वर्दी बदल रहे, पुलिस नहीं सुधार रहे!
केंद्रीय गृह मंत्रालय की पहल पर देश के सभी राज्यों के गृह मंत्रियों का एक ‘चिंतन शिविर’ पिछले दिनों फरीदाबाद में आयोजित किया गया। दो दिन के इस शिविर में देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर काफी अच्छी और गंभीर चर्चा हुई। इसमें कई विपक्षी राज्यों के गृह मंत्री शामिल नहीं हुए थे और इसका मुख्य कारण यह था कि ज्यादातर विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्यों में मुख्यमंत्री खुद ही गृह मंत्री हैं। इसलिए वे नहीं आए लेकिन उनके राज्य का भी प्रतिनिधित्व इसमें रहा। सभी राज्यों ने अपनी अपनी पुलिसिंग की व्यवस्था के बारे में बताया और उसकी सीमाओं, कमियों और जरूरतों पर भी चर्चा हुई। इन तमाम बातों के बीच सबसे ज्यादा ध्यान जिस बात की ओर से गया, वह था प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समापन भाषण। उसमें भी सबसे ज्यादा चर्चा इस बात पर हुई कि प्रधानमंत्री ने ‘वन नेशन, वन यूनिफॉर्म’ यानी ‘एक देश, एक वर्दी’ का सुझाव दिया।
कई दिनों तक इस बात की चर्चा होती रही। अनेक अखबारों में अलग अलग राज्यों में पुलिसकर्मियों की वर्दियों की तस्वीर छपी और तुलना करते हुए उनमें एकरूपता लाने की बात कही गई। हालांकि प्रधानमंत्री ने इसे एक सुझाव के तौर पर पेश किया। उन्होंने कहा कि कानून व्यवस्था का मसला संविधान के मुताबिक राज्य सूची का है फिर भी पुलिसिंग व्यापक रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ मामला है। उन्होंने यह भी कहा कि इसमें पांच, 10 या सौ साल भी लग सकते हैं, लेकिन यह होना चाहिए। इस बयान का नतीजा यह हुआ कि पक्ष और विपक्ष में सारी चर्चा इसी पर होती रही। विपक्षी पार्टियों के साथ साथ सुरक्षा मामलों के जानकारों ने भी इस पर सवाल उठाए और कहा गया कि यह संघवाद की भावना के विपरीत है। यह भी कहा गया कि प्रधानमंत्री ने एक चलन बना दिया है। वे ‘वन नेशन, वन एवरीथिंग’ की बात करते हैं और यह संघीय भावना के खिलाफ है। कायदे से चर्चा इस बात पर होनी चाहिए थी कि किस तरह सभी राज्यों की पुलिस में तालमेल बने, किस तरह से राज्यों की पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों में समन्वय बने और पुलिस सुधारों को कैसे लागू किया जाए, लेकिन इसकी बजाय चर्चा वर्दी पर होने लगी। यह दुर्भाग्य है कि भारत में हर गंभीर चर्चा ऐसी ही किसी हलकी या सतही बात की तरफ मुड़ जाती है।
प्रधानमंत्री ने खुद कहा कि सभी सुरक्षा बलों के बीच तालमेल होना चाहिए ताकि सूचना का आदान प्रदान आसान हो, जिससे अपराध कम किया जाए और अपराधियों को जल्दी सजा दिलाई जा सके। लेकिन इस पर चर्चा नहीं हुई। आजकल अंतरराज्यीय अपराध बहुत बढ़ गए हैं। इसके साथ ही साइबर क्राइम में भी बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। साइबर अपराध का दायरा भी कई राज्यों में फैला होता है। जैसे झारखंड के जामताड़ा में बैठे साइबर ठग देश के हर हिस्से और यहां तक कि विदेशों में भी लोगों से ठगी कर रहे हैं। इसे रोकना या इससे निपटना सिर्फ झारखंड पुलिस का काम नहीं है। देशी या विदेशी आतंकवादी या चरमपंथी संगठनों का नेटवर्क भी पूरे देश में फैला है। सो, देश भर के राज्यों की पुलिस का एक साझा तंत्र बनना चाहिए ताकि अंतरराज्यीय व साइबर अपराधों और आतंकवादी घटनाओं को रोका जाए और अपराधियों को जल्दी से जल्दी सजा दिलाई जाए।
