अदालत के आदेश का अनादर चिंताजनक

दिवाली के अगले दिन छपे हुए अखबार तो नहीं आए लेकिन अखबारों और न्यूज चैनलों की वेबसाइट पर जो सुर्खियां दिखीं वो बेहद चिंताजनक थीं। एक न्यूज चैनल की हेडलाइन थी ‘धुएं में उड़ा सुप्रीम कोर्ट का आदेश’ तो एक दूसरी वेबसाइट ने लिखा ‘दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ीं’। दिवाली की रात दिल्ली के लोगों के एक समूह ने पटाखों पर पाबंदी के सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ाईं तो दूसरा समूह सर्वोच्च अदालत के आदेश के बेशर्म अनादर का बेबस साक्षी बना और सुबह होते होते पूरे देश को इसका पता चल गया। सो, पहला सवाल तो दिमाग में यह आता है कि इससे सुप्रीम कोर्ट की क्या इज्जत बची? लेकिन क्या सचमुच यह मामला सिर्फ सुप्रीम कोर्ट या उसके मौजूदा चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ या पटाखों पर पाबंदी के आदेश देने वाली पीठ के जजों की इज्जत का है या देश, लोकतंत्र, संवैधानिक संस्थाओं और करोड़ों अन्य लोगों के सम्मान व उनके जीवन के अनादर का मामला है? क्या यह देश और राज्य की सरकारों के लिए शर्म की बात नहीं होनी चाहिए कि वे सर्वोच्च अदालत के आदेश का अनुपालन नहीं करा पाए? इन सवालों के जवाब बहुत सरल नहीं हैं।

पटाखों पर पाबंदी के आदेश का उल्लंघन कई पहलुओं से भविष्य के लिए खतरनाक और चिंताजनक है। इसमें एक पहलू धर्म का है। दूसरा पहलू न्यायपालिका के सम्मान का है, जिसकी रक्षा करना सरकार और नागरिक दोनों की जिम्मेदारी है और तीसरा पहलू करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य का है। पटाखों पर पाबंदी के मामले में धर्म का पहलू पहले दिन से जुड़ा है। एक बड़ा समुदाय ऐसा है, जो इसे हिंदू धर्म की मान्यताओं में अदालत के हस्तक्षेप के तौर पर देखता है। हालांकि ऐसा मानने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बारूद मुगलों के साथ भारत आया और उससे पहले दिवाली पर पटाखे चलाने की परम्परा नहीं थी। पटाखे चलाना दिवाली की पूजा पद्धति या परम्परा का हिस्सा नहीं है। अदालत ने अपने फैसले में कहा भी कि इस पर पाबंदी किसी के धार्मिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है। अदालत की यह टिप्पणी उसके आदेश के उल्लंघन का एक बड़ा कारण बनी।

असल में पिछले कुछ बरसों में हिंदुवादी संगठनों और देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा की ओर से हिंदुओं के जाग जाने या हिंदुओं के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का जैसा हल्ला बनाया गया है उसकी परीक्षा ऐसे मौकों पर की जाती है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से ही इसकी शुरुआत हो गई थी। सोशल मीडिया में लोगों से यह अपील की गई कि वे अपनी ताकत दिखाएं और सुप्रीम कोर्ट को उसकी जगह। लोगों से खुल कर पटाखे चलाने की अपील की गई। और दिवाली के अगले दिन सोशल मीडिया में सुप्रीम कोर्ट ट्विटर पर ट्रेंड करता रहा। लोगों ने पटाखे चलाने की वीडियो डाल कर सुप्रीम कोर्ट के लिए अभद्र टिप्पणियां की। समझदार लोगों ने भी यह सवाल उठाया कि सुप्रीम कोर्ट क्यों बार बार इस तरह के आदेश देता है, जिस पर अमल सम्भव नहीं है। सोचें, किसी दूसरे सभ्य देश में क्या ऐसा हो सकता है? सर्वोच्च अदालत कोई आदेश दे और उसका खुलेआम उल्लंघन हो और सरकारें व कानूनी एजेंसियां उसे चुपचाप देखती रहें?

याद करें कैसे केरल में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन हुआ था और तब देश के गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि अदालतों को ऐसे आदेश नहीं देने चाहिए, जिनका पालन नहीं किया जा सके। जिनके ऊपर अदालत के आदेश के अनुपालन की जिम्मेदारी है वो अगर ऐसी टिप्पणी करते हैं तो दिल्ली में पटाखों पर पाबंदी के आदेश के उल्लंघन को आसानी से समझा जा सकता है। इसका स्पष्ट संकेत यह है कि अदालतें बहुसंख्यक समुदाय के धर्म, मंदिर, त्योहार आदि के बारे में कोई ऐसा फैसला करती हैं, तो एजेंसियां उसे लागू कराने के लिए बाध्य नहीं होंगी और यह उस समुदाय के लोगों की मर्जी पर होगा कि वे इसका पालन करते हैं या नहीं करते हैं। दिल्ली इसकी मिसाल बनी है। दिवाली की रात जब पूरी दिल्ली में अदालत के आदेश का प्रतिरोध करने के लिए पटाखे फोड़े जा रहे थे तब अनेक सजग नागरिकों ने पुलिस को फोन किया लेकिन किसी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसकी कोई खबर नहीं है कि पुलिस ने कहीं पर लोगों को पटाखे चलाने से रोका या अदालत के आदेश का उल्लंघन करने वालों पर कार्रवाई की।

