मणिपुर की हिंसा बहुत बड़ा षड़यंत्र!
मणिपुर में दो महिलाओं के साथ जो हुआ, वह अक्षम्य है। परंतु क्या यह भारत के संदर्भ में अपवाद है? क्या भारत या शेष विश्व के किसी भूक्षेत्र में ऐसी बीभत्सता पहली बार हुई है? क्या कोई दावा कर सकता है कि इस पिशाची घटना के बाद ऐसे मामले रुक जाएंगे? कटु सत्य तो यह है कि महिलाओं से इस प्रकार का असहनीय आचरण अक्सर इसलिए होता है, क्योंकि जिन लोगों (अधिकांश राजनीतिक) पर इस प्रकार की नारकीय घटना को रोकने का दायित्व है, वे मूलत: बेईमान और तुच्छ मानसिकता से ग्रस्त है। मणिपुर मामले में समाज का एक वर्ग इसलिए गुस्सा नहीं है, क्योंकि 4 मई को दो महिलाओं के साथ जो कुछ हुआ, वह बहुत शर्मनाक था, बल्कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि उन्हें इस घटना पर सियासी रोटियां सेकने और भारत को कलंकित करने का अवसर मिल गया है।
मणिपुर में जो काली इबारत लिखी गई, वह दुर्भाग्य से देश के अन्य भागों में भी किसी न किसी रूप में घट चुकी है। इस तरह के मामले कई राजनीतिक दलों के लिए सियासी तौर पर लाभदायक नहीं है, इसलिए वे इनपर कोई सार्वजनिक विमर्श नहीं बनाते और पीड़ितों की टीस पर मिट्टी डाल देते है। यदि तब उन घटनाओं पर मुखर होकर बिना किसी वैचारिक-राजनीतिक मोलभाव के आवाज उठाई गई होती, तो संभवत: मणिपुर में दरिंदे ऐसा कुकर्म करने का दुस्साहस नहीं करते।
आगे बढ़ने से पहले यह जानना आवश्यक है कि मणिपुर में हो क्या रहा है? यहां जिन दो महिलाओं ने उन्मादी भीड़ की यातना झेली, वह कुकी जनजाति से संबंधित है और कई दिनों से जारी उस श्रृंखलित हिंसा की शिकार है, जो 19 अप्रैल 2023 को राज्य के उच्च न्यायलय के एक आदेश पश्चात भड़क उठी। तब अदालत ने मैतेई समुदाय को भी अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में रखने को लेकर आवश्यक अनुशंसा केंद्र को भेजने हेतु राज्य सरकार को निर्देश दिया था। वास्तव में, वर्ष 1949 में मणिपुर के भारतीय संघ में विलय से पहले मैतेई समुदाय, जोकि अधिकतर वैष्णव— अर्थात् हिंदू है— उन्हें जनजाति समाज का दर्जा प्राप्त था। परंतु कालांतर में उनसे यह दर्जा छीन लिया गया।
इस अन्याय के परिमार्जन हेतु मैतेई समाज ने संयंम का परिचय देते हुए कानूनी मार्ग अपनाया। जब अदालत का फैसला मैतेई के पक्ष में आया, तब इसके विरुद्ध कुकी-नागा जनजाति समुदाय, जोकि मुख्यत: ईसाई है— उसका एक वर्ग हिंसक हो गया। संक्षेप में कहे, तो मैतेई समाज को आदिवासी दर्जा देने का हिंसक विरोध— नशा-हथियार तस्करी, संरक्षित जनजातीय क्षेत्रों में जमीन का कब्जा, अलगाववाद और अवैध मतांतरण के विरुद्ध वर्तमान सरकार का सख्ती से निपटने की मात्र प्रतिक्रिया हैं, जिसमें महिलाओं का भीषण अपमान तक किया जा रहा है।
निसंदेह, मणिपुर में महिलाओं के अपमान का वीडियो भयावह है। परंतु क्या इसका निहितार्थ यह है कि देश के अन्य हिस्सों में महिलाओं के साथ हुई क्रूरता या उनपर हो रहे उत्पीड़न पर चुप्पी बरती जाए? वर्ष 1989-91 में इस्लाम के नाम पर कश्मीर में जिहाद, स्थानीय हिंदुओं पर कहर बनकर टूटा था। 4 जून 1990 को सरेआम अपहरण के कुछ दिन बाद स्कूली शिक्षिका गिरिजा टिक्कू का शव, क्षत-विक्षत स्थिति में मिला था। जांच में स्पष्ट हुआ कि बलात्कार के बाद जब शव को विद्युत आरी से दो टुकड़ों में काटा गया था, तब गिरिजा जीवित थी। विडंबना है कि महिलाओं से इस मजहब प्रेरित पिशाची बीभत्सता पर विकृत राजनीतिक दल और वाम-उदारवादी समूह द्वारा संवेदना दिखाना तो दूर, इसे झूठा बताने का उपक्रम चलाया जाता है।
