एमएलए जननायक या खलनायक ?

जगजाहिर विशेष संवाददाता

मीडिया बिकता है, खरीदोगे ? के चर्चित लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र सिंह गहलोत की निगाह इस बार राजनेताओं पर जाकर टिक गई और मेरा मानना है कि असल में पत्रकार कोई है तो वो जिस किसी को अपने चश्में से देखेगा तो सामने वाला उसे नंगा ही नजर आयेगा, तो इस बार राजेन्द्र सिंह गहलोत ने अपने चश्में से राजनेताओं को देखा है, और किताब लिख दी, एमएलए जननायक या खलनायक ?

कमाल की बात यह है कि राजेन्द्र सिंह गहलोत ने इस किताब में राज्यसभा सांसद घनश्याम तिवाड़ी के साथ ही वर्तमान भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी के विधायकों, पूर्व विधायकों एवं पार्षदों के भी साक्षात्कार ले लिये और इन्हीं लोगों के साक्षात्कार रूपी बयानों के आधार पर राजनेता जननायक भी साबित हो गये और खलनायक भी साबित हो गये, जननायक तो इसलिये क्योंकि जनता कभी जानबूझकर खलनायक को चुनाव नहीं जिताती, वह तो जननायक को ही जनादेश देती है लेकिन जनादेश प्राप्त करने के बाद जननायक किस तरह खलनायक बन जाता है और क्या क्या काले कारनामें करता है उसकी एक बानगी है यह किताब ।

राजेन्द्र सिंह गहलोत स्वतंत्र पत्रकार हैं और किताब में लिखते हैं कि मीडिया के बिना राजनेताओं का गुजारा नहीं होता, लेकिन असल स्वतंत्र मीडिया के प्रति राजनेताओं का रवैया साफ रहता है, वे उनसे घृणा करते हैं, स्वतंत्र पत्रकारों को राजनेता ब्लेकमेलर तक कह देते हैं, लेकिन देखने वाली बात यह है कि राजनेता ब्लेकमेल होते क्यों हैं, क्यों उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाकर उनको जेल की सलाखों के पीछे नहीं पहुंचाते, वो ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि उनके ब्लेकमेल होने के कारण ऐसे होते हैं कि राजनेता खुद जेल की सलाखों के पीछे पहुंच सकते हैं और उनका राजनीतिक कैरियर चौपट हो सकता है, इसलिये राजनेताओं द्वारा स्वतंत्र पत्रकारों की हत्याएं तक करवा दी जाती है, जगजाहिर है कि हत्याएं सिर्फ स्वतंत्र पत्रकारों की होती है, किसी बड़े बैनर में काम करने वाले पत्रकारों की नहीं, क्योंकि उनको तो मुफ्त की सारी सरकारी सुविधाएं देकर खरीद लिया जाता है, इसलिये वह तो अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के ही कर्मचारी होते हैं, जिससे आज तक किसी बड़े बैनर में काम करने वाली पत्रकार की हत्या नहीं हुई, क्योंकि सरकार उनको पत्रकार की उपाधि तो देती है पर पत्रकार नहीं मानती, उसे राजनेता सरकारी मीडिया या पीपीपी मोड वाला मीडिया मानती है।

राजेन्द्र सिंह गहलोत लिखते हैं कि आज भी राजनेता डरते हैं तो असल स्वतंत्र मीडिया से ही, क्योंकि वह उनकी बकवासभरी और अपना व अपनी पार्टी का यशोगान करने वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस में जाकर दी हुई प्रेस विज्ञप्तियां छापने वाली मीडिया नहीं है, वह राजनेताओं और उनके पुत्रों व मित्रों के द्वारा सत्ता के मद में चूर होकर किये गये काले कारनामों को छापने वाला असल स्वतंत्र मीडिया है और वही असल में लोकतंत्र को भ्रष्ट राजनेताओं से बचाने वाला मीडिया है, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा गया है।

इसी चौथे स्तम्भ की झकझोर देने वाली किताब है ये, एमएलए जननायक या खलनायक ?

