अंधा वक्त, कांग्रेस में भी!

लोग हैरान हैं कि सोनिया, प्रियंका, राहुल को क्या हुआ? ये समझ क्यों नहीं रहे? पर यही बात क्या विपक्ष की हर पार्टी पर लागू नहीं है? क्या लोगों पर लागू नहीं है? देश और लोग कहां समझ रहे हैं, जो देश की पार्टियां, विपक्षी नेता और कांग्रेस या पीके समझें? हर किसी की आंख पर पट्टी बंधी है। इस देश की कुंडली, ग्रह-नक्षत्रों की चाल में फिलहाल कुछ न कुछ ऐसा है, जिससे टाइमपास से सब कुछ रसातल में जाता हुआ है। बावजूद इसके न बचाव की चिंता है और न कहीं समझ है। कांग्रेस के जी-23 के नेताओं, पार्टी मुख्यालय, कार्य समिति के सदस्यों, सोनिया-राहुल-प्रियंका पर सोचें। या शरद पवार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल से लेकर चंद्रशेखर राव, अखिलेश यादव, लालू-तेजस्वी व मायावती आदि किसी पर भी। ये अभी तक मानने-समझने को तैयार नहीं हैं कि वे सभी चुनाव राजनीति में आउटडेटेट हैं। इनमें वह स्पार्क नहीं है, जिससे बहुसंख्यक मतदाताओं में चर्चा भी बने सकें कि ये अच्छे लोग है। ये भी देश की जरूरत है। इनके प्रति लोगों की दिवानगी या पुरानी साख का बना रहना तो दूर की बात है आज विपक्ष के चेहरों की पॉजिटिविटी की चर्चा, उसकी एक पोस्ट भी नहीं दिखेगी। लाखों-करोड़ों रोजाना के मैसेजेज, पोस्ट, लेख-खबर में विपक्ष मानों खलास। राहुल गांधी या रघुराम राजन या विपक्षी सीएम व मंत्री ने क्या कहा, उनका कितना अच्छा बजट है या कैसा काम है इसकी कुछ खबरे भले मिल जाएं, लेकिन सुबह से शाम तक नौजवान, मध्य वर्ग, मतदाताओं के जो करोड़ों पोस्ट पढ़ते, देखते, सुनते हैं उनमें एक पोस्ट भी इस चर्चा की मिलेगी कि उद्धव ठाकरे ज्यादा अच्छे हिंदू हैं। राहुल गांधी, अखिलेश ज्यादा देशभक्त, सख्त प्रशासक हैं बनिस्पत नरेंद्र मोदी या योगी के!

मतलब लोग क्या सुनना पसंद करते हैं, दिमाग में क्या आग्रह बना बैठे हैं, वे वोट डालने से ठीक पहले (खासकर उत्तर भारत से विंध्य तक) दिमाग में क्या लिए हुए होते हैं, इसे विपक्ष, सोनिया, राहुल, दिग्विजय सिंह, एआईसीसी के नेता बूझने में समर्थ ही नहीं हैं। ये सब दिमाग में तीन ख्याल बनाए हुए हैं। एक, हमारा भी वक्त आएगा। दो, इससे ज्यादा सीटें और कितनी कम होंगी? मतलब कांग्रेस के यदि अभी 52 सांसद हैं तो 2024 में 60 हो जाएंगे। और तीन, लोग महंगाई, बेरोजगारी जैसी मुश्किलों के कारण अपने आप हिंदू-मुस्लिम के फितूर से बाहर निकलेंगे! जब पूरी बरबादी होगी तो कांग्रेस अपने आप स्वीकार्य होगी।

यह भाग्यवादी एप्रोच है। जबकि सत्ता और राजनीति का खेल मेहनत, धूर्तता, नीचता, झूठ, संसाधनों और लोगों को बांटने-बंटवाने, लड़ने-लड़वाने, नफरत, पागलपन पर है। दुनिया में कई जगह इक्कीसवीं सदी यह प्रमाणित करते हुए है कि राजनीति-सत्ता का आधुनिक ओलंपिक अब कुटिल दिमाग, नीच व्यवहार, बांटने-बंटवाने की शासन व्यवस्था के दमखम पर है। इसी सप्ताह ही दुनिया के सुधी लोग यह देख हैरान हुए हैं कि फ्रांस के ताजा चुनाव में पुश्तैनी रिपब्लिन व समाजवादी पार्टी को दो-पांच प्रतिशत वोट भी नहीं मिले। जबकि पांच साल पहले इन्हीं के राष्ट्रपति दशकों जीतते-हारते आए हैं। फ्रांस जैसे देश में भी आमने-सामने के दोनों उम्मीदवार जनता में असुरक्षा की बहस बनवाए हुए थे। मुसलमान का मुद्दा था तो रूस से खतरे का भी मुद्दा। पुरानी पार्टियों के पुराने नेता समझ ही नहीं पाए कि लोगों के दिमाग में क्या चल रहा है।

बहरहाल, असल बात सोनिया गांधी, प्रियंका, राहुल का यह नहीं जानना नासमझी है कि एआईसीसी की पूरी कढ़ी बासी है। वह नौजवान वोटों, बहुसंख्यक वोटों के हर दिन के कम्युनिकेशन में जीरो उपस्थिति लिए हुए है। एआईसीसी के नेता, कांग्रेस के मुख्यमंत्री, चुनाव रणनीतिकार केजरीवाल की पंजाब जीत का मतलब भी समझ नहीं सके। पार्टी भीतर की फूट जैसी बातों पर अटकी हुई है। तभी सोनिया, राहुल, प्रियंका में दो टूक फैसले का निश्चय नहीं कि कांग्रेस जाए भाड़ में पहले 2024 के चुनाव के लिए प्रशांत किशोर को हायर करें।

क्या प्रशांत किशोर रामबाण दवा हैं? नहीं हैं। मैं इस पर आगे लिखूंगा। लेकिन इतना तो तय है कि अब लोगों के माइंड में चुनाव से पहले की भूमिका और मतदान से पहले परसेप्शन की लड़ाई व वोटों की असेंबली लाइन की फैक्टरी की गणित, उम्मीदवार, तालमेल आदि का जो नया सिस्टम मोदी राज में है उसे जानने-बूझने के समझदार व्यक्ति का नाम है प्रशांत किशोर। प्रशांत किशोर से कांग्रेस को यह फायदा संभव था कि बाकी विपक्षी पार्टियों से केमिस्ट्री बनती जाती। ले-देकर सन् 2024 के मुकाबले का साझा विपक्षी अखाड़ा बन सकना संभव होता।

लेकिन वक्त की महादशा जो सोनिया, प्रियंका, राहुल सोच नहीं पाए कि वक्त बदला हुआ है तो नई वैक्सीन, नए तरीकों से लोगों का माइंड बदलना पड़ेगा। अपनी पुरानी नीम-हकीम एआईसीसी और उसकी कमेटियों के बस में चुनाव लड़ना नहीं है।

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