टैक्स के मकड़जाल में छटपटाता आमजन
घटती आमदनी व लगातार बढ़ती महंगाई ने आम आदमी के जीवन की डगर कठिन बना दी है, जहां गरीब दो वक्त की रोटी तक हासिल करने में विफल हो रहा है वहीं मध्यम वर्ग अपने जीवन स्तर को बनाए रखने व जरूरी संसाधन जुटाने में खुद को असहाय महसूस कर रहा है। सरकार आमदनी व खर्चे के हर स्त्रोत पर भारी टैक्स वसूल रही है। हालांकि कराधान से प्राप्त आय का मुख्य उद्देश्य देश का आर्थिक सशक्तिकरण, सर्वांगीण विकास, गरीबी व असमानता को कम करना तथा महंगाई पर नियंत्रण करना है लेकिन स्थिति इसके विपरीत है।
सीमित आय पाने वाले वेतनभोगी, आयकर की बढ़ती वसूली के साथ आटा, दाल, नून, तेल, रसोई गैस, पेट्रोल-डीजल के दामों में वृद्धि, परिवार के स्वास्थ्य, बच्चों की शिक्षा व जीएसटी सहित विभिन्न टैक्सों के मकड़जाल में छटपटा रहे हैं। कुल आय ढाई लाख रुपए से अधिक होने पर, प्रत्येक व्यक्ति को आयकर का भुगतान करना होता है। वेतनभोगी जो ईमानदार करदाता है, जिसकी आय सार्वजनिक होती है और आंकड़ों में कोई स्याह-सफेद नहीं होता, कुल जनसंख्या के करीब चार प्रतिशत इन वेतनभोगियों से ही अधिकाधिक वसूली करने पर भारत सरकार अपनी नजरें गड़ाई रहती है।
सरकार वेतन पर तो अच्छा खासा आयकर लेती ही है, मकान किराया भत्ता (एचआरए), परिवहन भत्ता आदि जो कर्मी को भुगतान करने होते हैं, उन पर भी आयकर लेती है। और तो और आयकर अदा करने के उपरांत बचे हुए पैसे से परिवार के भविष्य के लिए, बच्चों की शिक्षा-शादी आदि के लिए अगर बचत के निमित्त म्युचुअल फंड, बांड जैसी प्रतिभूतियों लेता है तो उससे प्राप्त लाभांश पर भी आयकर लिया जा रहा है। आयकरदाता से शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर उपकर के रूप में चार प्रतिशत अतिरिक्त कर लिया जाता है लेकिन इन मदों में पर्याप्त खर्च नहीं किया जाता है। शिक्षा इस कदर महंगी है कि लाखों बच्चे विदेश पढ़ने जाते हैं क्योंकि वहां शिक्षा सस्ती है और सरकारी अस्पतालों में तो इलाज, दवाई, डॉक्टर की कमी के कारण निजी अस्पतालों को लूट की छूट है।
वेतनभोगी लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है क्योंकि उनके पास पहुंचने से पहले ही उनका आयकर काट लिया जाता है। वित्त वर्ष एक अप्रैल से अगले कैलेंडर वर्ष के 31 मार्च तक की अवधि मानी जाती है, स्रोत पर कर कटौती (टीडीएस) के रूप में सरकार आयकरदाता को अग्रिम भुगतान के लिए मजबूर करती है। गजब देखिए कि करदाता को वित्त वर्ष एक अप्रैल से 31 मार्च तक यानी 12 माह में हुई आय पर कर देना होता है, तो जाहिर है कि 31 मार्च के बाद कुछ समय के अंदर तक ही आय की पूर्ण गणना व कर का आकलन किया जा सकता है लेकिन वेतनभोगी यदि कर के बराबर की राशि 31 मार्च तक ‘अग्रिम भुगतान’ न कर पाए या आकलन में कमी के कारण कुछ धनराशि कम अदा कर पाए तो भारत सरकार उसे आरोपी मान कथित धनराशि तो वसूलती ही है, साथ में उस पर ब्याज व जुर्माना भी वसूलती है। जो वेतनभोगी लोग अपनी आय नहीं छिपाते हैं, ईमानदार व विश्वसनीय करदाता हैं, उनके प्रति सरकार का यह कैसा नजरिया है!
