क्या संवैधानिक संगठन अपनी ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघ रहे है….?
हमारे संविधान को गीता-रामायण-भागवत की तरह ‘धर्मग्रंथ’ मानकर उसकी दुहाई देने वाले सरकारी संवैधानिक संगठन जब स्वयं संविधान में वर्णित एक-दूसरे की सीमाएं लांघने लगे, तब उस प्रजातांत्रिक देश का क्या हश्र होता है, यह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है, किंतु हमारे देश में तो यह गैर संवैधानिक कृत्य पिछले कई दशकों से चल रहा है और अब तो ये संगठन स्वीकारने लगे कि वे संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन कर रहे है, फिर भी गरिया कर ऐसा करते रहने की सार्वजनिक घोषणा भी कर रहे है।
सवाल… संवैधानिक दायरें का
एक जनतंत्री देश में ऐसी स्थिति तभी पैदा होती है जब केन्द्र में विराजित सरकार सभी संवैधानिक मर्यादाओं को लांघकर निरंकुश हो शासन करें, तभी दूसरे संवैधानिक संगठनों में भी गैर संवैधानिक कृत्य करने का होसला पैदा हो जाता है और आज ठीक यही हमारे विश्व के सबसे बड़े इस लोकतंत्री देश में हो रहे है, हमने आज से पचहत्तर साल पहले आजादी तो प्राप्त कर ली, किंतु सही अर्थों में आजाद देश की सरकार प्रजातांत्रिक तरीके से चलाने के तौर-तरीके आज तक भी नहीं सीखें, आजादी के बाद पं. जवाहर लाल नेहरू ने अपने तरीके से सरकार चलाई, फिर इंदिरा जी आई जिन्होंने आपातकाल का सहारा लेकर दबंगी सरकार चलाई और अब पिछले आठ वर्षों से भारतीय जनता पार्टी की मोदी जी के नेतृत्व वाली सरकार अपने तौर-तरीकों से चल रही है, इन 75 सालों का दुर्भाग्य यही है कि आज तक देश और देशवासी के बारे में सही अर्थों में किसी भी सरकार ने नहीं सोचा, सभी ने अपने राजनीतिक मकसद पूरे किए, अपने घर भरे और चला दिये और यही सरकारी प्रक्रिया अभी भी जारी है, नेतृत्व चाहे कितना ही ईमानदार हो, पर सरकार ईमानदार रहे तक न?
हाँ…. तो मूल चर्चा का विषय आज संवैधानिक मर्यादा है, प्रजातंत्र की मूल परिभाषा-‘‘जनता की, जनता के लिए और जनता के द्वारा सरकार’’ है, किंतु क्या परिभाषा के इस दायरे में हमारी सरकार व हमारा प्रजातंत्र फीट हो पा रहा है? प्रजातंत्र के तीन अंग कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका है, क्या आज ये तीनों अंग संवैधानिक दायरें में अपना-अपना दायित्व निभाने में अपने आपको सक्षम पा रहे है? क्या ये अंग एक-दूसरे के दायरें में हस्तक्षेप नहीं कर रहे है? क्या विधायिका (अर्थात् सरकार) शेष दोनों अंगों पर हावी होने का प्रयास नहीं कर रही है? इसलिए नोटबंदी विवाद के मामले में आज न्यायपालिका को यह कहना पड़ रहा है कि ‘‘हम अपनी हद जानते है, लेकिन फिर भी हमें इस पर विचार कर फैसला लेना पड़ेगा।’’ यह सबसे ताजा उदाहरण है। जिसके तहत सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार व रिजर्व बैंक दोनों को नोटिस थमाये है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि ‘‘सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक बैंच के पास आए किसी भी मामले पर सुनवाई करना सुप्रीम कोर्ट का प्रमुख कर्तव्य है’’।
संवैधानिक संगठनों की टकराहट या कानूनी विवाद का यह कोई नया या पहला मामला नहीं है, इसके पहले भी चुनाव आयोग तथा अन्य संवैधानिक संगठनों के साथ हस्तक्षेप सम्बंधी विवाद हो चुके है, अभी केन्द्र की ‘दादागीरी’ सुप्रीम कोर्ट या न्यायपालिका पर तो नहीं चल पा रही है, किंतु चुनाव आयोग जैसे अन्य संवैधानिक संगठन है जिस पर केन्द्र सरकार पालथी लगाकर बैठी है और वहां वही सब कुछ हो रहा है जो सरकार चाहती है और इन संगठनों के प्रमुखों के पदों पर भी ‘जी-हुजूरी’ करने वाले ही बैठाये जा रहे है। अर्थात् कुल मिलाकर आज एक मात्र न्यायपालिका ही है, जहां सरकार की ‘दादागीरी’ नही चल पा रही है, शेष संवैधानिक संगठनों का अब संविधान या नियम-कानून से दूर का भी वास्ता नहीं रहा। आज तो ‘‘होई है वही जो मोदी रूचि राखा’’ मंत्र का हर कहीं पाठ हो रहा है, फिर वह चाहे संवैधानिक दायरे में आता हो या नहीं? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसीलिए अब देश की जनता का भी एकमात्र न्यायपालिका पर ही विश्वास शेष बचा है और उसी पर पूरे देश की निगाह है।