जिसका जलवा कायम था…

मुलायम सिंह यादव का जलवा था। 28 साल की उम्र में विधायक बनने से लेकर 82 साल की उम्र में सांसद रहते गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में दम तोड़ने तक मुलायम सिंह का जलवा रहा। उन्होंने खूब राजनीति की और कई बड़ी पार्टियों के खिलाफ जम कर लड़े लेकिन कोई पार्टी ऐसी नहीं है, जिसके नेता उनके प्रति सद्भाव न रखते हों। नरेंद्र मोदी से बहुत पहले उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत की शुरुआत की थी। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश को कांग्रेस से मुक्त किया था मुलायम सिंह ने इसके बावजूद कांग्रेस के साथ उनका अपनापा कायम रहा। उन्होंने अयोध्या जा रहे कारसेवकों पर गोली चलवाई थी, जिसकी वजह से भाजपा उनको ‘मुल्ला मुलायम’ कहती रही पर जब वे बीमार हुए तो रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह उनको देखने अस्पताल में गए, जब निधन हुआ तो अमित शाह ने अस्पताल में जाकर उनको श्रद्धांजलि दी और खुद हिंदू हृदय सम्राट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आठ तस्वीरें साझा करके उनको लोकतंत्र का सिपाही बताते हुए बेहद भावभीनी श्रद्धांजलि दी। उनके मुख्यमंत्री रहते उनकी सहयोगी बसपा नेता मायावती के ऊपर हमला हुआ, जिसे देश गेस्ट हाउस कांड के नाम से जानता है फिर भी पिछला लोकसभा चुनाव मायावती उनकी पार्टी के साथ मिल कर लड़ीं।

मुलायम सिंह ऐसे नेता था, जो जिसके साथ लड़े, जिसके साथ प्रतिद्वंद्विता की, जिसको हराया, जिसे समाप्त किया उसके साथ भी जीवनपर्यंत संबंध बना कर रखा। उनकी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और निजी संबंध बिल्कुल अलग रहे। इस लिहाज से कह सकते हैं कि वे तमाम विरोधाभासों को साधने वाले नेता रहे। मंडल की राजनीति के साथ वे आगे बढ़े लेकिन अगड़ी जातियों के साथ कोई बैर नहीं पाला। उनके नजदीकी नेताओं में अमर सिंह भी थे तो जनेश्वर मिश्र भी थे और कुंवर रेवती रमण सिंह भी थे। वे जीवन भर समाजवादी राजनीति करते रहे और साथ ही सैफई में पांच सितारा आयोजन भी होते रहे, जहां फिल्मी सितारों का जमघट लगता था। वे देश के सबसे पिछड़े सूबे के अंतिम आदमी की बात करते थे, उसके सशक्तिकरण के लिए काम करते थे और साथ ही अमिताभ बच्चन और अनिल अंबानी से दोस्ती भी निभाते थे। वे खांटी समाजवादी थे लेकिन अपने परिवार और विस्तारित परिवार के हर सदस्य को राजनीति में स्थापित किया। इस लिहाज से उनका जीवन खुली किताब की तरह रहा। जैसा निजी जीवन वैसा ही सार्वजनिक आचरण! अगर किसी दूसरे नेता के साथ उनकी तुलना करें तो सबसे नजदीकी तुलना चंद्रशेखर के साथ बनती है। संयोग भी है कि दोनों बरसों एक साथ राजनीति करते रहे। परिवारवाद को छोड़ दें तो चंद्रशेखर और मुलायम सिंह में बड़ी समानता दिखेगी।