आलम यह है कि कुल जनसंख्या के करीब 6 प्रतिशत लोग ही आयकर देते हैं, जिसके बल पर भारत सरकार दानवीर बन आयकर न देने वालों को तो सुविधा प्रदान करती है लेकिन करदाताओं को उनके द्वारा भुगतान किए जाने वाले कर से कोई सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, सम्मान या विशेषाधिकार जैसा कुछ भी नहीं मिलता है। बचत खाते पर वर्ष 2015 तक बैंक पांच-छह प्रतिशत ब्याज प्रदान करते थे, इसे घटा कर ढाई प्रतिशत कर दिया और मिलने वाले ब्याज पर भी आयकर लगा दिया गया है, जबकि बैंक खुद 11-15 प्रतिशत या उससे भी अधिक ब्याज लेते हैं।
आरंभिक काल से ही भारतीय समाज विशेषकर गृहणियों में थोड़ा-थोड़ा बचत करने का प्रचलन रहा है, नवंबर 2016 में हुई नोटबंदी ने उनकी इस आदत को धराशायी कर दिया। बच्चों की शिक्षा-बेटी की शादी के लिए माता-पिता उनके पैदा होने से ही पाई-पाई बचत करने में जुट जाते हैं लेकिन बैंकों में बचत खाते पर ब्याज कम कर दिया गया, बैंकों के डूबने की बढ़ती घटनाएं, आयकर देने के बाद बची धनराशि को प्रतिभूति या बैंक में रखने पर हुए लाभांश पर भी आयकर, अपने ही पैसे को निकालने या घर रखने पर सीमा तय कर, भारत सरकार ने वर्षों पुरानी बचत करने की मानसिकता पर प्रहार किया है, आमजन को बचत के प्रति निरुत्साहित किया है।
सरकारी कर्मियों को सेवानिवृत्ति के उपरांत देय मासिक पेंशन योजना बंद कर दी गई, इसलिए पुरानी पेंशन बहाल करने की मांग हो रही है। यह आक्रोश इसलिए भी है कि सांसद या विधायक को लाखों रुपए प्रतिमाह करमुक्त भत्ते-वेतन, सारी जिंदगी पेंशन, पति-पत्नी और एक सहायक सहित किसी भी ट्रेन में प्रथम श्रेणी वातानुकूलित या हवाई जहाज की कार्यकारी श्रेणी में मुफ्त यात्रा, परिवार सहित मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा के साथ मुफ्त पेट्रोल, मुफ्त टेलीफोन-मोबाइल कॉल, मुफ्त आवास तथा फर्नीचर, बिजली, पानी, कपड़े धोने तक का भुगतान किया जाता है। कई सांसद, विधायक, अमीर, उद्योगपति और व्यवसायी खुद को किसान बता आयकर की चोरी करते हैं और कृषि सब्सिडी का लाभ ले रहे हैं। वर्ष 2018 में, संसद ने सांसदों के वेतन और भत्तों में वृद्धि का और फैसला किया कि हर पांच वर्ष में सांसदों के वेतन, दैनिक भत्ता और पेंशन में वृद्धि की जाएगी। यह भी तय किया कि वर्ष 2018 में हुई वृद्धि सात वर्ष पहले से यानी वर्ष 2011 से लागू होगी। जबकि मार्च 2020 में कोरोना संक्रमण आरंभ होने पर सरकारी कर्मियों का महंगाई भत्ता (डीए) न केवल डेढ़ वर्ष तक का नहीं दिया गया, बल्कि कोरोना के नाम पर संक्रमण आने के ढाई माह पूर्व जनवरी 2020 से घोषित डीए भी वापस ले लिया, इससे कर्मचारियों को दो-तीन लाख रुपए का नुकसान हुआ। जबकि आर्थिक तंगी के बावजूद सांसदों को सात वर्ष पहले से दे मालामाल बना दिया।
