युवाओं को आत्महत्या से रोकना होगा
गीता यादव, वरिष्ठ पत्रकार
बीते कुछ सालों में आत्महत्या के मामलों में इजाफा हुआ है। खासकर छात्रों में आत्महत्या के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। कॅरियर की चिंता, नौकरी पाने का दबाव, मां-बाप की उम्मीदें बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल रही हैं, जिसे समय रहते रोकना होगा।
देशभर में कोचिंग हब के रूप में विख्यात कोटा में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी को लेकर अत्यधिक मानसिक दबाव के कारण जब-तब विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं सामने आती रहती हैं, लेकिन अब आईआईटी जैसे देश के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरिंग संस्थानों और कुछ अन्य प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थानों में भी छात्रों की आत्महत्या के मामले सामने आ रहे हैं। मनोविज्ञानियों और अभिभावकों के लिए यह गंभीर चिंतन का विषय बना हुआ है कि बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति निरंतर बढ़ रही है। इसका प्रमुख कारण बच्चों में मानसिक एवं संवेगात्मक व्याकुलता का बढ़ना है।
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, हमारे देश में सालाना करीब 13,000 छात्र मौत को गले लगा रहे हैं। इनमें महाराष्ट्र भी पीछे नहीं है। राज्यसभा में दी गई एक जानकारी के अनुसार, 2018 से 2023 के बीच पांच वर्षों की अवधि में आईआईटी, एनआईटी, आईआईएम, जैसे देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में ही 61 छात्रों ने आत्महत्या की, जिनमें 33 छात्र आईआईटी के थे। देश के युवा वर्ग और खासकर 18 वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों में आत्महत्या की बढ़ती यह प्रवृत्ति बेहद चिंताजनक है। शिक्षा और कॅरियर में गलाकाट प्रतिस्पर्धा और माता-पिता और शिक्षकों की बढ़ती अपेक्षाओं के चलते छात्रों पर अनावश्यक दबाव इसका कारण है। अनेक अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि परीक्षाएं नजदीक आने के साथ ही छात्रों में चिंता और अवसाद बढ़ने लगता है।
आंकड़ों के अनुसार, जहां 2020 में देशभर में कुल 12,526 छात्रों ने आत्महत्या की, वहीं 2021 में यह आंकड़ा बढ़कर 13,089 हो गया। आत्महत्या करने वाले विद्यार्थियों में 56.54 फीसदी लड़के और 43.49 फीसदी लड़कियां थीं। अठारह से कम आयु के 10,732 किशोरों में से 864 ने तो परीक्षा में विफलता के कारण मौत को गले लगा लिया। आंकड़े बताते हैं कि कोटा में दस में से चार छात्र मानसिक रूप से बीमार हैं। साल 2020 में हुए सर्वे के अनुसार, हर दिन 34 बच्चे जान दे रहे हैं। यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। राजस्थान के कोटा शहर में बच्चे कॉम्पीटिशन की तैयारी के लिए पहुंचते हैं। हर साल यहां आत्महत्या के मामले सामने आते हैं। साल 2023 में अब तक 25 बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार, आत्महत्या के नब्बे फीसदी मामलों का कारण खराब मेंटल हेल्थ होती है। लंबे समय से चल रहा तनाव आत्महत्या का कारण बनता है। ऐसे में खराब मानसिक सेहत के लक्षणों को समय पर पहचानना जरूरी है। यदि किसी बच्चे को लंबे समय से कोई परेशानी या चिंता है तो ये तनाव का कारण बन जाता है। अगर ये परेशानी महीनों तक बनी रहे तो बच्चा तनाव के अंतिम चरण में चला जाता है। ऐसे में उसका स्वयं के प्रति प्रेम समाप्त हो जाता है। सोचने-समझने की क्षमता में कमी हो जाती है और बच्चे के दिमाग में आत्महत्या का ख्याल आ जाता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि बचपन में हुई कोई दर्दनाक घटना, ब्रेन में केमिकल अनबैलेंस, अपने मन के मुताबिक चीजों का न होना और लगातार किसी चिंता का बने रहना मेंटल हेल्थ को बिगाड़ देते हैं। अगर इन्हें समय रहते पहचान लिया गया तो आत्महत्या के मामलों को कम किया जा सकता है।
विशेषज्ञों के अनुसार सोशल मीडिया के जमाने मेंं बच्चे तेजी से बड़े हो रहे हैं। हार्मोनल बदलाव और कॅरियर की चिंता बच्चों को तनावग्रस्त कर रही है। मनोचिकित्सकों के अनुसार, अभिभावकों का रवैया बच्चों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति के लिए जिम्मेदार है। अभिभावक बच्चों से यह अपेक्षा करते हैं कि उन्होंने बच्चे को एक अच्छे कोचिंग संस्थान में प्रवेश दिला दिया है, अब उस बच्चे को इतनी मेहनत करनी चाहिए कि वो सफल हो जाए। कई माता-पिता तो बच्चे से यहां तक अपेक्षा कर लेते हैं कि वह एक बार में ही सफल हो जाए। कुछ अभिभावक बच्चे को कम अंक आने पर डांटते भी हैं और अपने द्वारा उठाई जा रही आर्थिक एवं अन्य परेशानियों का जिक्र भी डांटते समय करने से नहीं चूकते हैं।
अभिभावक यह भूल जाते हैं कि कोचिंग सेंटर में पढ़ने वाले सभी छात्र सफल नहीं हो सकते। उन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कमजोर नींव पर बहुमंजिला इमारत खड़ी करने का प्रयास बहुत खतरनाक होता है। कई अभिभावक तो अपने स्वयं के अरमानों की पूर्ति के लिए उस पर डॉक्टर या इंजीनियर बनने का इतना दबाव बना देते हैं कि बच्चे की स्वयं की इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं। मनोचिकित्सक मानते हैं कि अभिभावक बच्चों की तुलना अन्य बच्चों न करें, असफल होने पर बच्चों को प्रताड़ित न करें, खर्च किए जा रहे पैसों के संबंध में बच्चों को न बताएं। बच्चे पर अपनी रुचि न थोपें। संवादहीनता की स्थिति न बनने दें। अभिभावकों को यह भी ध्यान रखना होगा कि उनके बच्चे द्वारा अभी तक कितने प्रतिशत अंक प्राप्त किए गए हैं। उसी के अनुसार अभिभावकों को बच्चे से अपेक्षा करनी चाहिए।