मानव प्रकृति
मनुष्य में क्या ऐसा खास है, जिससे वह शेष जीव-जंतुओं से अलग है? मनुष्य की प्रकृति! उसका सचेतन स्वभाव। अनुभवों की क्रियाशीलता। मनुष्य जिंदगी को चेतनता में जीता है? संभव है उसकी चेतनता अधिकांश समय परस्पर मानवीय रिश्तों पर केंद्रित होती हो। मनुष्य वह प्राणी है जो अपने अहम पर बाकी प्राणियों से व्यवहार बनाता है। मनुष्य का इस तरह क्रियाशील होना, जैविक शरीर में बिल्ट-इन डीएनए की प्रकृति से है। मनुष्य जीव जगत में चित्त, चरित्र, प्रवृत्तियों, स्वभाव, आचरण में बिरला है। उसका इस तरह बिरला होना कैसे है? क्या राज है? जवाब में असंख्य कहानियां हैं, कल्पनाएं हैं। फलसफे हैं। धर्म, दर्शन और विज्ञान ने इस पर बहुत कुछ बताया है। धर्म और दर्शन क्योंकि मनुष्य के अतीत और राजनीति की दास्तां की बुनियाद हैं तो इनकी व्याख्या पर इन विषयों पर विचार करते हुए गौर करेंगे। फिलहाल मनुष्य प्रकृति को समझना उद्देश्य है तो विज्ञान ने अब तक मनुष्य प्रकृति का जो सप्रमाण खुलासा किया है उसी अनुसार ह्यूमन के खास होने की विज्ञान सम्मत कहानी समझनी चाहिए।
जैविक रचना के दो आधार हैं। एक, वंशानुगत बीज, डीएनए। दो, बीज अंकुरण के बाद का लालन-पालन, खाद-पानी, आबोहवा, परिवेश और भूगोल! वंशानुगत बीज अपने गुण-अवगुण में क्या एक से हैं, या भीतर में जैविक भिन्नता से अलग-अलग किस्म के? इस सवाल पर मतभेद है। यदि बीज की किस्म से अंतरनिहित स्वभाव का फर्क है तो समझ सकते हैं कि सभी मनुष्य क्यों नहीं अपनी प्रकृति में एक जैसे हैं। बीज की प्रकृति, नेचर से बना जन्मजात जैविक शरीर जब लालन-पालन याकि पोषित होता है, भूगोल-परिवेश के बाहरी प्रभावों के नेचुरल सेलेक्शन में ढलता है तो उम्र के साथ शरीर अनुभवों की जैविकता पाता जाता है। इसलिए मनुष्य निर्माण की दो अवस्था, दो चरण हैं। एक, भ्रूण से जगत में जन्मने की खाली स्लेट वाली अवस्था और दूसरी, आंख खुलने, इंद्रियों के जगने से शुरू अनुभवों का जैविक विकास। सवाल है वंशानुगत डीएनए की मूल नेचर बनाम नर्चर (जन्मजात बनाम पोषित) में कौन निर्णायक है? इन दोनों में किसका, किस अनुपात में मनुष्य की प्रकृति को बनवाने वाला रोल है?
मनुष्य स्वभाव क्या जन्मजात?
यक्ष प्रश्न है कि मनुष्य प्रकृति क्या ईश्वर से वरदान है? विज्ञान ऐसा नहीं कहता। वह मानव शरीर की चेतना, आत्मा, बुद्धि, स्वभाव में मोटा मोटी डीएनए व विकासवाद की व्याख्या में मनुष्य प्रकृति का खुलासा करता है। कह सकते हैं सर्वमान्य जवाब न विज्ञान का है और न धर्मप्रवर्तकों, दार्शनिकों-विचारकों के चिंतन-मनन से निर्मित सत्य की लकीर है। पिछले छह हजार वर्षों से सुमेर, सिंधु घाटी के ऋषि-मुनियों, फिर ग्रीक दार्शनिकों ने मनुष्य प्रकृति पर बहुत विचारा है। उस नाते सच्चाई है कि मनुष्य अपने आप पर हैरान होते हुए दिव्य कल्पनाओं में जीता आया है। वह लगातार यह धारणा बनाए रहा है कि मनुष्य का विशिष्ट होना प्रमाण है कि ऐसा दैव शक्ति की लीला से है। ईश्वरीय दिव्यता से मनुष्य है। वह ईश्वर निर्मित है और कर्म फल भोगता होता है। स्वर्ग-नरक का सुख-दुख पाता है। पृथ्वी लोक का तानाबाना क्योंकि ईश्वरीय ऊर्जाओं से गुंथा हुआ है इसलिए पर्यावरण की अच्छी-बुरी ऊर्जाओ के ज्वार-भाटे, उनकी तरंगों से मनुष्य का स्वभाव प्रभावित रहता है। कोई राम बनता है तो कोई रावण। कोई अहंकार में जीता है और कोई मर्यादाओं में। ईश्वरीय लीला से पृथ्वी पर बाकी जितने जीव-जंतु हैं उनके व्यवहार के आवेगों, संवेगों में मनुष्य प्रकृति में भी गुण-अवगुण स्थितिक ऊर्जाएं होती हैं। तभी पृथ्वी के आठ अरब लोगों की आबादी स्वभाव के अलग-अलग भभकों की नियति में जीती हुई है। जन्मजात जैविक रचना एक होते हुए भी मनुष्यों का जीवन अलग-अलग है। वे हंस-परमहंस या शेर की तरह या भेड़-बकरी व भेड़िया जैसी प्रवृत्तियों की प्रकृति में जिंदगी गुजराते हैं।
मनुष्य दिमाग के बारीक नैनो, सचेतन, चेतन, अचेतन या अंतरचेतना की अलग-अलग अवस्थाओं का यह पेचीदा मसला है। सुकरात, प्लेटो, अरस्तू से लेकर, तमाम धर्मप्रर्वतकों, असंख्य धर्मगुरूओं से लेकर आधुनिक चिंतकों कार्ल मार्क्स, रूसो आदि ने मनुष्य स्वभाव के विचार में अपने को बहुत खपाया है। लोगों की प्रकृति को बदलने की हर संभव कोशिश हुई। लेकिन परिणाम? मोटा मोटी पिछले छह हजार सालों के अनुभवों की बार-बार पुनरावृत्ति! छह हजार वर्षों से मनुष्य सचमुच दार्शनिकों, धर्मप्रवर्तकों की अवधारणाओं की प्रयोगशाला में ही जीता आया है। इसके आंशिक से अतिवादी असर हुए हैं। किसी प्रयोगशाला में इंसान सनातनी बना तो किसी से करूणामयी और कोई मनुष्य को जुनूनी बनाने वाली साबित हुई। आम तौर पर मनुष्य को गुलाम, पालतू जैविक जीवन में ढालने के अधिक प्रयास हुए।
सोचें, मानव शरीर की जैविक, बॉयोलॉजिक रचना एक, लेकिन उसकी प्रकृति व व्यवहार के कितने रूप व कितने चेहरे? शायर निदा फाजली का यह लिखा लाजवाब है कि हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिस को भी देखना हो कई बार देखना! इस बात में यदि पूरे मानव समाज को जांचें तो कैसा विकट जंजाल बना मिलेगा।
मनुष्य को बूझना सचमुच टेढ़ा काम है। वह असंख्य परतें, पहेलियां और प्रवृत्तियां लिए होता है। उसे कई तरह की खुर्दबीनों में जांचा गया है। मनुष्य प्रकृति की पहेली में अवतारों-पैगंबर-देव पुरूषों, दार्शनिक-राजनीतिज्ञों-मानवशास्त्रियों ने कई धर्मशास्त्र लिखे। कितने ही महाकाव्य और महाग्रंथ रचे। लेकिन सार क्या?
