सत्ता परिवर्तन तो हुए पर व्यवस्था नहीं बदली

भारत आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। इस दौर में पं. जवाहर लाल नेहरु से नरेंद्र मोदी तक देश ने 15 प्रधानमंत्रियों का कार्यकाल देखा है। पं. नेहरु को सबसे पहले आजाद भारत का नवनिर्माण करने व ब्रिटेन की थोपी गई व्यवस्था को बदलने का अवसर मिला। यह ऐसा समय था जब प्रधानमंत्री नेहरु और उनके सहयोगियों को एक बुनियादी निर्णय लेना था, कि देश अंग्रेजों के पदचिन्हों पर चलेगा या अपना रास्ता खुद तलाश करेगा, अपने देश के माकूल अपनी व्यवस्था स्थापित करेगा। कांग्रेस के नेता विशेषकर पं. नेहरु, आम लोगों के बीच इतने लोकप्रिय थे कि वे किसी भी तरह के निर्णय ले सकते थे और लोग स्वेच्छा से स्वीकार भी करते पर उन्होंने आमूल-चूल व्यवस्था परिवर्तन करने का जोखिम नहीं उठाया। संभवतः ब्रिटिश रहन-सहन व तौर-तरीकों का आकर्षण नव-शासकों के अवचेतन मन पर प्रभावी था। हालांकि यह भी सही है कि पं. नेहरु सहित लगभग सभी प्रधानमंत्रियों ने देश को विकास की ओर अग्रसर करने के लिए बुनियादी ढांचे को सक्षम बनाया, सड़क, यातायात, संचार, सुरक्षा, शिक्षण व स्वास्थ संस्थानों आदि साधनों पर सार्थक प्रयास किए।

ब्रिटेन ने अपने हित साधने के लिए 1919 व 1935 के अधिनियम द्वारा केंद्र में द्वैध शासन स्थापित किया, जिसका उद्देश्य देश में एक सरकार के तहत सरकारी गतिविधि को विभिन्न विभागों में विभाजित किया गया, यह विरासत वर्तमान सरकारी व्यवस्था को भी हस्तांतरित की गई। सरकार के मंत्रियों को रुतबा, सुख एवं समृद्धि, मुफ्त ऐशो-आराम हासिल हुआ हालांकि वे सरकार के मुखौटे थे, जबकि अत्यधिक भुगतान वाली, शक्ति संपन्न नौकरशाही के माध्यम से अंग्रेजों ने भारत पर शासन किया और उसी को आजाद भारत ने भी अपनाया। सरकार ने संसदीय स्वरुप अपनाया, जिसमें ब्रिटेन में प्रचलित प्रणाली ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’, के रुप में अधिक मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार निर्वाचित हो जाता है, भले ही जीतने वाले उम्मीदवार को 20-25 प्रतिशत या इससे भी कम मत मिलें, और उसके विरुद्ध 75-80 प्रतिशत विभाजित मत पड़े हों।

