रोजगार सबसे बड़ा संकट

महंगाई एक बड़ी समस्या है, जिससे इस समय पूरा देश जूझ रहा है। सांप्रदायिक हिंसा और समाज में जहर घोलने वाली घटनाएं भी कम चिंता की बात नहीं हैं। बदलती विश्व व्यवस्था और सीमा पर बढ़ रहा तनाव भी एक संकट है। लेकिन इन सबसे बड़ा संकट रोजगार का है। यह दुर्भाग्य की बात है कि दुनिया की सबसे अधिक युवा आबादी वाला देश सर्वाधिक बेरोजगार और निराश युवाओं का देश बन गया है। देश की बड़ी आबादी रोजगार मिलने की उम्मीद छोड़ चुकी है। नौकरी तलाशना बंद कर चुकी है या अपनी योग्यता व क्षमता से कहीं कम दर्जे की नौकरी से संतोष कर रही है। इससे देश की बड़ी आबादी में निराशा और कुंठा पैदा हो रही है, जो देश के भविष्य को नकारात्मक तरीके से प्रभावित कर रही है।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी यानी सीएमआईई ने रोजगार, बेरोजगारी और लेबर फोर्स पार्टिशिपेशन रेट यानी एलएफपीआर को लेकर एक रिपोर्ट दी है। लेकिन सीएमआईई का आंकड़ा इकलौता संकेतक नहीं है, जिससे देश में रोजगार की स्थिति का पता चलता है। दूसरे कई आंकडों और सामान्य समाचारों से भी रोजगार की स्थिति का अंदाजा हो रहा है। मिसाल के तौर पर मनरेगा का आंकड़ा है। जिस समय प्रधानमंत्री संसद में इस योजना का मजाक उड़ा रहे थे और इसे यूपीए सरकार की विफलता का स्मारक बता रहे थे उस समय यानी 2014-15 में देश में 4.13 करोड़ परिवार मनरेगा से जुड़े थे। कोरोना वायरस की महामारी शुरू होने से ठीक पहले वित्त वर्ष 2019-20 में मनरेगा से रोजगार हासिल करने वाले परिवारों की संख्या बढ़ कर 5.48 करोड़ हो गई। महामारी के दौरान 7.55 करोड़ परिवारों को मनरेगा में रोजगार मिला और अब भी 7.28 करोड़ परिवार मनरेगा से रोजगार हासिल कर अपना जीवन चला रहे हैं।

मनरेगा पर इतने परिवारों की निर्भरता इस बात का संकेत है कि संगठित या असंगठित सेक्टर में भी रोजगार नहीं है और मजबूरी में लोग न्यूनतम मजदूरी पर मनरेगा में काम कर रहे हैं। यह आंकड़ा एक तस्वीर दिखाता है तो दूसरी तस्वीर हरियाणा के भिवानी में पेड़ से लटक कर खुदकुशी करने वाले नौजवान की है। सेना में भर्ती की तैयारी कर रहे नौजवान ने उसी मैदान में खुदकुशी करके जान दे दी, जहां वह सेना में भर्ती की तैयारी करता था। पिछले तीन साल से सेना में भर्ती नहीं निकली है और इस बीच उस नौजवान की उम्र न्यूनतम सीमा से ज्यादा हो गई। राष्ट्रसेवा का संकल्प कर चुके इस नौजवान ने खुदकुशी करने से पहले अपने पिता को लिखे संदेश में कहा- बापू इस जनम में नहीं बन सका, अगला जनम लिया तो फौजी जरूर बनूंगा। सोचें, कैसी सघन नाउम्मीदी और असहायता रही होगी, जब उस नौजवान ने जान देने का फैसला किया होगा? यह एक प्रतीकात्मक घटना है, जिसकी गंभीरता और व्यापक आयाम को समझने की जरूरत है।