विज्ञान का हस्तक्षेप
मनुष्य पर मनुष्य की अनवरत उधेड़बुन की छह सहस्त्राब्दियों के बाद पांच सौ साल पहले (कोपरनिकस- सूर्य केंद्र है) अचानक विज्ञान का हस्तक्षेप हुआ। मान्यताओं और कहानियों को सत्य की कसौटी पर कसा जाने लगा। वह हस्तक्षेप निश्चित तौर पर चिंतन, मनन, इलहाम, अंधविश्वास और कहानियों के सिलसिले में युगांतरकारी मोड़ था! धीरे-धीरे विज्ञान ने पृथ्वी और ब्रह्माण्ड के सत्य खोजते-खोजते जीव शरीर की बुनावट के भी गुण सूत्र, डीएनए और मष्तिष्क की परते उघाड़ी।
परिणाम सामने है। शरीर और मष्तिष्क का न केवल एक्सरे सामने है, बल्कि डीएनए के तुलनात्मक अध्ययन, उनमें संसोधन, परिवर्धन और मॉडल बेबी निर्माण की क्षमताओं में विज्ञान ने सिद्धहस्तता बना ली है। दिमाग की तंत्रिकाओं, रसायनों याकि ˈह्यूमन् न्यूरोटिक की हलचलों, फितरतों का शोध सत्य की और बढ़ता हुआ है। ताजा पहेली जैविक रचना में मृत किस्म के डीएनए की है। जैविक रचना में इनका रोल बूझा जा रहा है, जिन्हें मृत डीएनए मान रहे थे, संभव है वे भी मनुष्य स्वभाव को प्रभावित करने के कारक, प्रक्रिया के अंश हों! सोच सकते हैं सत्य को जितनी बारीकी से खोजा जा रहा है, उतनी ही गहराई बनती जा रही है। वैज्ञानिक जींस, ब्लैक होल आदि के अनंत की और बढ़ते हुए है।
तभी बार-बार लौटता यक्ष प्रश्न है कि मनुष्य प्रकृति को क्या कभी संपूर्णता में बूझा-समझा जा सकेगा? यदि हर मनुष्य एक सी प्रवृत्ति, प्रकृति, मनोदशा को लिए हुए नहीं है तो इसके पीछे के रहस्यों में आठ अरब लोगों के स्वभाव की संपूर्णता से जन्मपत्री क्या बन सकेगी?
सवाल है क्या इतना जानना जरूरी है? ऐसे जानना क्या जोखिमपूर्ण नहीं होगा? हां, जोखिम है! इसलिए कि यदि मनुष्य प्रकृति को विज्ञान ने सौ टका जान लिया तो वह फिर उसमें परिवर्तन, उसे मनमाफिक बनाने में भी समर्थ होगा। तब कहीं पृथ्वी की पूरी मानवता को एक सा बनाने का वैक्सीन न बन जाए। विज्ञान से मनुष्य भविष्य में कहीं यांत्रिक मशीन में ही कन्वर्ट न हो जाए!
अपना मानना है कि मानव के एक दैवीय स्वभाव में अनवरत सत्य खोजते हुए होना सुनिश्चित नियति है। वह कहानियों से जीएगा और उन्हीं से आगे सत्य की यात्रा भी बनती जाएगी। तथ्य है सारा चिंतन-मनन मनुष्य प्रकृति से निकली विविध कहानियों, विविध अनुभवों और कल्पनाओं से आगे बढ़ा है। मनुष्य प्रकृति का यह अजीब और अंतहीन चक्र है जो वह अंधकार से लगातार उजियारे की और बढ़ता हुआ है लेकिन पूरी मानवता के व्यवहार में उजियारे का स्वभाव एक जैसा नहीं हुआ। वह देवतुल्य हुआ। दूसरे ग्रहों पर नए लोक का विज्ञान बनाते हुए है लेकिन उसी मनुष्य में स्वभाव का दूसरा परिणाम पृथ्वी-मनुष्य के अस्तित्व संहार का प्रलयकारी मुहाना है। अंधकार और जड़ता के मनुष्यों के एनिमल फार्म है!
कैसी अजब बात जो मनुष्य प्रकृति ने चिंताओं, संहार के यक्ष प्रश्न बनाए तो विकास के इंद्रधनुष भी बना रखे हैं। मानव स्वभाव के विविध व्यवहार, अनुभव, परिणामों ने पृथ्वीलोक को रंग बिरंगा और अनोखा बनाया है तो स्याह और डरावना भी बना रखा है। इसलिए मनुष्य प्रकृति की इक्कीसवीं सदी का कोर सवाल है कि मानव सभ्यता में अलग-अलग फितरत को कैसे एक से मानवीय स्वभाव में ढाला जा सकता है। क्या ऐसा संभव है? क्या भूमंडलीकरण के बाद अब सभी मनुष्यों को यूनिवर्सली मानवीय संस्कारों, सद्गुणों की प्रवृत्ति में ढालने के अभियान का वक्त नहीं आ गया?