एक जुलाई 2017 से देश में जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) लागू कर दिया गया, इसके तहत पांच से 28 प्रतिशत कर लगाए गए हैं। भारत सरकार का दावा था कि विनिर्माता से उपभोक्ता तक पहले बिंदु पर एकल कर लगेगा, जिससे आम आदमी को लाभ होगा। लेकिन हुआ इसके उलट, जीएसटी ने जहां व्यापारियों में खाते से संबंधित मुश्किलें बढ़ा दी, वहीं आम आदमी पर करों का बोझ बढ़ा दिया, जिससे जीएसटी के चलते कीमतों में कमी आने की बजाए वृद्धि हुई। जनता को लाभ का झांसा देने वाली केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के जीएसटी लागू करने से पहले के मुकाबले वर्तमान में कुल जीएसटी संग्रह में बेतहाशा वृद्धि हुई है। प्रति वित्तीय वर्ष, कुल जीएसटी संग्रह लगभग 15 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया है।
आटा, दाल, दूध, खाद्य तेल, मसाले, चाय, कोयला, जीवनरक्षक दवाएं, इंसुलिन, बालों का तेल, टूथपेस्ट, साबुन, पुस्तकें, नोटबुक, स्कूल बैग, हैंड बैग, सिलाई मशीन, चटाई, आटा चक्की, अगरबत्ती, डीजल इंजन, ट्रैक्टर टायर-ट्यूब, टेलीविजन, कंप्यूटर मॉनिटर, सेलफोन आदि दैनिक उपयोग की चीजों पर जीएसटी, गरीब, मजदूर, निम्न व मध्यम वर्ग से वसूला जा रहा है।
पेट्रोल और डीजल पर केंद्रीय करों में वृद्धि और राज्य के वैट के चलते प्रति लीटर एक सौ रुपए के पार कर गया, इनसे सरकार का कर संग्रह पिछले छह वर्षों में तीन सौ प्रतिशत से अधिक बढ़ गया। पेट्रोल, डीजल पर उत्पाद शुल्क संग्रह साढ़े तीन लाख करोड़ रुपए से अधिक है, इससे आम जनता त्रस्त है, साथ ही माल ढोने पर लागत के बढ़ने से जरुरी वस्तुओं पर जीएसटी के साथ एमआरपी में भी वृद्धि हुई है। वर्ष 2014 में 410 रुपए का रसोई गैस का सिलेंडर, आज 1050-1100 रु हो गया है और आमजन विशेषकर ग्रामीण व गरीब की पहुंच से बाहर हो गया है।
महंगाई पर नियंत्रण व व्यक्तिगत कराधान में राहत की आवश्यकता है लेकिन भारत सरकार को केवल कॉरपोरेट क्षेत्र ही नजर आता है। एक तरफ कॉरपोरेट क्षेत्र को आयकर में राहत दी गई, दूसरी ओर बैंकों से कर्ज लेने के बाद इरादतन न चुकाने वाले व भगोड़े उद्यमियों के कर्ज के लगभग 12 लाख करोड़ रुपए बैंकों ने बट्टे खाते (राइट-ऑफ) में डाल दिए हैं। मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यन ने भी नसीहत दी थी, कि ‘यारी-दोस्ती में कर्ज बांटने से बचें और कर्ज देते हुए मानकों पर ध्यान दें’। हालांकि सच्चाई यह है कि कर्ज यार-दोस्तों व जान-पहचान वालों को दिया जाता है, आमजन, युवा, घरेलू-कुटीर उद्योग लगाने वालों को बिना जान-पहचान के कर्ज कौन देता है!
केंद्र सरकार विभिन्न प्रकार के कर लगाती है ताकि सरकार रक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च करे लेकिन वर्तमान में उनका बजट कम किया जा रहा है। केंद्र सरकार द्वारा आयकरदाताओं, पेट्रोल, डीजल आदि पर उपकर (सेस) वसूला जाता है लेकिन जिस मद में धनराशि एकत्र की जाती है, उस निमित्त सरकार पूरा खर्च नहीं करती है। अर्थशास्त्र के रचियता कौटिल्य मानते हैं कि कराधान दाल में नमक के बराबर होना चाहिए यानी कर सदैव करदाता को हल्का लगे, जिसे वह बिना किसी कठिनाई व कर चोरी के चुका सके। सरकार की विश्वसनीयता, भ्रष्टाचार पर अंकुश और सेवाओं की गुणवत्ता हो ताकि लोग करों का भुगतान करने में गर्व महसूस कर सके।