पं. नेहरु के करिश्माई व्यक्तित्व और कांग्रेस को भारत की आजादी का श्रेय हासिल होने के वावजूद, संसद के पहले आम चुनाव 1952 में कांग्रेस को 44.99 प्रतिशत मत ही मिले यानी देश के 55 प्रतिशत से अधिक लोगों ने कांग्रेस को नकार दिया था। 1989 में मात्र 17.79 प्रतिशत मत पाने वाले जनता दल ने विपरीत धुरी वाली बीजेपी (11.36 प्रतिशत) व कम्युनिस्ट (9.12 प्रतिशत) के साथ वीपी सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई, जबकि तब भी कांग्रेस को 39.53 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। 1996 में तो मात्र 8.08 प्रतिशत मत पाने वाली पार्टी के नेता एचडी देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बना दिया गया। 1998 में 25.59 प्रतिशत मत पाने वाली बीजेपी ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनाई, 1999 में 23.75 प्रतिशत मत पाकर बीजेपी ने फिर सरकार बनाई। 2004 में कांग्रेस ने 26.53 प्रतिशत और 2009 में 28.55 प्रतिशत मत पाकर सरकार बनाई, जबकि 2014 में बीजेपी ने 31 प्रतिशत और 2019 में 37.36 प्रतिशत मत पाकर सरकार बनाई। देश के 55 से 70 प्रतिशत लोगों के मत विरोध में पड़ते हों, तो कैसे ये सरकारें देश के समर्थन का दावा कर सकती हैं और कैसे ये संपूर्ण देश के निमित्त फैसला ले सकते हैं? जब राष्ट्रपति चुनाव में, जीतने के लिए सांसदों और विधायकों (मतदाताओं) के कुल मतों का आधे से अधिक हासिल करना होता है। तो प्रधानमंत्री के मामले में 50 प्रतिशत से अधिक लोगों के मतों के समर्थन की प्रणाली क्यों नहीं रखी गई? ब्रिटेन प्रदत ‘प्रेसिडेंट’ शब्द का अनुवाद राष्ट्रपति किया गया, सभी भारतीय अपने को राष्ट्र की संतान मानते हैं ऐसे में कोई पुत्र या पुत्री राष्ट्र का ‘पति’ कैसे हो सकता है, हर पांच वर्ष में इस पद पर व्यक्ति बदल जाता है।

ब्रिटिश शासन की विरासत के रुप में भारत ने न्यायतंत्र, सुप्रीम कोर्ट, आपराधिक प्रक्रिया संहिता को अपनाया, मैकाले की सिफारिशों पर निर्मित भारतीय दंड संहिता 1860, भारत में आज भी लागू है। 1857 की क्रांति से बौखलाए ब्रिटेन ने अंग्रेज सरकार के खिलाफ किसी भी विद्रोह से निपटने के लिए 1861 में असीमित अधिकारों वाले पुलिस एक्ट के साथ पुलिस बल की स्थापना की, पुलिस को जनता की सेवक के रुप में नहीं, बल्कि भारतीयों पर अंकुश लगाने के निमित्त एक बल के रुप में तैयार किया। संप्रभु गणराज्य होने के बावजूद भारत में यह कानून अभी भी व्यवहार में है, केंद्र में कई बार सत्ता परिवर्तन हुए पर ब्रिटेन प्रदत पुलिस एक्ट जारी रहा। संभवतः सत्तारुढ़ होने के बाद सभी दल पुलिस के बल पर शासन में बने रहना चाहते हैं। अंग्रेजों की नजर में संगीन माने जाने वाले अपराधों के लिए मौत की सजा निर्धारित की गई, स्वतंत्रता के बाद भी यह जारी रही।

अंग्रेजों ने अनैतिक कानून बनाए और कानून के शासन के नाम पर आदिवासी, क्रांतिकारी व आंदोलनकारियों को निशाना बनाया। ‘काकोरी रेल डकैती’ में गलती से गोली चलाने वाले मन्मथनाथ गुप्त को तो कारावास लेकिन रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी व रोशन सिंह को अंग्रेजों द्वारा सीधे फांसी दे दी गई, जबकि रोशन सिंह तो इस डकैती में शामिल भी नहीं थे। साण्डर्स को मारने वाले भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु व जयगोपाल थे, जयगोपाल सरकारी गवाह बन गया व आजाद पुलिस के हाथ नहीं आए। भगत सिंह व राजगुरु को तो हत्या के आरोप में फांसी हुई, लेकिन सुखदेव को फांसी क्यों हुई, जबकि वे तो इस हत्याकांड में शामिल ही नहीं थे! कानून के शासन के नाम पर अंग्रेजों द्वारा न्याय की हत्या की गई।

विधेयक व नीतियों पर देशहित में सरकार व दल से ऊपर संसद व विधानसभा में चर्चा करने व स्वतंत्र विचार रखने से रोकने के लिए ‘व्हिप’ के रुप में राजनीतिक दल को अंग्रेजों ने एक हथियार दिया जो सदन में पार्टी के निर्देश को पालन करने के लिए बाध्य करता है। अंग्रेजों को तो खतरा था कि सदन में निर्वाचित भारतीय अपनी आजादी या क्रांतिकारियों के समर्थन में स्वतंत्र विचार रख सकते हैं लेकिन आजाद भारत में व्हिप क्यों जारी है?