यह संभव नहीं है। मानवीय स्तर पर यह संभव नहीं है। हां, भविष्य का एक मशीनी खतरा है। विज्ञान से मनुष्य का रोबोट मशीन में कन्वर्जन होने का खतरा है। जैसे विज्ञान-तकनीक से रोबोट उत्पादन की असेंबली लाइन बन रही है। बड़ी संख्या में स्वचालित, बिल्ट-इन प्रोग्रामिंग, कोडिंग से तयशुदा व्यवहार का न्यूरोटिक दिमाग बना रोबो के प्रोडक्शन हो रहे हैं। सो, संभव है आगे आर्टिफिशियल इंटलीजेंस से रोबो दिमाग अधिकाधिक मनुष्य जैसा बने। रोबोट सरंचना यांत्रिक मनुष्य मशीन होंगी। मनुष्य भविष्य के इस रोबो समाज के जीवन व अस्तित्व को इनके दिमाग की प्रोग्रामिंग को पढ़ कर समझा करेगा। रोबो दिमाग का एक्सरे, डायग्नोसिस, पोस्टमार्टम करते हुए उनको दुरूस्त करने, उन्हें खत्म करने या उन्हें दीघार्यु बनाने के तमाम काम मशीनी अंदाज में होते रहेंगे।
जैविक इंडीविजुअलिटी और भविष्य
वैसी ही यांत्रिकता में क्या मनुष्य की बायो जैविकता नहीं जकड़ सकती? फिलहाल यांत्रिक अवस्था का मानव दिल-दिमाग नहीं है। मनुष्य प्रकृति का यह अद्भुत सत्य है जो वह एक से शरीर व डीएनए लिए हुए भी अपनी हर संतान की खास इंडीविजुअलिटी बनवाए होती है। हर व्यक्ति अपनी बिल्ट-इन स्टैंपिग, अंगूठे की विशिष्ट रेखा की छाप, स्वभाव के साथ जीवन जीता है और उसकी वह छाप दूसरे किसी मनुष्य से मैच नहीं होती!
हां, भ्रूण से बच्चा जब बाहर निकलता है तो वह अपनी अलग फितरत, अपना व्यक्तित्व लिए होता है! फैक्टरी में मैन्यूफैक्चर हो रहे रोबोट जैसे एक से गुण, कर्म, स्वभाव की वह पुनरूक्ति नहीं होती है।
ऐसा क्या ईश्वर की लीला से है या मानवशास्त्र के विकासवाद में पृथ्वी के परिवेश, जलवायु और ब्रह्माण्ड के ग्रह-नक्षत्रों की ऊर्जाओं के अलग-अलग असर से है? मानव शरीर की जैविक रचना में इन बाहरी कारणों का कितने प्रतिशत रोल है तो इन बिल्ट-इन जैविक बुनावट, जीन का कितने प्रतिशत रोल?
जवाब संभव नहीं है। सत्य मालूम हो जाए तो मनुष्य प्रकृति का जहां सौ टका डायग्नोसिस संभव होगा वहीं दुनिया बदलेगी। मानव और पृथ्वी दोनों के संकटों पर तब नए सिरे से विचार होगा। मनुष्य के स्वभाव, उसकी प्रकृति की डिकोडिंग हो, लक्षणों के पीछे की जड़ पकड़ में आ जाए तो वह जहां कमाल की वैज्ञानिक उपलब्धि होगी वहीं भविष्य का भयावह खतरा भी। कमाल इस नाते कि तब हर मनुष्य के अवगुणों का इलाज, उसकी वैक्सीन से संभव हो सकेगा। दूसरी तरफ खतरा यह कि विज्ञान के पास तब जिंदादिल- जीवंत विविधतापूर्ण मनुष्य समाज को एक सा यांत्रिक बना सकने की जैविक चाबी होगी।