इसके अलावा जिस बात पर सबसे गंभीरता से बात होनी चाहिए थी वह पुलिस सुधारों की थी। प्रधानमंत्री ने भी इसके बारे में बात नहीं की। उन्होंने जिस अंदाज में ‘एक देश, एक वर्दी’ की बात की उसी अंदाज में सभी राज्यों से कहना चाहिए था कि वे अपने यहां पुलिस सुधारों को लागू करें। पुलिस सुधारों को लेकर 16 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाया था। सितंबर 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को पुलिस सुधार लागू करने का आदेश दिया था। इस आदेश में सर्वोच्च अदालत की ओर से कुछ स्पष्ट निर्देश दिए गए थे। दुर्भाग्य से देश के किसी भी राज्य ने इन निर्देशों को लागू नहीं किया है। देश भर के गृह मंत्रियों के चिंतन शिविर में सुप्रीम कोर्ट के इन निर्देशों पर चर्चा होनी चाहिए थी और इन्हें लागू करने की एक समय सीमा तय की जानी चाहिए थी। इससे पुलिस की छवि भी सुधरेगी, जिसका जिक्र प्रधानमंत्री ने किया और उसके कामकाज की गुणवत्ता में भी सुधार होती। पुलिस के राजनीतिक आकाओं के हथियार की तरह इस्तेमाल होने के आरोप भी समाप्त होते।
सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रदेश सुरक्षा आयोग बनाने का सुझाव दिया था, जिसमें राज्य के मुख्यमंत्री या गृह मंत्री इसके अध्यक्ष हों। उनके अलावा नेता विपक्ष, हाई कोर्ट के एक रिटायर जज और कुछ महत्वपूर्ण अराजनीतिक लोगों को इसका सदस्य बनाया जाए। यह आयोग पुलिस के कामकाज पर नजर रखे और यह सुनिश्चित करे कि पुलिस सत्तारूढ़ दल के हिसाब से काम नहीं कर रही है। किसी भी राज्य में ऐसा आयोग नहीं बना है। सुप्रीम कोर्ट ने एक पुलिस इस्टैबलिंशमेंट बोर्ड बनाने का निर्देश दिया था, जिसमें राज्य के पुलिस महानिदेशक और चार वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हों और डीएसपी रैंक के अधिकारियों का तबदला और पदस्थापना यह बोर्ड करे। इसी तरह अदालत ने पुलिस की शिकायत सुनने के लिए एक बोर्ड बनाने का सुझाव भी दिया था, जिसमें प्रदेश और जिला स्तर पर रिटायर जज अध्यक्ष हों। यह बोर्ड हिरासत में मौत या बलात्कार जैसी घटनाओं की शिकायत सुने और जांच करे। इसके अलावा अदालत ने मेरिट के आधार पर राज्य के पुलिस प्रमुख की नियुक्ति का सिस्टम बनाने को भी कहा था।
असल में पुलिस सुधार और पुलिस का प्रशिक्षण इस समय की सबसे बड़ी जरूरत है। पुलिस सरकार और समाज के बीच इंटरफेस की तरह काम करती है। इसलिए लोगों के मन में उसकी छवि बहुत अच्छी होनी चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि आम नागरिक खाकी वर्दी देख कर डरे, जैसा अभी भारत में होता है। लोग पुलिस को अपना दोस्त मानें, यह पहली जरूरत है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि अपराध की वस्तुनिष्ठ तरीके से छानबीन, आरोपी से पूछताछ, फॉरेंसिक जांच आदि जो चीजें हैं, वो वैज्ञानिक प्रशिक्षण की चीज है। लेकिन भारत में इसकी जरूरत नहीं समझी जाती है। दुनिया भर के विकसित देशों में पुलिस को कई हिस्सों में बांटा गया है। कानून व्यवस्था बनाने वाली पुलिस अलग है और अपराध की छानबीन करने वाली पुलिस अलग है। इतना ही नहीं अदालत के मामले देखने वाली पुलिस अलग है। यानी लॉ एंड ऑर्डर, इन्वेस्टिगेशन और प्रॉसीक्यूशन के लिए अलग अलग पुलिस है। लेकिन भारत में एक ही पुलिस सारे काम करती है। जो अपराधी को पकड़ा है, वही जांच करता है और वही मुकदमों की सुनवाई में जाता है। इसको बदलने की जरूरत है। यह बदलाव तभी होगा, जब पुलिस में नई बहाली होगी और उनका बेहतर प्रशिक्षण होगा। इसके बाद उनके लिए आधुनिक हथियारों और उपकरणों की जरूरत है। आज अपराध का तरीका बदल गया है। अपराधी तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्हें रोकने के लिए पुलिस को भी तकनीकी रूप से उतना ही दक्ष और सक्षम होना होगा।