‘फूट डालो और राज करो’, तुष्टीकरण नीति, सांप्रदायिक आधार पर रियायतें, जातिवाद को प्रोत्साहन व संप्रदायों के व्यक्तिगत कानून, अंग्रेजों से विरासत में मिले, 75 साल बाद भी भारत इनका सामना कर रहा है। अंग्रेजों ने भाषा के रुप में अंग्रेजी पर आधारित शिक्षा प्रणाली विकसित की, आज भी शिक्षा में अंग्रेजी को प्रमुखता दी जाती है। भारत में न्यायालय की सामान्य भाषा व बहस में आज भी अंग्रेजी का उपयोग होता है। व्यापार और आर्थिक नीति, विदेशी अर्थव्यवस्था और पूंजीपति वर्ग के हितों में निर्धारित की गई जो अभी जारी है। हालांकि आजीदी के बाद पूंजीपतियों ने बुनियादी ढांचे के निर्माण में सहयोग करने से इनकार कर दिया था, भारत सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों के माध्यम से इसका प्रबंध किया। अंग्रेजों ने सशस्त्र बलों को आम जनता व आबादी से अलग रखा ताकि जनता की तकलीफ, उन्हें सरकार के प्रति बागी न कर दें, शराब व साधनों का प्रबंध किया।

जून 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की सिफारिश पर देश में आपातकाल लगा, विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और संस्थाओं ने घुटने टेक दिए या कुचल दिए गए। कांग्रेस सरकार के आतंक और दमन के विरुद्ध तब स्वतन्त्रता सेनानी जयप्रकाश नारायण ने मोर्चा संभाला। महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, शिक्षा व्यवस्था में गिरावट आदि समस्याओं से त्रस्त जनता को ‘व्यवस्था परिवर्तन के लिए सत्ता परिवर्तन’ का आह्वान किया। 21 मार्च 1977 को आपातकाल समाप्त हुआ, जेपी के मार्गदर्शन में कांग्रेस (ओ), जनसंघ, लोकदल, समाजवादियों आदि विपक्षी दलों ने साथ आकर, जनता पार्टी के तत्वावधान में चुनाव लड़ा और कांग्रेस को परास्त कर बहुमत हासिल किया। लेकिन अहम के टकराव व आरएसएस-जनसंघ गठजोड़ के कारण 1979 में जनता पार्टी की सरकार गिर गई, जयप्रकाश नारायण का ‘व्यवस्था परिवर्तन’ का आगाज सपना ही रह गया।

आरंभ में ईस्ट इंडिया कंपनी, तदुपरान्त ब्रिटिश सरकार ने भारत को विदेशी वस्तुओं का बाजार बनाया, भारतीयों ने 1905 के उपरान्त विदेशी वस्तुओं को जलाने एवं बहिष्कार आंदोलन चलाया, आज भारतीय बाजार पर चीन का कब्जा है, भारतीय उद्योग एवं व्यापार मरणासन्न है। ब्रिटिश जागीरदारों एवं साहुकारों से सांठगांठ कर भारतीयों से धन-संपदा की लूट करते थे, आज भी सरकारें पूंजीपतियों का हित साध रही हैं। अमीर और अमीर, गरीब और गरीब हो रहा है। सत्तारुढ़ होने के बाद, जिन नेताओं व दलों के पास व्यवस्था को बदलने का मौका होता है, वे मौजूदा प्रणाली जिसका दुरुपयोग देशवासी और वह खुद भुगत चुके होते हैं, का उपयोग कर सत्ता में बने रहना चाहते हैं और व्यवस्था बदलने से कन्नी काट लेते हैं। सरकार कॉरपोरेट के हित में जनहित को नजरअंदाज करती है, भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाती है, राष्ट्रवाद की दुहाई के साथ भय का वातावरण बना सत्ता में बने रहना चाहती है। ‘व्यवस्था परिवर्तन’ की मांग अभी जारी है, देश को एक और जयप्रकाश नारायण का इंतजार है।

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