मुलायम सिंह की राजनीति 1967 में शुरू हो गई थी, जब वे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की टिकट पर 28 साल की उम्र में इटावा की जसवंतनगर सीट से विधायक बने थे। लेकिन राजनीति परवान तब चढ़ी जब वीपी सिंह ने कांग्रेस के खिलाफ बिगुल बजाया और बोफोर्स के मुद्दे पर 1989 का चुनाव हुआ। उसी चुनाव में जीतने के बाद मुलायम सिंह पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन उसके बाद हुई मंडल और कमंडल की राजनीति ने उनको सत्ता से बाहर कर दिया। एक तरफ जहां मंडल की राजनीति से बिहार में लालू प्रसाद की सत्ता मजबूत हुई, वहीं उत्तर प्रदेश में मुलायम की राजनीति कमजोर हुई। उन्हें 1993 में दोबारा सत्ता में आने के लिए कांशीराम से हाथ मिलाना पड़ा था। मंडल की राजनीति से निकले उत्तर भारत के पांच नेताओं- मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, शरद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार में सबसे मुश्किल राह मुलायम सिंह की ही रही। इसका कारण यह था कि उत्तर प्रदेश की जनसंख्या संरचना बिहार से भिन्न थी। बड़ी सवर्ण और दलित आबादी की वजह से मंडल की राजनीति का वैसा स्पेस नहीं था, जैसा बिहार में थे। इसके बावजूद 1989 से लेकर 2022 में निधन तक उत्तर प्रदेश की राजनीति मुलायम सिंह और उनकी बनाई समाजवादी पार्टी की धुरी पर घूमती रही। मुलायम सिंह की खांटी राजनीतिक समझ से ऐसा संभव हो सका।

समाजवाद उनको घुट्टी में मिला था और सांप्रदायिक राजनीति के विरोध को उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद साधा। पहली बार मुख्यमंत्री रहते उन्होंने कारसेवकों पर गोली चलवाई और अंत तक उसे सही ठहराते रहे। उस एक घटना ने उनको उत्तर प्रदेश की 20 फीसदी मुस्लिम आबादी का चहेता बना दिया। जिस समय बिहार में लालू प्रसाद पिछड़ों के मसीहा के तौर पर स्थापित हो रहे थे उसी समय मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में एमवाई यानी मुस्लिम और यादव का समीकरण बनाया और इसमें कांशीराम व मायावती के सहारे दलित को जोड़ कर 1993 में सत्ता में वापसी की। इस लिहाज से एमवाई समीकरण की राजनीति लालू से पहले उन्होंने की। इसके बाद पूरी उम्र वे समाजवादी राजनीति की छाया में जातियों का गणित साधते रहे। वे 2003 में तीसरी बार मुख्यमंत्री बने। अपने इस कार्यकाल में उन्होंने कई ऐसी योजनाएं शुरू कीं, जो बाद में अलग अलग रूपों में कई राज्यों में अपनाई गईं। उन्होंने पांच सौ रुपए का बेरोजगारी भत्ता शुरू किया और कन्या विद्या धन योजना की शुरुआत की थी।

वे लोहिया के अनुयायी थे। सरकारी कामकाज में हिंदी का समर्थन करते थे। महंगी अंग्रेजी शिक्षा के विरोध में रहते थे। कंप्यूटर का भी विरोध करते थे। पहलवान से शिक्षक और शिक्षक से नेता बने मुलायम सिंह धोती-कुर्ता पहनने वाले हिंदी पट्टी के खांटी नेता थे। उनको जो बात समझ में आती थी वह खुल कर बोलते थे। जीवन भर महिला आरक्षण का उन्होंने विरोध किया और बलात्कार के आरोपी लड़कों को नादान बता कर उनका बचाव किया। भाई शिवपाल यादव साये की तरह साथ रहे लेकिन राजनीतिक विरासत सौंपने का मौका आया तो नेताजी ने बेटे अखिलेश यादव को चुना। जीवन भर किसी न किसी तरह के विवादों में रहे। कई तरह के आरोप भी लगे। इसके बावजूद वे राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बने रहे। करीबियों के साथ ऐसी दोस्ती निभाई, जैसी किसी दूसरे नेता ने नहीं निभाई। आलोचकों को भी साथ रखा और विरोधियों के प्रति भी सद्भाव बनाए रखा। आठ बार विधायक और सात बार सांसद रहे। तीन बार मुख्यमंत्री और एक बार केंद्रीय मंत्री रहे। एक बार प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए। छोटे से कद के मुलायम सिंह समाजवाद के सबसे चमकदार सितारों में से एक थे। उनके लिए नारा लगता था- जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है! ऐसे नेताजी को श्रद्धांजलि!

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