राजस्थानी कच्छी घोड़ी लोकनृत्य
ममता मीणा –कच्छी घोड़ी लोकनृत्य राजस्थान के प्रसिद्ध लोकनृत्यों में से एक है | यह नृत्य शेखावाटी(सीकर,झुञ्झुणु,चुरू) क्षेत्र में मुख्यतः प्रचलित नृत्य है | इस नृत्य में ढाल और लंबी तलवारों से युक्त नर्तकों का ऊपरी भाग दूल्हे की पारंपरिक वेषभूषा में रहता है |
नर्तकों के निचले भाग में बांस के ढांचे पर कागज की लुगदी से बने घोड़े का ढांचा होता है | इससे ऐसा प्रतीत होता है की जैसे नर्तक घोड़े पर बैठा है | कच्छी घोड़ी नृत्य शादियों और उत्सवों पर विशेष रूप से किया जाता है | इस नृत्य में एक या दो महिलाएं भी नर्तक घुड़सवार के साथ नृत्य करती हैं | कभी-कभी दो नर्तक बर्छेबाजी के मुक़ाबले का प्रदर्शन भी इस नृत्य में करते हैं | कच्छी घोड़ी नृत्य शेखावाटी क्षेत्र का ख्याति प्राप्त नृत्य है, विशेषतः जहां पुराने राजघराने है, वहाँ आज भी शादियों या उत्सवों में यह नृत्य किया जाता है |
इसमें प्रायः पुरुषों का सामूहिक नृत्य होता है, जिसमें बांस की टोकरियों से घोड़ी बनाकर उसके बीच में पैर डालकर घुड़सवार का स्वांग निकाला जाता है | यह केवल राजस्थान में ही नहीं बल्कि भारत के अन्य भागों जैसे महाराष्ट्र, गुजरात आदि में भी प्रसिद्ध है | इसका प्रदर्शन सामाजिक एवं व्यवहारिक दोनों तरह से होता है | यह नृत्य दूल्हा पक्ष के बारातियों के मनोरंजन के लिए व अन्य खुशी के अवसरों पर भी प्रदर्शित किया जाता है | इसमें वाद्यों में ढ़ोल, झांझ, बांकिया एवं थाली बजती है | सरगड़े, कुम्हार, ढोली व भांभी जातियाँ इस नृत्य में प्रवीण हैं |
यह नृत्य कमल के फूल की पैटर्न बनाने की कला के लिए प्रसिद्ध हैं | चार-चार व्यक्तियों की आमने-सामने खड़ी पंक्तियाँ पीछे हटने, आगे बढ़ने की क्रियायें द्रुतगति से करती हुई इस प्रकार मिल जाती है कि आठों व्यक्ति एक ही लाइन में आ जाते हैं | इस पंक्ति का बार-बार बनना, बिगड़ना ठीक उसी कली के फूल की तरह होता है, जो पंखुड़ियों के रूप में खुलती है | नर्तक बांसुरी संगीत की ताल और ढ़ोल की थप पर चलते हैं |
इस नृत्य में रॉबिन हुड के राजस्थानी समकक्ष भंवरिया डाकुओं के कारनामों की कहानियों के साथ गायक नकली लड़ाई का वर्णन करते हैं | इसमें लसकारिया, बींद, रसाला तथा रंगमारिया गीत गाए जाते हैं | वर्तमान में इस नृत्य ने व्यवसायिक रूप धारण कर लिया है |