इसी वर्ग ने सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को प्रोपेगेंडा बताया था। यही समूह ‘द केरल स्टोरी’ में इस्लाम के नाम पर छल-बल से मतांतरित मुस्लिम महिलाओं (अधिकांश हिंदू-ईसाई) को आतंकी संगठनों से जबरन जोड़ने के आंकड़े को अतिरंजित बताकर मुस्लिम समाज को अपमानित करने का प्रलाप कर रहा था। परंतु यही कुनबा, मणिपुर में दो कुकी महिलाओं के साथ हुए अक्षम्य दुराचार से प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से पूरे मैतेई समाज और भारत को कलंकित कर रहा है। क्यों?
जब मणिपुर के प्रकरण पर विपक्षी दल— विशेषकर मोदी विरोधी आंदोलित है, तब उसी कालखंड में प.बंगाल स्थित मालदा में एक ऐसा ही वीडियो सामने आया। इसमें चोरी के संदेह में दो महिलाओं को भीड़ ने पीट-पीटकर अर्धनग्न कर दिया। यही नहीं, कर्नाटक के उडुपी स्थित नेत्र ज्योति कॉलेज के प्रबंधन ने हाल ही में तीन छात्राओं— अलीमातुल, शबानाज और आलिया को इसलिए निलंबित कर दिया, क्योंकि वे स्नानघर में मोबाइल कैमरे से अपनी सहपाठियों (सभी हिंदू) की वीडियो रिकॉर्ड करके वॉट्सऐप पर अपने मित्रों को साझा कर रही थी। ऐसे कई और मामले है। क्या इन मामलों पर आक्रोश दिखा?
कर्नाटक की इस घटना से मुझे वर्ष 1991-92 में राजस्थान स्थित अजमेर का एक घिनौना मामला स्मरण होता है। तब 100 से अधिक युवतियों (अधिकांश हिंदू) का उनकी अश्लील तस्वीरों से भयादोहन (ब्लैकमेल) करके बलात्कार किया गया था। इसमें तब फारूक चिश्ती, अनवर, नफीस, इकबाल, सलीम, सुहैल, अल्मास, हुसैन, इशरत, मोइजुल्लाह, परवेज, नसीम, शम्शुद्दीन, जऊर सहित कुल 18 आरोपी बनाए गए थे, जिसमें आठ को वर्ष 1998 में आजीवन कारावास की सजा हुई। कालांतर में कुछ की सजा कम कर दी गई। अब जो विकृत समूह महिला सम्मान को लेकर सड़क से लेकर संसद तक आंदोलित है, उनकी संवेदना महिला-उत्पीड़न के उपरोक्त मामलों में क्यों नहीं उमड़ती?
मणिपुर में गत तीन माह से हो रही हिंसा— भारत के खिलाफ बहुत बड़े षड़यंत्र का हिस्सा है। दो महिलाओं के साथ दुराचार भी इसी गैर-उद्घोषित युद्ध का भाग है। इस जंग में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से सम्मिलित पात्र, कोई छिपे नहीं है। म्यांमार के दूरस्थ क्षेत्रों में चीन का वर्चस्व है, जहां से वह भारत में असंतुष्ट तत्वों को वैचारिक खुराक, आयुध और प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है। इसमें नशा-कारोबारियों के साथ चर्च द्वारा पोषित अलगाववादी तक शामिल है। इन सब कारकों ने मणिपुर में ऐसी आग लगाई है, जो बुझने का नाम नहीं ले रही है। यही नहीं, दो महिलाओं के खिलाफ हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर गुस्से का एक बड़ा हिस्सा— देशविरोधी शक्तियों द्वारा भारत को कलंकित करने की रणनीति का एक भाग है।