यह नाउम्मीदी और बेबसी नौजवानों में बढ़ती जा रही है। सीएमआईई ने अपने ताजा आंकड़ों में बताया है कि वर्किंग एज ग्रुप में 60 फीसदी लोगों ने रोजगार तलाशना ही बंद कर दिया है। वे थक हार कर बैठ गए हैं और मान लिया है कि उन्हें रोजगार नहीं मिल पाएगा। यह आंकड़ा लेबर फोर्स पार्टिशिपेशन रेट यानी एलएफपीआर का है। नोटबंदी से ठीक पहले 2015-16 में एलएफपीआर 47 फीसदी था यानी उस समय भी 53 फीसदी लोग रोजगार की उम्मीद छोड़ चुके थे। अगले पांच साल में रोजगार तलाशने वालों की संख्या 47 से गिर कर 40 फीसदी रह गई और 60 फीसदी लोग रोजगार हासिल होने से नाउम्मीद होकर बैठ गए। भारत में लेबर फोर्स पार्टिशिपेशन रेट वैश्विक औसत से तो नीचे है ही, बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देश के औसत से भी नीचे है। भारत के संदर्भ में यह आंकड़ा इसलिए भी ज्यादा चिंताजनक है क्योंकि महिलाओं के मामले में एलएफपीआर 9.4 फीसदी है। इसका मतलब है कि भारत में 10 में सिर्फ एक महिला रोजगार की तलाश कर रही है और बाकियों को या तो रोजगार नहीं चाहिए या उन्होंने मान लिया है उनको उनकी योग्यता और क्षमता के मुताबिक रोजगार नहीं मिलेगा।

भारत में आमतौर पर बेरोजगारी दर या रोजगार दर के आधार पर यह आकलन किया जाता है कि सरकार इस क्षेत्र में कैसा काम कर रही है। लेकिन उससे अधूरी तस्वीर सामने आती है। रोजगार या बेरोजगारी दर का आकलन एलएफपीआर के आधार पर होता है। यानी जितने लोग नौकरी की तलाश कर रहे हैं उनमें से कितने लोगों को नौकरी मिल रही है या नहीं मिल रही है, इसके आधार पर रोजगार या बेरोजगारी दर का आंकड़ा तय होता है। दुनिया के देशों की औसत एलएफपीआर 60 फीसदी है यानी सौ में से 60 लोग नौकरी या रोजगार की तलाश करते हैं। भारत में पिछले एक दशक से लगातार इसमें गिरावट हो रही है और पिछले पांच-छह साल में यह 47 से घट कर 40 फीसदी पर आ गई है। यानी सौ में से 40 लोग ही रोजगार तलाश रहे हैं। अगर इनमें से दो लोगों को रोजगार नहीं मिलता है तो उनको बेरोजगार माना जाएगा, लेकिन सात फीसदी यानी 14 लोगों ने रोजगार तलाशना बंद कर दिया है उनका क्या? उनकी गिनती कहां होगी?

भारत में इस समय 108 करोड़ लोग वर्किंग एज ग्रुप में हैं, जिनमें से 40.4 करोड़ लोगों के पास रोजगार है। इसका मतलब है कि भारत में रोजगार की दर 37.5 फीसदी के करीब है। दिसंबर 2016 में भारत में वर्किंग एज ग्रुप की आबादी 95.9 करोड़ थी, जिनमें से 41.2 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ था यानी रोजगार की दर 43 फीसदी थी। सोचें, पांच-छह साल में वर्किंग एज ग्रुप की आबादी 12 करोड़ बढ़ गई और रोजगार 80 लाख कम हो गए!

इसका मतलब है कि रोजगार के आंकड़ों के आधार पर भी भारत की भयावह बेरोजगारी दिख रही है लेकिन अगर एलएफपीआर के आधार पर देखें तो इसकी भयावहता और बढ़ जाती है। रोजगार के संकट की वजह से ही मनरेगा में काम करने वालों की संख्या बढ़ रही है और कृषि सेक्टर में वापस लोगों के लौटने का सिलसिला शुरू हो गया है। रोजगार के संकट के कारण ही राज्यों की सरकारें स्थानीय लोगों के लिए नौकरियों में आरक्षण के कानून बनाने लगी हैं और इसी वजह से अलग अलग जातीय समूहों ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग तेज कर दी है। ये सारे संकेतक इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं रोजगार के फ्रंट पर पानी सिर के ऊपर से निकल रहा है। अगर कारण समझने की बात की जाए तो वह भी बहुत मुश्किल नहीं है। रोजगार के ज्यादा अवसर पैदा करने वाले निर्माण और विनिर्माण सेक्टर की सुस्ती इसका सबसे बड़ा कारण है। सरकार को तत्काल इनके ऊपर ध्यान देना चाहिए ताकि देश की बड़ी युवा आबादी को निराशा और अवसाद में जाने से रोका जा सके।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *