मॉनसून, अल नीनो और खेती का संकट

देश में मौसम का मिजाज बिगड़ा है। पश्चिम के दो बड़े राज्यों गुजरात और राजस्थान में चक्रवाती तूफान बिपरजॉय से तबाही मची है। इस तूफान के असर से राजधानी दिल्ली में भी बारिश हुई है और हरियाणा में भी असर दिखा है। तूफान के गुजरात में जकाऊ बंदरगाह से टकराने से पहले महाराष्ट्र के कई हिस्सों में भी भारी बारिश हुई लेकिन उसके बाद वहां का मौसम सामान्य हो गया। दूसरी ओर देश के पूर्वी हिस्से में खास कर पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड और ओडिशा में भीषण गर्मी पड़ रही है। लू चलने की वजह से बिहार और उत्तर प्रदेश में एक सौ के करीब लोगों की मौत हो गई है और सैकड़ों लोग अस्पताल में भर्ती हुए। तीसरी परिघटना यह है कि पूर्वोत्तर में भारी बारिश हो रही है, जिससे असम से लेकर सिक्किम तक में बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं हो रही हैं। देश के अलग अलग हिस्सों में मौसम का ऐसा अतिरेक क्यों देखने को मिल रहा है, यह समझना मुश्किल काम नहीं है। जलवायु परिवर्तन की वजह से इस तरह की घटनाएं हो रही हैं। इस बीच यह खबर आई है कि धरती का तापमान औद्योगिक युग से पहले के औसत से डेढ़ डिग्री ऊपर पहुंच गया है। यह एक मानक तय किया गया था और जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि धरती का तापमान डेढ़ डिग्री के थ्रेसहोल्ड से ऊपर जाएगा तो धरती के बाशिंदों का जीवन मुश्किल होगा। वह मुश्किल शुरू हो गई है।

भारत में यह मुश्किल इस साल कुछ ज्यादा महसूस होने वाली है क्योंकि मॉनसून के आगमन की खबर के साथ ही यह भी खबर आई है कि यह साल अल नीनो का है। अल नीनो का दुनिया पर जो भी असर हो लेकिन भारत के लिए यह बहुत खराब होता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 65 साल में 14 बार अल नीनो का प्रभाव हुआ है, जिसमें नौ साल भारत में भयंकर सूखा पड़ा है। बाकी पांच मौकों पर भी कम बारिश हुई है। सो, अल नीनो का भारत के लिए मतलब सूखा होता है। अल नीनो को सरल शब्दों में समझें तो कह सकते हैं कि प्रशांत महासागर में जब समुद्र की सतह का तापमान बढ़ता है तो अल नीनो के हालात बनते हैं। इस साल जिस तरह मार्च-अप्रैल से गर्मी पड़नी शुरू हुई, उससे अल नीनो के आसार बन रहे थे। लेकिन इसकी पुष्टि जून के पहले हफ्ते में हुई।

आमतौर पर भारत में दक्षिण पश्चिम मॉनसून एक जून तक आ जाता है। लेकिन इस बार एक हफ्ते से ज्यादा की देरी के साथ आठ जून को मॉनसून केरल के तट पर पहुंचा। असल में अरब सागर के ऊपर एक साइक्लोनिक सरकुलर बन गया था, जिसकी वजह से मॉनसून आगे नहीं बढ़ पा रहा था। आठ जून को केरल पहुंचने के बाद भी वह सामान्य गति से आगे नहीं बढ़ा। इसकी वजह से पूर्वी भारत के राज्यों में मॉनसून की बारिश का इंतजार लंबा हो गया और करोड़ों लोग भीषण गरमी की मार झेलने को मजबूर हुए। एक रिपोर्ट के मुताबिक जून का तीसरा हफ्ता शुरू होने तक दक्षिण पश्चिम मॉनसून से जितनी बारिश होनी चाहिए थी उससे 37.2 फीसदी कम बारिश हुई है। इसका साफ मतलब है कि अल नीनो का असर दिखना शुरू हो गया है। देश के ज्यादातर हिस्सों में सामान्य से कम बारिश हो रही है।

मॉनसून की बारिश कम होने का दो असर भारत के ऊपर होता है। पहला तो खेती प्रभावित होती है क्योंकि भारत में मोटे तौर पर खेती दक्षिण पश्चिम मॉनसून पर निर्भर है। देश में 50 फीसदी खेती मॉनसून की बारिश से होती है। कम बारिश होने का सीधा असर खरीफ की पैदावार पर होता है। खरीफ में भी धान सबसे मुख्य फसल है, जिसकी खेती में बहुत ज्यादा पानी की जरूरत होती है। इसके लिए या तो मॉनसून की बारिश पर निर्भरता है या भूजल के पानी पर। भारत में खेती के लिए जमीन के अंदर से इतना पानी खींचा गया है कि कई राज्यों में जमीन बंजर होती जा रही है। भारत में कम पानी के जरिए धान की खेती को नहीं अपनाया गया है। वह एक अलग बहस का विषय है। लेकिन देर से बारिश होने और कम बारिश होने का असर धान की खेती पर होगा। सरकार को इसका अंदाजा है तभी चावल के भंडारण को लेकर नए नियमों की घोषणा की गई है। सरकार को अंदाजा है कि इस साल धान की पैदावार कम हो सकती है। ध्यान रहे भारत की जीडीपी में भले कृषि का हिस्सा 20 फीसदी का है, लेकिन कृषि पर निर्भर आबादी 60 फीसदी के करीब है। इसलिए खेती प्रभावित होने का असर ज्यादा बड़ी आबादी पर होता है। इससे खाने पीने की चीजों की महंगाई भी बढ़ती है, जिसका असर परोक्ष रूप से ही सही लेकिन नौकरीपेशा मध्य वर्ग भी महसूस करता है।

मॉनसून की बारिश कम होने का दूसरा असर पीने के पानी पर महसूस होता है। देश के कई हिस्सों में अभी से सूखे के हालात बन गए हैं। तालाब और नदियां सूख गए हैं। उनका जलस्तर बहुत नीचे चला गया है। पेयजल की आपूर्ति नहीं हो पा रही है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड इलाके से लेकर महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक जैसे कई राज्यों में पानी की कमी होने लगी है। जल संरक्षण के कई उपायों का प्रचार होने के बावजूद भारत में पीने से लेकर रोमजर्रा के कामकाज तक के लिए पानी की जरूरत मॉनसून में हुई बारिश के पानी से ही पूरी हो पाती है। अगर मॉनसून की बारिश कम होती है तो गांवों और छोटे कस्बों से लेकर महानगरों तक में पानी की आपूर्ति प्रभावित होगी।

अल नीनो की पुष्टि, मॉनसून की देरी और मॉनसून के धीमी रफ्तार से आगे बढ़ने के बावजूद कुछ कारणों से भारत की उम्मीद कायम है। एक कारण तो यह है कि हिमालय के क्षेत्र में अच्छी बर्फबारी हुई है। सो, अगर प्रशांत महासागर की ओर से आने वाली हवा मॉनसून को रोकेगी तो हिंद महासागर से आने वाली हवा इसको आगे बढ़ने में मदद कर सकती है। उम्मीद का दूसरा कारण यह है कि भारत में 75 फीसदी बारिश जुलाई से अक्टूबर के बीच होती है। सो, अगर जून में मॉनसून की रफ्तार कुछ कम रहती है या कम बारिश होती है तो उसकी भरपाई जुलाई और उसके बाद के महीनों में हो सकती है।

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