंत्री को ध्यान रखना चाहिए कि अगर दुनिया का मीडिया रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत-चीन के संभावित युद्ध के सूत्र तलाश रहा है तो गलत नहीं कर रहा है। जयशंकर से इसी बारे में सवाल पूछा गया था। ब्रातिस्लावा में उनसे पूछा गया था कि यूरोप चाहता है कि यूक्रेन पर रूसी हमले को लेकर रूस के खिलाफ भारत सख्त स्टैंड ले क्योंकि भविष्य में कभी भारत को इसी तरह चीन के हमले का सामना करना पड़ सकता है और तब अगर यूरोप या दूसरे देश भारत की मदद के लिए नहीं आए तो क्या होगा? इसके जवाब में ही विदेश मंत्री का अंदाज ऐसा था कि यूरोप अपना देखे हम चीन के साथ असहज रिश्ते मैनेज कर लेंगे।

सोचें, यह कैसा कैजुअल और चलताऊ अंदाज है? क्या भारत जैसे देश का विदेश मंत्री वैश्विक मामलों में इस तरह की टिप्पणी कर सकता है? वह भी उन देशों के बारे में, जिनसे गहरे आर्थिक व सामरिक रिश्ते हैं? चाहे अमेरिका की धार्मिक आजादी वाली रिपोर्ट पर भारतीय विदेश मंत्रालय की टिप्पणी हो या यूरोपीय देशों के बारे में विदेश मंत्री की कही गई बात हो, दोनों बातें कूटनीति के बिल्कुल असंगत बैठती हैं। पता नहीं तीन दशक से ज्यादा समय तक विदेश सेवा में रहने के बावजूद विदेश मंत्री क्यों इस बात को नहीं समझ रहे हैं कि कूटनीति की जाती है, कही नहीं जाती है और बहुत ज्यादा बोलना कभी भी कूटनीति का हिस्सा नहीं होता है।

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