यही इस मामले का दूसरा पहलू है। कोई कार्रवाई नहीं करके केंद्र और उसकी एजेंसियों की ओर से अदालत को यह संदेश दिया गया है कि वह ऐसे फैसले नहीं करे, जिस पर अमल नहीं कराया जा सके। यह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए बेहद चिंताजनक बात है। भारत का संविधान विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण पर आधारित है। यह अलग बात है कि भारत में दो संस्थाएं- विधायिका और कार्यपालिका अलग अलग काम नहीं करती हैं। विधायिका का काम कार्यपालिका के फैसलों पर मुहर लगाने भर का रह गया है। लेकिन न्यायपालिका अब भी स्वतंत्र है और एक स्वायत्त संस्था के तौर पर काम करती है। परंतु मुश्किल यह है कि उसे अपने फैसलों के अनुपालन के लिए कार्यपालिका पर निर्भर रहना है। संवैधानिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक परम्परा के तहत यह कार्यपालिका की जिम्मेदारी बनती है कि वह न्यायपालिका के आदेशों पर अमल कराए। असहमत होते हुए भी उसे आदेश का अनुपालन सुनिश्चित करना होता है। दुर्भाग्य से भारत में यह परम्परा टूटती दिख रही है। सरकारें ऐसी प्रवृत्ति दिखा रही हैं कि वह उन्हीं आदेशों का अनुपालन सुनिश्चित करेंगी, जो उसके और उसके व्यापक मतदाता समूह की पसंद का हो। अभी यह काम धार्मिक मामलों में हो रहा है क्योंकि धर्म की अफीम चाट कर गाफिल पड़ी जनता को लग रहा है कि अदालत के आदेशों का उल्लंघन करके वह धार्मिक श्रेष्ठता साबित कर रही है। आने वाले दिनों में हो सकता है कि राजनीतिक मामलों में भी ऐसा होने लगे।

तीसरा पहलू स्वास्थ्य का है। यह ध्यान रखने की बात है कि पटाखों पर पाबंदी का सिर्फ और सिर्फ एक आधार यह कि इनसे प्रदूषण फैलता है। वायु गुणवत्ता खराब होती है, जिससे करोड़ों लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित होता है। यह बात वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित है। दिवाली की रात और अगले दिन की सुबह के आंकड़ों से भी यह बात प्रमाणित हुआ। एक रिपोर्ट के मुताबिक दिवाली की रात 12 बजे के करीब दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू मॉनिटरिंग स्टेशन पर पीएम 2.5 और पीएम 10 दोनों का स्तर एक हजार के करीब था यानी सामान्य से करीब 15 गुना ज्यादा। दिवाली की अगली सुबह दिल्ली का औसत वायु गुणवत्ता सूचकांक यानी एक्यूआई चार सौ के करीब था, जो गंभीर श्रेणी में है। ध्यान रहे दिवाली से दो दिन पहले हुई बारिश ने दिल्ली की हवा साफ कर दी थी और एक्यूआई में सुधार हुआ था। हालांकि तब भी वह खतरनाक श्रेणी में थी। फिर भी दिल्ली के लोगों ने राजनीतिक और धार्मिक कारणों से अदालत के आदेश की धज्जियां उड़ाईं। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि इससे करोड़ों लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ेगा।

सर्दियों में दिल्ली के पड़ोसी राज्यों में पराली जलाने, गाड़ियों के धुएं और पटाखों की वजह से हवा जहरीली हो जाती है। दिल्ली गैस चैम्बर में तब्दील हो जाती है। तभी सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली सरकार ने पटाखों पर पाबंदी लगाई। अदालत ने बेरियम युक्त पटाखों पर पूरे देश में पाबंदी लगाई है। इसके बावजूद दिल्ली में लोगों ने धुआं धुआं कर दिया और बड़े गर्व से सोशल मीडिया में इसका प्रचार किया। हकीकत यह है कि वायु प्रदूषण आने वाली पीढ़ियों को बीमार और विकलांग बना रहा है। भारत में वायु प्रदूषण के कारण 2019 में एक लाख 60 हजार नवजात बच्चे जन्म के 27 दिन के अंदर मर गए थे। वायु प्रदूषण के कारण हर पांच मिनट में भारत में एक नवजात बच्चे की मौत हो रही है। नौजवान अस्थमा के मरीज बन रहे हैं और बुजुर्गों का जीवन बेहाल हो रहा है। अगर इसे नहीं रोका गया तो विकसित देश बनने से पहले भारत एक बीमार देश बनेगा।

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