अस्मिता के नाम पर जीवन से खेलती कुकड़ी प्रथा
– भारत में यूं तो कुप्रथाएं धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं, लेकिन कुछ आज भी समाज के किसी वर्ग में सांसें ले रही हैं। अफसोस की बात तो यह है कि 21वीं सदी में भी यह प्रथाएं जीवित हैं और औरतों की मौत का सबब बन रही हैं। राजस्थान के सांसी समुदाय में कौमार्य परीक्षा की परंपरा कुकड़ी आज भी प्रचलित है, जो दुल्हनों के लिए किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं है।
गीता यादव, वरिष्ठ पत्रकार
शादी की पहली रात दुल्हन के बड़े अरमान होते हैं, लेकिन जब पहली रात ही किसी नवविवाहिता को अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़े तो यकीनन यह खास दिन उसके लिए खौफनाक रात में तब्दील हो जाता है। उसकी सारी इच्छाएं अधूरी रह जाती हैं। सारे ख्वाब टूट जाते हैं। सुहाग की सेज कांटों की सेज की मानिंद चुभती है। अफसोस यह दर्द सांसी समुदाय की बेटियों को 21वीं सदी में भी यह सब कुछ सहना पड़ रहा है। सांसी जनजाति राजस्थान की खानाबदोश अनुसूचित जाति की सूची में आती है। इस समाज में महिलाओं को उनके पति के परिवार में तभी स्वीकारा जाता है, जब वे अपने कुंवारेपन का सबूत प्रस्तुत करती हैं। शादी की पहली रात खून के धब्बे से सना कपड़ा उनके जीवन की दिशा तय करता है। जांच में फेल होने का एक व्यापक सामाजिक प्रभाव पड़ता है, जिसमें कलंक, लज्जा, घरेलू हिंसा शामिल होती है, जो उनके जीवन को नर्क बना देती है।
इस समुदाय में तलाक या दूसरी शादी की कोई संभावना नहीं होती। हालांकि हाइमन टूटने की वजह केवल सेक्स नहीं है, लेकिन फिर भी महिलाओं को गलत तरीके से गुनहगार ठहराया जाता है। मशहूर लेखक विजय एंड शंकर की किताब शैडो बॉक्सिंग विद द गॉड्स में भी हमारे समाज की ऐसी बहुत सारी बुराइयों का जिक्र है। उसमें इन गलीज तरीकों की चर्चा है। इस संवेदनशील विषय पर एक फिल्म भी बनी है, एक कोरी प्रेम कथा। यह फिल्म 2024 में रिलीज होगी। इसका मकसद समाज में व्याप्त शादी से जुड़ी एक बेहद पुरानी कुप्रथा कुकड़ी की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करना है। इस फिल्म में शादी से पहले कुंवारी नहीं रहने वाली लड़कियों की चिकित्सा के माध्यम से उनके कौमार्य को फिर से अक्षुण्ण बनाने की प्रक्रिया पर भी रौशनी डाली गई है।
असल में यह प्रथा सौ साल से ज्यादा पुरानी है। इसकी शुरुआत तब हुई, जब विदेशी भारत आए। विदेशी भारतीय औरतों के साथ ज्यादती करके उन्हें फेंक जाते थे। कहते हैं कि राजपूत दुल्हन के कौमार्य परीक्षण के लिए धागे का इस्तेमाल करते थे। वे यह जानने की कोशिश करते थे कि दुल्हन के साथ कहीं कोई ज्यादती तो नहीं हुई है। हालांकि राजपूतों ने यह प्रथा उतारकर फेंक दी है, लेकिन सांसी समुदाय ने इसे अपना लिया और इसे अपनी कमाई का एक जरिया बना लिया। अब तो इस कुप्रथा के चलते समुदाय के लोग यह कामना करते हैं कि उनकी होने वाली बहू कुंवारी ना हो, ताकि वो उसके ससुराल वालों से जमकर जुर्माने के नाम पर भारी रकम लूट सकें। राजस्थान के अलावा कुछ और प्रांतों में भी यह कुप्रथा आज भी फल-फूल रही है। महाराष्ट्र में एक समाज है कंजरभाट और गुजरात में छारा समाज, जहां इस तरह की प्रथा का चलन आज भी देखने को मिलता है। यह समुदाय प्रमुखता से राजस्थान के अलावा मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब और हरियाणा में रहता है।
इस घिनौनी परंपरा में शादी की रात बिस्तर पर सफेद चादर बिछाई जाती है। उसके पास ही धागे का एक गुच्छा रखा जाता है, जिसे कुकड़ी कहते हैं। कमरे को तैयार करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि कोई नुकीला सामान अंदर ना हो। दुल्हन की तलाशी ली जाती है। उसकी चूड़ियों को उतरवा लिया जाता है, बालों से पिन निकाल ली जाती है, ताकि सफेद चादर पर किसी और खून के धब्बे की गुंजाइश न हो। टूटी हुई हाइमन से निकलने वाला रक्त उनकी शुद्धता की कसौटी है। इसी से तय होता है कि दुल्हन कुंवारी है या नहीं। यदि दुल्हन कसौटी पर खरी उतरती है, तो दुल्हा कमरे से बाहर मेरा माल खरा-खरा-खरा कहकर चिल्लाता हुआ बाहर आता है। धब्बे नहीं हैं तो मेरा माल खोटा-खोटा-खोटा कहता चिल्लाता हुआ बाहर आता है। चादर पर खून के धब्बे मिलने के साथ ही शादी की प्रक्रिया को सम्पन्न मान लिया जाता है। अगर चादर पर खून के धब्बे नजर न आएं, तो नवविवाहिता को बुरी तरह प्रताड़ित किया जाता है। ससुर-जेठ सबके सामने महिला के कपड़े उतारकर उसे पीटा जाता है, घर के पुरुष उससे ज्यादती करते हैं। उसके प्राइवेट पार्ट्स में मिर्ची डाली जाती है। विरोध करने पर उसे डराया, धमकाया जाता है।
लड़की के कई बार कुंवारी होने के बाद भी उसे चरित्रहीन ठहरा दिया जाता है। ससुराल वाले लड़की से उस लड़के का नाम उगलवाने की कोशिश करते हैं, जिससे उसने संबंध बनाए थे। शारीरिक संबंध न होने के बाद भी मार से बेहाल उस लड़की को उस लड़के का झूठा नाम बताना पड़ता है। कई लड़कियां तो यह प्रताड़ना सह नहीं पाती। अन्य कोई विकल्प न होने पर आत्महत्या तक कर लेती हैं। इस घोर बेइज्जती के बाद जाति पंचायत बैठती है। वहां अनुष्ठान के नाम पर ससुराल वाले लड़की के पिता और लड़के से जमकर वसूली करते हैं। पुलिस भी इन मामलों में यह कहकर पल्ला झाड़ लेती है कि ये निजी समुदाय की परंपरा है, हम कुछ नहीं कर सकते। जातीय पंचायत जिस तरह के फैसले सुनाती है, वह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। कोई भी लड़की कुकड़ी प्रथा में दोषी पाई जाती है तो जातीय पंचायत उस लड़की के परिवार पर आर्थिक जुर्माना लगाती है। कई बार यह रकम पांच से दस लाख रुपए होती है। ऐसे में पीड़ित परिवार को जमीन और घर तक बेचना पड़ जाता है। अगर जुर्माने की राशि परिवार नहीं देता है, तो उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है।
महिलाओं की शुद्धता की पुष्टि के लिए जातीय पंचायत उसे दो बार अग्नि परीक्षा से गुजरने का मौका देती है। महिलाओं को तालाब या नदी के पानी के अंदर उतनी देर तक अपनी सांसें रोककर रखनी पड़ती है, जितनी देर तक एक व्यक्ति को सौ कदम चलने में समय लगता है। ये परीक्षण बेहद अमानवीय है। तय समय से पहले यदि लड़की पानी से बाहर आ जाती है तो यह मान लिया जाता है कि वह पवित्र नहीं है। उसे जुर्माना देना पड़ता है। दूसरे परीक्षण में उसे अपनी पवित्रता साबित करने के लिए हाथ पर पीपल के पत्ते और उस पर गर्म तवा रखना पड़ता है। हाथ जल गया, मतलब दुल्हन का चरित्र खराब है। इसकी भरपाई उसके परिवार को जुर्माना भरकर देनी होती है। दोनों ही मामलों में पवित्रता साबित भी हो गई, तो भी आधा जुर्माना तो देना ही पड़ता है।
हैरानी की बात यह भी है कि इस समाज के कुछ लोग इस प्रथा को सही ठहराते हैं। उनका मानना है कि कुकड़ी प्रथा को जारी रहना चाहिए। ये सुनिश्चित करती है कि महिलाएं बहक न जाएं। जो युवक-युवतियां इस प्रथा को नहीं मानते, ऐसा करने वालों की शादी को यह समाज अमान्य घोषित कर देता है। उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है। राजस्थान के भीलवाड़ा जिले की एक युवती ने इस प्रथा के खिलाफ पहली बार आवाज उठाई। वह एक ऐसे परिवार में ब्याही गई थी, जिसमें उसका ससुर हेड कांस्टेबल है और कुकड़ी प्रथा के कारण ही एक साल पहले उसकी ननद को आत्महत्या करनी पड़ी थी। उसके बाद भी उसे इस अमानवीयता, टॉर्चर और प्रताड़ना से गुजरना पड़ा। उसकी शिकायत के बाद पुलिस प्रशासन और राज्य महिला आयोग अलर्ट हो गया। महाराष्ट्र में इस कौमार्य परीक्षा के खिलाफ पहली बार आवाज उठाने वाली युवती हैं ऐश्वर्या भाट, जो पुणे में रहती हैं। इनकी कंजर-भाट समुदाय के इतिहास में यह पहली शादी है, जो बिना कौमार्य परीक्षा के हुई। ऐश्वर्या और उनके पति विवेक को अपने इस कदम के लिए घरवालों और समाज का भरपूर विरोध झेलना पड़ा। उन्होंने इस कुरीति से लड़ने के लिए एक वॉट्सएप ग्रुप भी बनाया है, जिसमें कंजर-भाट समुदाय के काफी सारे युवक-युवतियां जुड़े हैं।
इस कुप्रथा के बारे में सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि किसी लड़की के यौन इतिहास या नैतिक चरित्र का मूल्यांकन करने के लिए कौमार्य परीक्षण का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। कौमार्य परीक्षण की प्रथा संविधान के अनुच्छेद 21 निजता के अधिकार का भी उल्लंघन है और चिकित्सकीय रूप से भी अनुचित है। यह परीक्षण पितृसत्तात्मक मानदंडों के साथ लिंग आधारित भेदभाव को भी पुष्ट करता है। सरकार को परीक्षण की गलत प्रकृति के बारे में जनता को शिक्षित करना चाहिए और लैंगिक समानता को बढ़ावा देना चाहिए। भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत कौमार्य जांच को अपराध नहीं माना जाता, लेकिन अभियुक्त पर दहेज निरोधक एक्ट-1961 और आईपीसी के तहत मुकदमा दर्ज किया जा सकता है। देखा जाए तो संवैधानिक या वैज्ञानिक तौर पर यह कुप्रथा पूरी तरह से गलत है, जिसका हर हाल में अंत होना ही चाहिए।