इंसान की बढ़ी उम्र
जीवन प्रत्याशा विकास मापने का सर्व-स्वीकृत पैमाना है। जन्म के समय एक शिशु के औसतन कितने वर्ष जीने की उम्मीद रहती है, यह इससे तय होता है कि संबंधित समाज में रोग की रोकथाम और इलाज के साथ-साथ सामाजिक सुरक्षा की कैसी व्यवस्थाएं हैं। बीसवीं सदी को मानव इतिहास में इसीलिए एक महत्त्वपूर्ण शताब्दी माना जाता है, क्योंकि उसमें जीवन प्रत्याशा में जितनी वृद्धि हुई, वैसा इतिहास में कभी नहीं हुआ था।
जाहिर है, इसका कारण इस सदी में चिकित्सा संबंधी हुए आविष्कारों के साथ-साथ जनता में अपने अधिकारों की फैली चेतना थी। अब ताजा खबर यह है कि 1990 से 2021 तक की अवधि में दुनिया में औसत जीवन प्रत्याशा में 6.2 वर्ष की वृद्धि हुई। यह बात मशहूर ब्रिटिश पत्रिका लांसेट के नए अध्ययन से सामने आई है। इस दौरान दुनिया के जिन क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति हुई, उनमें दक्षिण एशिया भी है। लेकिन भारत के लिए यह खबर संतोषजनक नहीं है कि इस क्षेत्र में छोटे और अपेक्षाकृत गरीब समझे जाने वाले तीन देशों ने इस मामले बेहतर प्रदर्शन किया।
यह अवश्य अच्छी खबर है कि भारत में उन तीन दशकों में जीवन प्रत्याशा में 7.9 वर्ष की वृद्धि हुई, जो विश्व औसत से अधिक है। लेकिन दक्षिण एशिया में भूटान, बांग्लादेश और नेपाल में लोगों की औसत उम्र भारत की तुलना में काफी ज्यादा बढ़ी। यह वृद्धि क्रमशः 13.6, 13.3 और 10.4 वर्ष रही। पाकिस्तान की स्थिति अवश्य दयनीय रही है, जहां इस अवधि में औसत जीवन प्रत्याशा सिर्फ 2.5 वर्ष ही बढ़ सकी। लांसेट के मुताबिक इन तीन दशकों में दुनिया भर में डायरिया, सांस संबंधी संक्रमण, हार्ट अटैक और पक्षाघात से होने वाली मौतों में काफी गिरावट आई, जिसके परिणामस्वरूप औसत आयु बढ़ी।
लांसेट ने ध्यान दिलाया है कि कोरोना महामारी के दौरान बड़ी संख्या में मौतें नहीं होतीं, तो जीवन प्रत्याशा बढ़ाने की दिशा में दुनिया में प्रगति और प्रभावशाली दिखती। बहरहाल, इस अध्ययन से भारत को यह सबक लेने की जरूरत है कि जीडीपी केंद्रित सोच अपने आप में पर्याप्त नहीं है। असल मोर्चा मानव विकास का है, जिसमें भारत का रिकॉर्ड औसत बना हुआ है।