एमएलए यानि जनप्रतिनिधि, शांति के दूत, इसीलिये शांति के दूत कबूतर को राजनेता के प्रतीक के रूप में चुना है, ये होते हैं जननायक, इसके विपरीत गुंडे, बदमाश, तेल माफिया, भू माफिया, खनन माफिया, जमानत पर छूटे हुए अपराधी माफिया, हत्यारे तक लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया के तहत संवैधानिक दायरे में रहकर हथियारों के बल पर, जनता का खून चूसकर जनता से लूटे हुए काले धन के बल पर, दस दस करोड़ में पार्टी फंड के नाम पर अघोषित चंदा देकर अपने लिये चुनावी टिकिट खरीदकर और जनता को जाति व धर्म के नाम पर आपस में लड़वाकर विधानसभा के पावन मंदिर में येन केन प्रकारेण पहुंचने में सफल हो जाते हैं, ये होते हैं जनता की बहन बेटियों का अपने पुत्रों से बलात्कार करवाने वाले, उनको पुलिस संरक्षण में दूसरे राज्यों में भगाने वाले, भूमाफिया द्वारा पार्टनरशिप में अवैध होटल बनवाने वाले, जिस कारण आम जनता को आत्महत्या के लिये मजबूर करने वाले, इसके बावजूद राजनीतिक पावर के कारण खुद को और अपने बलात्कारी पुत्रों व मित्रों को कानून के पंजे से बचाने वाले, इसलिये ऐसे राजनेताओं को मैंने भेडिय़े के प्रतीक के रूप में चुना है।

राजेन्द्र सिंह गहलोत आगे लिखते हैं कि मैं जो भी मुझसे मिला अच्छा या बुरा राजनेता, या नहीं मिला, उनके बारे में सिर्फ तथ्य लिखें हैं, अब जनता को पहचानना है कि उनका भूतपूर्व, भावी व वर्तमान एमएलए जननायक है या खलनायक ?
इस किताब में जहां भारतीय जनता पार्टी के विधायक और विधायक प्रत्याशी जननायक बनकर उभरे हैं तो कांग्रेस पार्टी के विधायक और विधायक प्रत्याशी भी जननायक बनकर उभरे हैं।
इसके इतर भारतीय जनता पार्टी के अशोक लाहोटी, कालीचरण सर्राफ, सतीश पूनिया, वसुन्धरा राजे आदि एवं कांग्रेस पार्टी के अशोक गहलोत, शांति धारीवाल, महेश जोशी, अमीन कागजी आदि ने अपने कर्मों से इस किताब में अपना स्थान बना लिया है।

इस किताब में एडवोकेट अब्दुल सलाम सांखला का अपने साक्षात्कार में कहना है कि जब तक जनता को ये बात समझ में नहीं आयेगी कि ये सब एक हैं, एक तरह के हैं, खेल के मैदान में एक तरफ है और दूसरी तरफ जनता है, जिसको इनके द्वारा हारना ही हारना है, अभी तो सिर्फ इनको न्यायपालिका से डर लगता है, जिस दिन इनको जनता से डर लगने लग जायेगा तब ये जनता के नौकर होंगे, मालिक नहीं।
राजेन्द्र सिंह गहलोत की यह किताब एक ऐसा तमाचा है कि पूरा मीडिया ही बिकाऊ नहीं होता, सच और सच बोलने वाले आज भी जिंदा हैं। यह सही है कि अब नई पीढ़ी आ गई जननायकों की, जिन्होंने खुद ने भी भरपूत सत्ता सुख भोगा और अब अपनी विरासत अपने पुत्रों को देना चाहते हैं, अब जनता ने क्या कसूर किया है कि पहले बाप को भोगा, अब उसके बेटे को भी झेलना पड़ेगा, आज कई विधायक कहते हैं कि मैंने तो जिंदगी भर सत्ता की मलाई चाट ली, अब मेरा बेटा चाटेगा, मुख्यमंत्री जी मेरे बेटे से बहुत खुश हैं और यह सच भी है कि मुख्यमंत्री जी बेटों से बहुत खुश होते हैं फिर बेटा चाहे राजस्थान की बेटी की आबरू लूट लें, मुख्यमंत्री और गृहमंत्री जी की पुलिस उसे पकड़ तक नहीं पाती, लगता है पुलिस विभाग में कोई सिंघम है ही नहीं, वह सिंघम बनते हैं सिर्फ जिसकी एप्रोच नहीं होती उसे पकडऩे के लिये, एक फिल्म देखी थी अक्षय कुमार की राउडी राठौड़, जिसमें अक्षय कुमार सिंघम पुलिस अधिकारी होता है और एक खलनायक का मंदबुद्धि पुत्र पुलिस वाले की पत्नि से बलात्कार करता है, पुलिस कुछ नहीं कर पाती, फिर पुलिस अधिकारी अक्षय कुमार उस मंदबुद्धि अपराधी को ऐसी मौत देता है कि उसका खलनायक पिता भी कुछ नहीं कर पाता, ऐसा देखकर पुलिस का इकबाल जनता के बीच में बुलन्द हो जाता है और दर्शक तालियां बजाते हैं, पता नहीं असल में इस तरह तालियां बजाने का जनता को मौका कब मिलेगा ?

कुल मिलाकर राजेन्द्र सिंह गहलोत द्वारा लिखित जे के पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित किताब एमएलए जननायक या खलनायक ? चुनाव के इस मौसम में राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय होगी, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता।

पुस्तक समीक्षा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *